झारखंड का बगड़ू हिल्स: हिंडालको का 'हिंडोला'; ईको टूरिज्म का नया ठिकाना, पहाड़ पर तालाब, बंजर में बाग
रांची। खान, खदान वाले इलाकों को लेकर मन में पहली तस्वीर धूल-गर्द और माल वाहक गाड़ियों की घड़घड़ाहट को लेकर उभरती है। मगर पहले से कुछ अलग चेहरा बनाये हिंडालको के बगड़ू स्थित बॉक्साइट माइंस कुछ और नई तस्वीर पेश कर रहा है। रांची से को 80 किलोमीटर दूर स्थित यह खदान दूसरी खादानों के लिए भी एक सीख की तरह है।
कंक्रीट की सड़क छोड़ गाड़ी अचानक लाल मिट्टी वाली सड़क पर घूम गई। यहां से सीधी चढ़ाई शुरू हो जाती है। कोई पांच-छह किलोमीटर में गाड़ी हांफने सी लगती है। सखुओं के घने जंगल के बीच तीखी चढ़ाई और तीखे मोड़ों के साथ एक तरफ गहरी खाई तो दूसरी तरफ आसमान छूते पहाड़ों की श्रृंखला। एक दिन पहले हुए बारिश में नहाये हुए पत्तों के बीच रेड मड की सड़क मानों प्रकृति ने स्वागत में रेड कार्पेट बिछा रखा हो। बगड़ू हिल पर्यटकों और प्रकृति प्रेमियों के लिए हिंडालकों का 'हिंडोला' अद्भूत नजारा पेश करता है।
पीढ़ियों से काम कर रहे स्थानीय लोग
माइनिंग लीज, विस्थापन और पुनर्वास झारखंड की गंभीर समस्या है। मगर यहां ऐसा कुछ नहीं दिखता। आदित्य बिड़ला ग्रुप के हिंडालको बॉक्साइट प्रोजेक्ट के हेड बीजेश झा कहते हैं कि खान में काम करने वाले लगभग सभी कामगार स्थानीय आदिवासी समाज से जुड़े हैं। परंपरागत तरीके से पुश्त दर पुश्त लोग यहीं काम कर रहे हैं। ऐसे में ग्रामीणों को जॉब सिक्युरिटी मिली हुई है। यहीं काम मिल गया तो विस्थापन नहीं हुआ जिससे उनकी सांस्कृति पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ा। चैती उरांव के पति सुखदेव उरांव, उनके पिता सुकरा उरांव, अनिता कुजूर के पति सुनील उरांव, उनके पिता बिरसा उरांव यहीं काम करते रहे। इनके जैसे परिवार भरे पड़े हैं।
वेतन के साथ अनाज भी
आदिवासी समाज में देसी शराब-हड़िया खान-पान की संस्कृति से जुड़ा है। वे ज्यादा भविष्य की चिंता नहीं करते। ऐसे में अगर घर का अभिभावक पैसे इधर उधर खर्च भी कर देता है तो परिवार को खाने के लाले नहीं पड़े इसका शुरू से ध्यान रखा गया है। हर कामगार के परिवार को वेतन के साथ 20 किलो चावल, 14 किलो गेहूं, छह किलो दाल और चीनी की आपूर्ति की जाती है। को ऑपरेटिव के माध्यम से कम कीमत पर अनाज की सुविधा भी है।
पहाड़ पर तालाब और फूलों की बगिया
अब हम बॉक्साइट माइंस के हाते में थे। बायोडाइवर्सिटी पार्क, 'बिरसा उपवन' के सामने। पूरा खान एरिया तो करीब 165 हेक्टेयर का है मगर इसमें साढ़े पांच एकड़ में यह पार्क है। नक्षत्र वन, मेडिशिनल पार्क, तितली, गुलाब वाटिका पांच तरह की थीम पर इसे विकसित किया गया है। कई क्यारियों में स्ट्राबेरी के फलों में लाली चढ़ रही है। गुलाब बाटिका में 25 तरह के गुलाब हैं तो दूसरे हिस्सों में लौंग, मसाला, इलायची, लेमन ग्रास और भी भांति भांति के पौधे। एक तरफ तारा मंडल की तरह डोम बना हुआ है। जहां खनन तकनीक की फिल्म देखने से लेकर कांफ्रेंसिंग तक की सहूलियत है। 20 हजार चाय के पौधे दार्जीलिंग से मंगाये गये हैं। एक हेक्टेयर में लगाने की प्रक्रिया शुरू है। यहां की मिट्टी नाशपाती के अनुकूल है इस कारण यहां इसकी भी बड़े पैमाने पर खेती कराई जा रही है। सतह से ऊपर बने इस पार्क से ही सटे करीने से विकसित दो बड़े तालाब दिखते हैं। तालाब के किनारे बांस से बने दो कॉटेज और बांस से ही बना बड़ा धुमकुड़िया यानी बैठक-विमर्श करने की जगह मन मोह लेगा। मन यहीं रुकने की जिद करेगा। इस तरह के पांच तालाब हैं। दो में सेल्फ हेल्प ग्रुप के माध्यम से मछलियों का पालन हो रहा है तो बत्तख भी पाले गये हैं। जो यहां की रहने वाली महिलाओं के लिए अतिरिक्त आय का जरिया भी है।
