लिंगभेद से परे एक कामयाब किन्नर
किसी भी व्यक्ति को 'सेलेब्रिटी स्टेटÓ अच्छा लगेगा। लेकिन यह स्टेटस यदि 'अजूबेÓ की तरह आए तो कितने हैं जो असहज नहीं होंगे। यह घटना भी ऐसे ही सेलेब्रिटी स्टेटस की है। छत्तीसगढ़ जिले की महापौर मधु, महापौर मधु नहीं बल्कि किन्नर मधु हैं। यह छोटा सा विशेषण शहर के प्रथम नागरिक को आश्चर्य की वस्तु बनाने के लिए पर्याप्त है। विशुद्घ रूप से राजनैतिक अखाड़े की उठापटक में वह न नर हैं न नारी। लेकिन वह सब पर भारी हैं। भारतीय जनता पार्टी जो पिछले आठ-नौ महीनों से जीत की आदत डाल चुकी थी, जिसके कार्यकताओं को सिर्फ जीत के नगाड़ों की आवाज सुनने की आदत थी उन लोगों को छत्तीसगढ़ के नगरीय निकाय में एक पटखनी दे दी है। दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने खूब जोर लगाया लेकिन जिस समुदाय को कायराना या हिकारत का पर्याय माने जाने वाली स्थिति में अपशब्द के रूप में कहा जाता है, उसी हिजड़ा समुदाय ने आसानी से वह कुर्सी छीन ली। यह सिर्फ रुतबे की कुर्सी नहीं है, बल्कि यह कुर्सी मतदाता यानी जनता के विश्वास और प्यार की भी कुर्सी है। जाहिर सी बात है, मधु किन्नर की जीत बताती है कि पूरी तरह तो नहीं मगर हां बदलवा में जिसके प्रति विश्वास झलकेगा, उसे मत देने में अब झिझक पीछे रह जाएगी। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि किन्नर समुदाय के किसी पहले सदस्य ने यह जीत हासिल की हो। सबसे पहले 1999 में मध्य प्रदेश के कटनी में कमला जान ने महापौर का चुनाव लड़ा और जीता। वह ज्यादा दिन इस पद पर नहीं रह पाईं क्योंकि यह 'महिलाÓ आरक्षित सीट थी। तब लिंग भेद को लेकर बहुत नियम भी नहीं बने थे। उन्हें 'तीसरेÓ (थर्ड जेंडर) का दर्जा नहीं मिला था। इसके बाद 2003 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आशा देवी ने महापौर का चुनाव लड़ा और जीता। अफसोस यह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और फिर वही वह था हैं या थीं की उलझनों में उनका चुनाव रद्द घोषित हो गया। इसके बाद मध्यप्रदेश के ही सागर में कमला किन्नर ने 2009 में चुनाव लड़ा, जीतीं और फिर कोर्ट ने उनका चुनाव भी रद्द कर दिया क्योंकि वह महिला आरक्षित सीट से चुनाव लड़ी थीं।
अब देश को एक और किन्नर मेयर देने वाली रायगढ़ की जनता देखते हैं कितनी भाग्यशाली निकलती है कि वह अपने निर्वाचित मेयर से वह सब काम पूरे करा पाए जिसके मंसूबे बांध कर उसने ऐसे व्यक्ति को वोट दिया है, जो सामाजिक दायरे में सामान्य रूप से आने के लिए खुद लड़ रहा है।
एक उनींदे से शांत शहर रायगढ़ की छोटी-छोटी तंग गलियों में घुसने से पहले ही जिस बोर्ड पर नजर अटक गई उस पर लिखा था, 'चौथा को देखे, पंजा को देखे, इस बार छक्का को देखें। इस बार मधु किन्नर को मटका पर वोट दे कर विजयी बनाएं। बाद में मधु की सहयोगी सुहाना ने बताया कि महापौर के लिए खड़े हुए एक उम्मीदवार का सरनेम चौहत्था था। 'हम लोगों ने उसमें से ह हटा दिया और चौथा को दूसरी पार्टी के निशान के साथ जोड़ कर हमने दीदी के लिए नारा बना दिया।Ó जितना उत्साह संकरी गली के उस मकान में था, वहां माहौल हमेशा से ऐसा नहीं रहता था। इससे पहले सब कुछ सामान्य से भी खराब था। नल है पर पानी नहीं, बिजली के तार हैं पर अंधेरा है। सफाई के बारे में सोचना ही कठिन था। रोज सुबह मधु अपनी मंडली की सदस्य कुंती, शिल्पा, नंदिनी, जया, श्रुति, बालपरी और सुनीता के साथ सड़कों पर निकलती थीं। लोगों के नए घर की बधाई देना, नवजातों को दुआएं देना, नवविवाहितों को शुभकामनाएं देखर जो मिले उसे स्वीकारना और फिर अगली सुबह का इंतजार करना। बस यही दिनचर्या और एक ही काम।
