Advertisement
24 November 2022

हिमाचल प्रदेश: ‘डबल इंजन’ की डबल मुसीबत

 

“चार दशक में पहली बार बिना किसी बड़े चेहरे के चुनावी मैदान में उतरी कांग्रेस और पांच साल के फायदे गिनवाते हुए सियासी परंपरा को तोड़ने का आह्वान करती भाजपा के बीच सीधी होड़, तीसरा कोई नहीं”

हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए 12 नवंबर को मतदान होगा और नतीजे महीने भर बाद आएंगे। तब तक कई इलाकों में बर्फ गिर चुकी होगी, लेकिन सियासी पारा आसमान छू रहा होगा। इस चुनाव को लेकर सबके मन में एक ही सवाल है कि इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में हासिल जीत की तर्ज पर क्या भारतीय जनता पार्टी हिमाचल की सत्ता को भी अपने पास बरकरार रख पाएगी या कांग्रेस पार्टी वापस सत्ता में आएगी। इस चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह की कमी अखर रही है, जो पिछले चार दशक तक यहां पार्टी का चेहरा रहे थे। लेकिन उनके गुजरने के बाद भी जिस तरह से बराबर उनका जिक्र आ रहा है, वह बताता है कि कांग्रेस को किसी बड़े चेहरे की कमी कितनी अखर रही होगी। कुछ लोग इसे हिमाचल में वी-फैक्टर का नाम देते हैं। जानकारों का मानना है कि शुरुआती सर्वेक्षणों से उलट कांग्रेस की जमीन चुनावी दौड़ में धीरे-धीरे मजबूत हो रही है।

Advertisement

भाजपा के लिए यही बात इस चुनाव में बड़ी चुनौती बन चुकी है, जो पांच साल बाद दोबारा सरकार बनाने का करतब बाकी राज्यों में दोहराती रही है। इस बार सत्तारूढ़ पार्टी का कांग्रेस के मुकाबले बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। कांग्रेस की दिक्कत उसके भीतर की धड़ेबाजी और राज्यों में उसका घटता जनाधार है। कांग्रेस के नेताओं में मतदान से पहले मची भगदड़ और उसके पास संसाधनों की कमी भाजपा के मुकाबले उसे नुकसान की स्थिति में पहुंचाती है, हालांकि हिमाचल जैसे राज्य में संसाधन उतना अहम सवाल नहीं हैं जितना यहां के स्थानीय मुद्दे मायने रखते हैं।

यह चुनाव सीधे-सीधे दो राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच हो रहा है और मतदान से पहले के दस दिनों में भाजपा ने कांग्रेस को पछाड़ने के लिए अपने सारे घोड़े खोल दिए हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा खुद हिमाचल प्रदेश से हैं। वे राज्य में मंत्री भी रह चुके हैं और असेंबली में विपक्ष के नेता भी। उन्होंने चुनाव की कमान खुद अपने हाथ में ले ली थी। भाजपा मतदाताओं के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्य के साथ भावनात्मक रिश्ते को बेचने की पुरजोर कोशिश कर रही है। पहली बार मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर इस चुनाव में भाजपा का चेहरा हैं। प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार जैसे राज्य के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री इस बार पूरी तरह चुनावी परिदृश्य से बाहर हैं।

रिवाज बदलेगा, राज नहीं नारे के साथ भाजपा मतदाताओं से हर साल सत्ता में बदलने वाली पार्टी की प्रथा खत्म करने की बात कर रही है। पार्टी का कहना है कि कम संसाधनों के चलते हिमाचल प्रदेश बड़े राज्यों की तरह आर्थिक वृद्धि को बरकरार नहीं रख सकता। केवल ‘डबल इंजन की सरकार’ यानी केंद्र और राज्य  दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार यहां के विकास और ढांचागत वृद्धि का सर्वश्रेष्ठ मॉडल साबित कर सकती है।

दो-दलीय व्यवस्था और महज 68 विधानसभा सीटों के साथ हिमाचल प्रदेश बेशक छोटा राज्य  हो लेकिन जटिल है। सामान्यत: यहां चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं, जिसके कारण राष्ट्रीय राजनीति के चश्मे से यहां के चुनाव नतीजों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। चार लोकसभा सीटों के चुनाव की बात अलग है। इसीलिए इस बार के असेंबली चुनाव 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों से बिलकुल भिन्न हैं, जब मोदी का जादू चला था और लोगों ने भगवा पार्टी के पक्ष में चली हवा के असर में भाजपा के सांसद चुन लिए थे।

प्रियंका गांधी ः हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव प्रचार के दौरान कांगड़ा की एक रैली

