एनसीसी अनिवार्य क्यों नहीं ?
राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों से निपटने की सफलता-विफलताओं से अधिक महत्वपूर्ण है- भारत के भविष्य निर्माताओं को राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व की भावना से जोड़ना। जो बच्चे नेशनल कैडेट कोर या स्काउट अथवा राष्ट्रीय सेवा योजना (एन.एस.एस.) से जुड़े रहे हैं, वे जीवन में कुछ सामाजिक-राष्ट्रीय मूल्यों को कभी नहीं भूल सकते। इसे दुर्भाग्य कहा जाएगा कि आजादी के बाद स्काउट के रूप में समाज सेवा की न्यूनतम शिक्षा-दीक्षा का काम सत्तर के दशक के बाद सीमित होता चला गया। इसी तरह नब्बे के दशक से आर्थिक उदारीकरण के बाद आर्थिक संसाधन बढ़ने के बावजूद एन.सी.सी. की योजना के विस्तार के बजाय सरकारी स्कूलों तक सीमित रह गई। हर सरकारी स्कूल में भी इसकी व्यवस्था नहीं हो सकी। केंद्र और राज्य सरकारें बजट का प्रावधान करती हैं- समय-समय पर भाषण देती हैं। गणतंत्र दिवस की परेड में भी एन.सी.सी. की भागीदारी देखकर ताली बजाती हैं, लेकिन कभी इस बात की समीक्षा नहीं करतीं कि छोटे-बड़े नेता, केंद्रीय या प्रादेशिक मंत्री, सांसद, विधायक, विधान परिषद के सदस्य या पालिका-निगम पार्षदों के परिवारों के कितने बच्चे एन.सी.सी., स्काउट या एन.एस.एस. में भी शामिल होते हैं? विडंबना यह है कि निजी क्षेत्र के अधिकांश पब्लिक स्कूलों में क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस इत्यादि की प्राथमिकता होती है, लेकिन एन.सी.सी. जैसी शिक्षा-दीक्षा के लिए कोई महत्व नहीं दिया जाता। जर्मनी जैसे आधुनिक देश तक में किसी युवा को तब तक डिग्री ही नहीं मिलती, जब तक उसने एक वर्ष तक प्रारंभिक सैन्य शिक्षा अथवा विकल्प के रूप में अस्पताल या अन्य सामाजिक संस्थान में कड़ी मेहनत से सेवा का काम करके प्रमाण-पत्र नहीं लिया हो। भारत में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस का नाम लेने वाली सरकारों ने आजतक चार पंक्ति का आदेश जारी कर एन.सी.सी. को अनिवार्य नहीं किया। इस काम के लिए किसी संसद में संशोधन की जरूरत भी नहीं है। इससे अच्छा रचनात्मक सर्जिकल आदेश क्या हो सकता है? देश की नई पीढ़ी अनुशासित और राष्ट्र प्रेम से अधिक जुड़ी होगी तो बाहरी संकट ही नहीं, प्राकृतिक आपदा अथवा बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।