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22 September 2025

आवरण कथा/नजरियाः विकास के नाम तबाही न बुलाइए

हिमालयी क्षेत्रों में तापमान बढ़ रहा है। इससे उन जगहों पर भी बारिश हो रही है, जहां पहले नहीं होती थी

पहाड़ों पर बारिश तेज है और नदियों में मातम का उफान है। नदियों का मातम पहाड़ों के साथ मैदानी इलाकों में भी तबाही ले आया है। भारत में इतनी तेज बारिश के पीछे कई कारण हैं। वैज्ञानिक कारण यह कि इस समय दो वेदर सिस्टम एक साथ सक्रिय हैं। एक, पश्चिमी विक्षोभ, जो आम तौर पर सर्दियों में शुरू होता है। दूसरा, दक्षिण-पश्चिमी मानसून, जो पहाड़ी हिस्सों में मौजूद है। इन दोनों के अलावा बंगाल की खाड़ी में हवाओं का दबाव भी कम है। सभी मिलकर ऐसी परिस्थिति बना रहे हैं कि तूफानी तेज बारिश ज्यादा जानलेवा सिद्ध हो रही है।

इसका एक और कारण जलवायु परिवर्तन भी है। हिमालयी क्षेत्रों में तापमान बढ़ रहा है। इससे उन जगहों पर भी बारिश हो रही है, जहां पहले नहीं होती थी। चार हजार मीटर की ऊंचाई पर बारिश कम या न के बराबर होती थी। लेकिन तापमान बढ़ने से बादल अब और ऊंचाई पर इकठ्ठा हो रहे हैं। इससे इन जगहों पर तेज और जरूरत से ज्यादा बरसात देखने को मिल रही है। यह सभी जानते हैं कि तापमान में एक डिग्री की बढ़त से बादल 8 प्रतिशत अधिक पानी जमा कर लेते हैं।

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बारिश की वजह से धराली की तबाही अभी तक सभी लोगों को याद होगी। खबर में लिखा जा रहा था कि वहां बादल फटा है। यह सभी लोगों को जानना चाहिए कि वहां बादल नहीं फटा, बल्कि लंबे समय तक वहां जरूरत से ज्यादा बारिश हुई। इससे हिमनदों के बर्फीले हिस्से अतिसंतृप्त हो गए। आसान भाषा में कहें, तो पहाड़ों में जो मोरेन (बर्फ और मिट्टी की बनी प्राकृतिक दीवारें) कई साल से नदियों का पानी रोक रही थीं, उनकी क्षमता खत्म हो गई और वे ज्यादा बारिश होने से ढह गईं। इससे पानी नीचे की तरफ तेजी से बह निकला।

अगर इसका सही पूर्वानुमान होता, तो इस हादसे से होने वाली तबाही में कमी लाई जा सकती थी। लेकिन आइएमडी पूर्वानुमान लगाने में नाकाम रहा, क्योंकि आइएमडी के डॉप्लर वेदर राडार 500 किलोमीटर के दायरे का अनुमान तो लगा पाते हैं लेकिन किसी एक जगह की सटीक जानकारी का अनुमान नहीं लगा पाते। हमें ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी, जिससे किसी एक जगह की एकदम सटीक जानकारी मिल सके। इसके लिए तकनीक को बहुत उन्नत बनाना होगा।

इसके लिए राडार और वर्षा नापने की क्षमता भी बढ़ानी होगी। अब तक दोनों ही पर्याप्त नहीं है। अभी जो सैटेलाइट हैं, वे हिमालयी क्षेत्रों में काम नहीं करती क्योंकि बादल घिरे होने से साफ-साफ पूर्वानुमान लगाना मुश्किल हो जाता है। इन सभी कारणों से हम कह सकते हैं कि आइएमडी का अर्ली वॉर्निंग सिस्टम फिलहाल उतना अच्छा नहीं है।

हिमालय जैसे सबसे नाजुक इलाकों में आधुनिक उपकरणों की कमी है। अगर बांधों, ग्लेशियर झीलों और बर्फ से भरे बेसिनों का वास्तविक समय का डेटा मिले और सभी के लिए खास चेतावनी प्रणाली हो, तो कई बार सिर्फ कुछ घंटों की तैयारी से ही जिंदगी बचा सकती है। खबर है कि सरकार इस पर 10 हजार करोड़ खर्च करने वाली है। इस रकम से अर्ली वॉर्निंग सिस्टम और राडार को उन्नत किया जाएगा, जो दुनिया के किसी देश से बेहतर होगा। इस दावे पर सवाल तो यही है कि आखिर ऐसा कब तक होगा?