प्रियंका गांधी : हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव प्रचार के दौरान कांगड़ा की एक रैली

2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में शानदार जीत हासिल हुई थी। राज्य में कांग्रेस की सत्ता उस समय वीरभद्र सिंह के हाथों में थी और दोनों नेताओं के बीच जबरदस्त संघर्ष देखने को मिला था। सिंह के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप थे और गिरती सेहत के चलते राज्य पर उनकी पकड़ कमजोर पड़ चुकी थी। भाजपा ने ऐसे में कांग्रेस के खराब शासन को मुद्दा बनाया था। खासकर 16 साल की एक लड़की के बलात्कार और हत्या के बहाने महिला सुरक्षा का मुद्दा काफी गरमाया था। इसके अलावा माफिया राज भी भाजपा का मुद्दा था। इसका फायदा उसे 44 सीटों के रूप में मिला। कांग्रेस पार्टी कुल मिलाकर 21 सीटों पर सिमट गयी। दो निर्दलीय और इकलौता सीपीएम का विधायक चुना गया।

पिछले पांच साल के दौरान जयराम ठाकुर को दो बड़े झटके लगे हैं। यही कांग्रेस की वे पतवार हैं जिनके सहारे चुनावी लहरों को वह पार करने की उम्मीद में है। दो साल के कोविड संकट के चलते राज्य में विकास की गति जबरदस्त तरीके से प्रभावित हुई है। कांग्रेस ने जयराम ठाकुर को कोविड में कुप्रबंधन का आरोपी ठहराया है जिसके कारण पीपीई किट का एक घोटाला सामने आया था। इसमें प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. राजीव बिंदल कथित रूप से संलिप्त थे। उन्हें  बाद में इसके चलते इस्तीफा देना पड़ा था।

अगला मुद्दा राज्य में चार उपचुनावों का है- तीन असेंबली के चुनाव और एक लोकसभा की सीट पर। कांग्रेस ने चारों में जीत हासिल की। सबसे बुरा झटका भाजपा को मंडी सीट पर लगा जो मुख्यमंत्री का गृहजिला है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह ने मंडी की लोकसभा सीट जीती और वे फिलहाल प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं। इस जीत ने कांग्रेस की वापसी का तगड़ा संकेत दिया।

दिव्य हिमाचल अखबार के वरिष्ठ पत्रकार राजेश मंदोत्रा कहते हैं, “कांग्रेस सत्ता में लौटने की संभावनाएं दो आधारों पर देख रही है। उसे उम्मीद है कि वह उपचुनावों का रुझान कायम रख सकेगी और दूसरा, हर पांच साल पर सत्ता बदलने की ऐतिहासिक परिपाटी भी कायम रहेगी। कुछ और चीजें हैं जिनके चलते भाजपा की हालत कमजोर हुई है, महंगाई, बेरोजगारी, मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कमजोर राजकाज और सत्ता विरोधी माहौल।”

सबसे ज्यादा गरम मुद्दा यहां पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) का है जिसका एक मजबूत आंदोलन कर्मचारी यूनियनों ने खड़ा कर दिया है। राज्य में सरकारी कर्मचारी चुनाव पर बहुत असर डालते हैं क्योंकि यहां हर परिवार से कम से कम एक आदमी सरकारी नौकरी में है। हिमाचल में ढाई लाख से ज्यादा सरकारी कर्मी हैं और डेढ़ लाख पेंशनधारी हैं। इस कारण से सरकारीकर्मी राज्य विधानसभा चुनावों को उलटने-पलटने में निर्णायक कारक हैं।

कर्मचारी यूनियन के नेता प्रदीप ठाकुर कहते हैं, “ओपीएस पर आंदोलन कर रही कर्मचारी यूनियन ने स्पष्ट कर दिया है कि केवल उस पार्टी को वोट देना है जो ओपीएस को बहाल करने की गारंटी दे। भाजपा अब भी इस मसले पर टालमटोल कर रही है जो जाहिर है। देश भर में वह इसके खिलाफ है।”

ठाकुर का कहना है कि भाजपा के नेता उनके पास आए थे और उन्होंने चुनावी आचार संहिता लागू होने के कारण कोई घोषणा कर पाने में अपनी अक्षमता जताई थी। वे पूछते हैं कि मैं आंदोलनरत कर्मचारियों को कैसे यह बात समझाऊं कि ओपीएस कोई वादा नहीं, गारंटी था। वे कहते हैं, “यदि भाजपा किसी और राज्य में इसका ऐलान कर दे तो शायद वह हिमाचल में अपने नुकसान को कम कर पाएगी।”

पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल भी यही राय रखते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने सरकारी कर्मचारियों द्वारा ‘अच्छी  पेंशन’ की मांग को उचित ठहराया है। वे ओपीएस के मसले पर कहते हैं, “वीरभद्र सिंह की कांग्रेसी सरकार ने 2003 में ओपीएस लागू किया था। वे 2012 से 2017 तक सत्ता  में थे, उन्होंंने फैसला नहीं पलटा। अब कांग्रेस क्यों पछता रही है। उसे कर्मचारियों के साथ हुई इस नाइंसाफी का जिम्मा लेना चाहिए।” उन्होंने केंद्र और राज्य सरकार के साथ आकर इसका कोई हल निकालने का भी संकेत दिया है। राज्य के नेता खुद इस बात से इनकार नहीं करते कि ओपीएस भाजपा के सत्ता में लौटने की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाएगा।

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुरेश कश्यप कहते हैं, “यह एक बड़ा मुद्दा है। कांग्रेस इसको जरूर भुनाएगी।” भाजपा के आधिकारिक प्रत्याशियों के खिलाफ 22 सीटों पर भाजपा के बागी उम्मीदवार खड़े हैं, यह पार्टी का एक और संकट है। यह स्थिति राज्य में पहली बार पैदा हुई है। इसकी वजह यह बताई जाती है कि 19 मौजूदा विधायकों को पार्टी ने टिकट देने से इंकार कर दिया था। इसके अलावा दो मंत्रियों का चुनाव क्षेत्र बदल दिया गया और मुख्यमंत्री के गृहजिले मंडी में एक मंत्री का नाम काट दिया गया। स्थिति इतनी गंभीर थी कि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को अपने जिले बिलासपुर में रुकना पड़ा। बावजूद बागी हो चुके पार्टी नेता सुभाष ठाकुर नहीं झुके और आखिरकार उन्हें भाजपा से निकाल दिया गया।

कांगड़ा की फतेहपुर सीट पर राज्यसभा के पूर्व सांसद कृपाल परमार ने मौजूदा मंत्री राकेश पठानिया के खिलाफ अपनी उम्मीदवारी को वापस लेने से इंकार कर दिया जबकि उन्हें सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन कर ऐसा करने से मना किया था।

मंडी में पार्टी के मीडिया प्रभारी प्रवीण शर्मा ने पूर्व मंत्री अनिल शर्मा के खिलाफ बगावत कर दी। अनिल शर्मा का बेटा 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर मंडी से लड़ा था। इसके अलावा तीन मौजूदा विधायक और इतने ही पूर्व विधायक भी बागी हो चुके हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह कहती हैं कि कांग्रेस पार्टी को भाजपा के बागियों से फायदा होगा।

उनका दावा है, “छह से सात सीटें ऐसी हैं जहां बागी प्रत्याशी भाजपा का खेल खराब करेंगे और कांग्रेस को लाभ पहुंचाएंगे।” कांग्रेस के खुद के नौ नेता बागी हो चुके हैं। इनमें एक पूर्व स्पीकर गंगू राम मुसाफिर हैं। इसके बावजूद कांग्रेस ने सभी मौजूदा विधायकों को टिकट दिया है। पार्टी ने पूर्व मंत्रियों और उन विधायकों को उतारा है जो मामूली अंतर से 2017 में हार गए थे। इसके चलते पार्टी धड़ेबाजी और आंतरिक गड़बडि़यों से बच गई है।

शुरुआत में माना जा रहा था कि वीरभद्र जैसे दिग्गजों की गैर-मौजूदगी से कांग्रेस पार्टी पूरी तरह बिखर जाएगी। आज की तारीख में कांग्रेस की केवल एक दिक्कत है, मुख्यमंत्री पद के लिए एक से ज्यादा चेहरे। ये सब एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी की तरह देख रहे हैं। हो सकता है पार्टी को इस अंदरूनी लड़ाई का कुछ नुकसान झेलना पड़े।

कांग्रेस यदि सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा, यह देखने वाली बात होगी। दूसरी ओर भाजपा जयराम ठाकुर के नाम को लेकर एकदम साफ है, बशर्ते वह पांच साला बदलाव के रिवाज को अबकी बार बदल पाएं। आम आदमी पार्टी गुजरात पर सारा जोर लगाने के कारण हिमाचल में अपने पैर नहीं जमा पाई है। इसलिए अब भी यह राज्य अपने परंपरागत दो-दलीय शासन के तहत ही चलता रहेगा।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: Double Trouble, Double Engine, Himachal Pradesh, Outlook Hindi, Ashwini Sharma
OUTLOOK 24 November, 2022
Advertisement