पहाड़ पर तालाब भूमिगत जल स्रोत के स्तर को कायम रखने में मददगार भी है। 2019 में ही यहां के करीब साढ़े बारह एकड़ वेस्ट लैंड को विकसित करने की योजना बनी थी जो अब एक आकार ले चुकी है। सीएसआर के हेड नीरज कुमार बताते हैं कि इन तालाबों में सालों भर पानी रहता है। हाल के तीन वर्षों में पार्क और तालाब को विकसित किया गया है। इसके पानी के स्रोत से नीचे के इलाकों में खेती में भी मदद पहुंचती है। वे बताते हैं कि प्रकृति को कम से कम नुकसान पहुंचे इसका ध्यान रखते हुए खनन के समय ऊपर की उपजाउ मिट्टी को किनारे कर देते हैं। खनन के बाद एक सीमा तक भराई के बाद उपजाऊ मिट्टी से उसे कवर कर देते हैं। ज्यादा गइराई वाले निचले इलाकों को तालाब का रूप दे देते हैं। अधिकांश बॉक्साइट की ढुलाई रोपवे से हो जाती है ऐसे नतीजा है कि प्रदूषण भी नहीं है। दूसरे माइनिंग एरिया को भी बगड़ू के ससटेनेबल माइनिंग से सीख लेने की जरूरत है।
नहीं है नक्सलियों का डर
यहां से कोई दस-बारह किलोमीटर आगे पेशरार और बुबुल जंगल है, नक्सलियों का गढ़। इसी पखवाड़ा वहां दस दिनों तक पुलिस ने ऑपरेशन चला कई नक्सलियों को पकड़ा है। नीरज कुमार कहते हैं कि हम सीएसआर के तहत गांव वालों के लगातार संपर्क में रहते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वरोजगार आदि के काम करते रहते हैं ऐसे में हमें डरने का कोई कारण नहीं। हमारी तीन बसें भी चलती हैं जो स्कूली बच्चों को नीचे ले जाती है, कक्षा खत्म होने के बाद लेकर वापस आती है। नक्सलियों के मूवमेंट को देखते हुए कभी कभी ग्रामीण खुद अलर्ट कर देते हैं, आज उधर मत जाइएगा।
एशिया का पहला सबसे पुराना बॉक्साइट माइंस
यह भारत ही नहीं एशिया का सबसे प्राचीन बॉक्साइट माइंस है। 1933 में ही बाल्डविन एंड कंपनी ने यहां खनन का काम शुरू किया था। 1939 में छोटानागपुर के नागवंशी राजा रातू के महाराज उदय प्रताप नाथ शाहदेव ने इसे ले लिया और बिना मशीन लगाये मैनुअल तरीके से मजदूरों की मदद से 1943 तक खनन का काम कराया। 15 जुलाई 1943 को इंडियन एल्युमिनियम कंपनी (इंडाल) ने नये तरीके से उत्पादन की शुरुआत की। कर्मचारियों के कल्याण के लिए में 1946 में ही जलापूर्ति, फोन, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं के साथ हिल टॉप कॉलोनी की स्थापना की गई। 1948 में ढुलाई के लिए मोनो केबल रोपवे की स्थापना की गई और लोहरदगा से जोड़ा गया। समय के साथ नई नई मशीनों का इस्तेमाल होने लगा जिस कारण इसकी ढुलाई 20 टीपीएच से बढ़कर 41.4 टीपीएच हो गई। एशिया का पहला बॉक्साइट खान है जिसे 1996 में ईएमएस (इनवायरॉनमेंटल मैनेजमेंट सिस्टम) के लिए आईएसओ 4001 प्रमाण पत्र मिला था। हिंडालको ने 2014-15 के दौरान उत्पादन और ढुलाई को 41.4 टीपीएच से बढ़ाकर 100 टीपीएच कर दिया।