मधु कहती हैं, 'पिता हमारे हम्माल थे। मजदूरी कर हम भाई-बहनों के लिए किसी तरह दो जून की रोटी जुटाते थे। पांचवी तक स्कूल गई फिर घर में रोटी जुटाने के लिए मेहनत-मजूरी करने लगी। सोलह की होते-होते मौसी (किन्नर समुदाय के लिए स्थानीय लोग यही संबोधन इस्तेमाल करते हैं) लोगों ने देखा और साथ ले गए। बस तब से इन्हीं के साथ रहते हैं।Ó मधु को कथक सीखने का शौक था, सो उन्होंने बाकायदा इसे सीखा। जंगल से लकडिय़ां बीनने वाला 'नरेश चौहानÓ अब एक प्रशिक्षित कथक नर्तक बन गया था। नाम रखा मधु किन्नर। दो साल की कथक की पढ़ाई के दौरान ही छत्तीसगढ़ राज्य के बड़े समारोह चक्रधर समारोह में उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन किया। जो मधु रायगढ़ से सिर्फ एक बार बाहर निकली हैं। एक कार्यक्रम के सिलसिले में वह मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल गई हैं। उन्हीं मधु के पास देश तो छोडि़ए विदेश जाने के आमंत्रण हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया उनके एक इंटरव्यू के लिए लालायित है। उन पर वृत्तचित्र बनाने की तैयारी है।
मधु बहुत आत्मविश्वास से अपनी बात रखती हैं। उन्हें किसी प्रकार की झिझक नहीं है। वह पूछती हैं, 'हम आप लोगों के समाज में नहीं रहते तो क्या, उस समाज के नियम तो जानते ही हैं। हम भी तो और लोगों की तरह हैं। वैसे ही हाथ-पैर, वैसे ही एक नाक दो आंखें। बस एक शारीरिक कमी की वजह से क्या हम पर हंसना या हौआ समझना अच्छी बात है?Ó ऊंची कद-काठी की मधु को अपना समुदाय ही सबसे बड़ी ताकत लगती है। वह चाहती हैं कि उनके समुदाय को बराबरी का हक मिले। आरक्षण मिले और ऐसे मौके मिलें जिससे हम भी आगे बढ़ पाएं। वह अपने दफ्तर में अपनी साथिनों को काम देने का सोच रही हैं। जिसकी जितनी पढ़ाई उस हिसाब से वह उन्हें काम बांटेगीं। वह जानती हैं कि यह जीत अंतिम लक्ष्य नहीं है। वह बिना लाग लपेट कर कहती हैं, 'हम जानते हैं कि जनता का दोनों पार्टी से मन फट गया था। तब ही उन लोगों ने हमें चुना है। यह जनता का आक्रोश था कि उन्होंने एक किन्नर पर ज्यादा विश्वास किया। हमारी एक साथी ने नारा बनाया, हर बार नकली छक्के देखे, इस बार असली छक्के को देखें। यह नारे ने कमाल का काम किया। हम तो कहते हीं हैं कि हम यह हैं पर जो नहीं है यदि वह भी इस श्रेणी में है तो कहिए शर्मिंदा किसे होना चाहिए।Ó
मधु और उनके मोहल्ले वालों के बहुत से लोगों के राशन कार्ड नहीं थे। जिस दिन उन्हें शपथ लेने जाना था उन्हें किसी दूसरे के यहां जा कर नहाना पड़ा क्योंकि पानी नहीं आया था। शपथ लेते ही उन्होंने इसकी शिकायत की तो आधे घंटे में एक टीम आई और उसने देखा कि परेशानी कहां है। वह इस बात पर हंसती हैं। उनका पूरा जोर अपने समुदाय को मुख्य धारा में लाना है। वह चाहती हैं कि जिस भी परिवार में ऐसे बच्चे हों वह पढ़ें-लिखें और आगे बढ़ें। जनता उनकी ताकत है। अब वह जनता की ताकत बनना चाहती हैं।
'गरीबी का दंश मैं जानती हूंÓ
मधु किन्नर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की नवनिर्वाचित महापौर हैं। एक छोटे से जिले का महापौर बनना इतनी बड़ी घटना नहीं है। बड़ी घटना है, एक किन्नर का प्रथम नागरिक बनना। आउटलुक के लिए फीचर संपादक आकांक्षा पारे काशिव ने उनसे बात की :
. एक नृत्य प्रेमी मधु, महापौर मधु कैसे बन गई?
