झारखंड: संकट में गांव की सरकार
आदिवासी बहुल झारखंड में गांव की सरकार संकट में है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का कार्यकाल जनवरी माह में खत्म हो रहा है। निकट भविष्य में चुनाव की संभावना भी नहीं दिख रही है। राज्य निर्वाचन आयुक्त का पद छह माह से खाली है और नियुक्ति को लेकर कोई ठोस पहल भी नहीं दिख रही। निर्वाचन आयुक्त एन.एन. पांडेय जुलाई में ही अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। पक्ष-विपक्ष में सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप चल रहा है। इसका नुकसान प्रदेश को उठाना पड़ेगा। निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के बाद भी परिसीमन, मतदाता सूची, आरक्षण आदि चुनावी प्रक्रिया में लगभग छह माह लगेंगे। जाहिर है, त्रिस्तरीय पंचायत संचालन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। निकायों में प्रशासक की नियुक्ति, संचालन के लिए कमेटी बनाने या मौजूदा निर्वाचित सदस्यों को तदर्थ रूप से काम करने के लिए प्रावधान करने होंगे। ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम के अनुसार पंचायत प्रतिनिधियों के अवधि विस्तार का कोई प्रावधान नहीं है। मगर अगला चुनाव होने तक समिति बनाकर वैकल्पिक व्यवस्था की जाएगी। उसमें पंचायती राज व्यवस्था में काम कर चुके जन प्रतिनिधियों को शामिल किया जाएगा। कोशिश है कि पंचायतों की विकास योजनाएं प्रभावित न हों। कोरोना के कारण चुनाव नहीं कराया जा सका है।
पंचायती व्यवस्था के जानकार मानते हैं कि केंद्र में विरोधी दल की सरकार है, तो ऐसे में बिना चुनाव 15वें वित्त आयोग से मिलने वाली राशि, अनुदान प्रभावित होंगे। यदि पंचायतों के लिए आने वाली राशि में कटौती हुई, तो गांवों की विकास योजनाएं प्रभावित होंगी। 32 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद यहां 2010 में पंचायत चुनाव हुआ था। उसके बाद 2015 में हुआ। इस एक दशक में पंचायतों के नाम पर वित्त आयोग से परफार्मेंस ग्रांट के रूप में करीब दस हजार करोड़ रुपये से अधिक की राशि मिली। 15वें वित्त आयोग में मदद की राशि और बढ़ेगी।
भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि सरकार पंचायत चुनाव न कराकर सरकारी बाबुओं के माध्यम से लूट का इंतजाम कर रही है। समय पर चुनाव नहीं होगा तो गांव के विकास के लिए केंद्र से मिलने वाले पैसे रुक जाएंगे। विकास के काम ऐसे ही ठप हैं। पंचायतों में काम नहीं होगा तो रोजगार की तलाश में लोगों का पलायन होगा। कोरोना के नाम पर 14 शहरी निकायों के चुनाव भी नहीं कराए गए हैं।
इधर पंचायत राज निदेशक ने उप विकास आयुक्तों को पत्र लिखा है कि पहली बैठक से पांच साल पूर्ण होने की तिथि के बाद तीनों संस्थाएं स्वत: विघटित समझी जाएंगी। पदधारकों के पद रिक्त हो जाएंगे और वैकल्पिक व्यवस्था के लिए अलग से निर्देश जारी किया जाएगा। दिसंबर 2020 में चुनाव अपेक्षित था। पंचायती संस्थाओं के विघटित होने का मतलब दस हजार से अधिक जन प्रतिनिधियों का पैदल हो जाना है। मुखिया के 4402, वार्ड सदस्य के 5423 और जिला परिषद सदस्य के 545 पदों पर चुनाव होने हैं। इधर कांग्रेस विधायक बंधु तिर्की ने जल्द राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की मांग की है। प्रदेश मुखिया संघ के अध्यक्ष विकास कुमार महतो कहते हैं कि मध्य प्रदेश की तरह यहां भी सरकार प्रशासकीय समिति का गठन करे और जिस तरह पंचायत प्रतिनिधि काम कर रहे हैं, उन्हें करने दें।
पूर्व उप मुख्यमंत्री आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखकर कहा है कि सरकार जल्द रुख स्पष्ट करे। इधर राज्य सरकार मुखिया के वित्तीय अधिकारों में कटौती का आदेश जारी कर चुकी है। अब लाभुक समिति के माध्यम से पांच के बदले ढाई लाख रुपये तक के ही काम करा सकेंगे। उससे अधिक के लिए टेंडर निकालना होगा।
राज्य निर्वाचन आयुक्त का पद राजनैतिक खींचतान में खाली पड़ा है। सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं कि इसमें भाजपा बाधक बनी हुई है। कांग्रेस प्रवक्ता आलोक दुबे कहते हैं कि भाजपा दूसरे विधायक को विधायक दल का नेता चुन ले, तो नेता प्रतिपक्ष का संकट टल जाएगा। इधर भाजपा प्रवक्ता पतुल शाहदेव कहते हैं कि सरकार बहाना कर रही है। निर्वाचन आयुक्त का चयन सरकार का विशेषाधिकार है। मंत्री गलतबयानी कर रहे हैं कि कमेटी बनाकर वैकल्पिक व्यवस्था करेंगे, यह गैर संवैधानिक है।
सरकार चाहती तो जिस तरह सूचना आयुक्त के लिए महाधिवक्ता से राय लेकर नेता प्रतिपक्ष के बिना कमेटी की मंजूरी का रास्ता निकाला है, वही रास्ता राज्य निर्वाचन आयुक्त के लिए भी हो सकता है।