देश में बाढ़ का पूर्वानुमान लगाने और बांधों के पानी को नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय जल आयोग नाम की एक और संस्था है। लेकिन इसका काम भी कभी संतोषजनक नहीं रहा है। इसका काम नदियों के कछार को देखना है, जो बाढ़ की बड़ी वजह बनता है। कछार से ही नदियों में पानी आता है, ये अब इनसानी गतिविधयों से भर दिए गए हैं। अगर ये साफ रहते, तो नदियों में पानी धीरे-धीरे आता और हमेशा बना रहता। लेकिन सड़क बनाने, बहुत सारे पेड़ काटने और कई कारणों से ये इलाके पान रोक नहीं पाते। इससे नदियों में अचानक पानी आ जाता है और जल्दी चला भी जाता है। इस पर ध्यान देना जरूरी है।

इन सबके अलावा स्थानीय आबादी की भागीदारी से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। एनडीएमसी के दिशानिर्देश भी यही कहते हैं। विभाग के किसी भी बड़े अधिकारी से ज्यादा उस इलाके के बाशिंदे नदी और पहाड़ के स्वभाव को जानते-समझते है। समझदारी तो इसी में है कि किसी भी निर्माण से पहले स्थानीय लोगों की राय जरूर लेनी चाहिए। वे बिना राडार और सर्वे के बता सकते हैं कि कौन-सा क्षेत्र सुरक्षित है और कहां कितना काम हो सकता है।

धराली की घटना से ही इसे समझते हैं। वहां त्रासदी हो सकती है इसे लेकर कई चेतावनियां दी गईं थीं। धराली के आसपास के गांवों ने 2013 और 2018 में बढ़ते पानी और गाद की मार को झेला था। 2013 की बाढ़ के बाद प्रशासन ने वहां एक सुरक्षा दीवार बनाई थी। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना था कि ये उपाय काफी नहीं थे। लोगों ने प्रशासन से नदी के पास निर्माण रोकने, मलबा हटाने और अवरुद्ध जल निकासी मार्गों को साफ करने का आग्रह किया, लेकिन कुछ नहीं किया गया। नतीजतन, वहां हादसा हुआ और सैकड़ों जिंदगियां बह गईं।

धराली के अलावा, बद्रीनाथ में भी हो रहे निर्माण कार्य और तोड़फोड़ को लेकर पर्यावरणीय चिंताएं हैं। चारधाम परियोजना के मद्देनजर पिछले कुछ सालों से इस क्षेत्र में अंधाधुंध काम हुआ है। लेकिन अभी तक किसी को इसकी भयावहता का अंदाजा नहीं है। अलकनंदा के दोनों ओर के घाट टूट चुके हैं और अगर आने वाले दिनों में अलकनंदा का जलस्तर बढ़ा तो बाढ़ का बड़ा खतरा है।

विकास जरूरी है लेकिन यह हमेशा टिकाऊ और समावेशी होना चाहिए। पहाड़ों की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए विकास किया जा रहा है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जिससे बाढ़ में हजारों करोड़ रुपयों और लोगों की जान का नुकसान हो। विकास के नाम पर ऐसी जगहों पर छेड़खानी नहीं होनी चाहिए, जो अतिसंवेदनशील हैं। इकोलॉजी और इकोनॉमी एक-दूसरे की पूरक होनी चाहिए।

आपदा शहर पर आए या पहाड़ पर दोनों का ही असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे मैदानी इलाकों में बाढ़ से हजारों एकड़ खेत डूब जाते हैं, फसलें बर्बाद होती हैं। शहरों में दुकानों पर ताले लग जाते हैं। सड़कों और पुलों को नुकसान होता है। स्कूल बंद रहते हैं। विस्थापन होता है। इससे आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह का नुकसान होता है।

शहरों में भी बाढ़ प्रबंधन बहुत खराब है। दिल्ली का ही उदाहरण लें। यहां 100 से अधिक तालाब थे। सभी भर दिए गए। कहीं मॉल बना, कहीं सड़क, कहीं बिल्डिंग। ये तालाब अत्यधिक पानी सोखते थे और बाढ़ नहीं आती थी। अब ये सब खत्म हो गया। नालों में गाद जम चुकी है, पुराने जल प्रवाह के रास्ते बंद हो गए हैं। इसलिए पानी सड़कों और घरों में आ जाता है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल कई बार कड़े शब्दों में चेतावनी दे चुका है। कोर्ट अधिकारियों को फटकार लगा चुका है लेकिन व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आदेश देने के बाद भी कोर्ट को देखना चाहिए कि जमीन पर क्या हो रहा है। दिल्ली के यमुना प्लेन पर श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम के बाद कोर्ट के आदेश का कितना पालन हुआ और सिक्किम के तीस्ता नदी पर हुए हादसे में क्या एक्शन लिया गया, इसे देखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर बाढ़ नियंत्रण में सभी की भागीदारी जरूरी है। इसके लिए नीयत और सक्रियता दोनों चाहिए।

सरकार के काम करने की रफ्तार को देखते हुए कहना मुश्किल है कि तुरंत कोई बड़े कदम उठाए जाएंगे। लेकिन कुछ जरूरी काम बिना देर किए होने चाहिए। सबसे पहले, आने वाले खतरों से निपटने की तैयारी मजबूत करनी होगी। जब तक भूवैज्ञानिक और जलविज्ञान से जुड़े स्वतंत्र अध्ययन पूरे नहीं हो जाते, तब तक पहाड़ों के नाजुक इलाकों में बड़ी परियोजनाओं पर रोक लगानी चाहिए। जिन जगहों को पहले ही संवेदनशील बता दिया गया है, वहां टिकाऊ विकास होना चाहिए। संवेदनशील क्षेत्रों का नक्शा सबके लिए खुला होना चाहिए ताकि लोग खुद भी सावधान रह सकें।

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और पर्यावरणविद)

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OUTLOOK 22 September, 2025
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