सब लोगों के प्यार के खातिर। सब लोगों ने बहुत विश्वास दिलाया, मौसी आप चुनाव में खड़े हो हम आपको वोट देंगे। मैंने बहुत लोगों से पूछा कि क्या मैं वाकई चुनाव लड़ूं? सबने कहा हां आप जरूर पर्चा भरो। तब मैंने नामांकन भरा और नतीजा आपके सामने है।
. चुनाव लडऩे और जीतने तक तो ठीक है, अब आगे क्या योजनाएं हैं?
मैं मानती हूं कि चुनौती बड़ी है। काम करना फिर भी आसान होता है, लेकिन काम कराना बहुत कठिन है। जब हम एक परिवार की जिम्मेदारी उठाने में इतनी परेशानी उठाते हैं तो फिर तो यह एक पूरे शहर की जिम्मेदारी है। समस्याएं बहुत हैं और सभी को मुझसे उम्मीदें बहुत ज्यादा। मैं काम और उसके पूरा होने का तरीका सीख रही हूं। सभी लोग मुझे सहयोग कर रहे हैं। मुझे विश्वास है कि मैं लोगों का विश्वास कायम रख पाऊंगी। मैं लोगों से पूछती रहूंगी कि वह क्या चाहते हैं। सोच रही हूं दफ्तर की व्यवस्ता इस प्रकार रखूं कि लोग आसानी से मुझे मिल सके। ऐसा न हो कि कोई गेट के अंदर आने में ही डर महसूस करे। मैं हफ्ते में एक दिन दफ्तर के बाहर ही टेबल-कुर्सी लगा कर बैठूंगी, ताकि जनता से संवाद कर सकूं।
. इसके पहले आपने कभी कोई नेतृत्व का काम संभाला है?
नहीं। लेकिन बहुत से काम ऐसे हैं जो हम कभी नहीं करते। लेकिन फिर भी कई काम करते हैं। ऐसे ही यह काम भी है। मैं यह काम कर लूंगी ऐसा विश्वास मुझे इसलिए है क्योंकि अब तक मैं लोगों के बीच ही रही हूं। हर दिन हमारा लोगों के बीच ही बीतता है। तरह-तरह के लोगों से रोज बात होती है इसलिए समझती हूं कि लोगों की जरूरत क्या होती है और एक आम आदमी क्या चाहता है।
. आपकी महत्वकांक्षाएं क्या हैं?
लोगों के विश्वास पर खरा उतरना। एक गरीब परिवार में पैदा हुई। गरीबी में ही पली-बढ़ी हूं। मैं गरीबी का दंश जानती हूं। सामान्य लोगों की तरह जीवन नहीं जिया। हर बार हम जहां भी जाते हैं, लोग उत्सुकता से हमें देखते हैं। मेरा अपना कोई परिवार नहीं है। बस समुदाय है। इसलिए मुझे न खूब पैसा कमाने की चाहते है न बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में घूमने की। मैं तो शपथ लेने भी ऑटो से गई थी।
. अभी तो आप निर्दलीय हैं। आगे किसी पार्टी के साथ जाना चाहेंगी?
मैं बहुत राजनीति नहीं समझती। मगर इतना समझती हूं कि किसी पार्टी का दामन थाम लेने का मतलब होता है, उस पार्टी के सारे नियमों को बांधना। मैं यह नहीं कहती कि कोई पार्टी बुरी है, मगर इतना तो समझ ही सकती हूं कि लोगों ने एक बिना पार्टी के उम्मीदवार को चुना है। यानी कहीं न कहीं तो पार्टियों के खिलाफ लोगों में असंतोष रहा ही होगा। अगर मुझे कभी वह रास्ता चुनना भी पड़ेगा तो लोगों की राय लूंगी।