बंद करो वानिकी, पानी रोको जंगल खुद आ जायेंगे: अनिल प्रकाश जोशी
जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के साथ जीईपी (सकल पर्यावरण उत्पाद) को लेकर चलने पर जोर देने वाले पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित देश के चर्चित पर्यावरणविद डॉ अनिल प्रकाश जोशी पर्यावरण से आम आदमी को जोड़ने के लिए 'नेचर नेटवर्क' कायम करने पर काम कर रहे हैं। उत्तराखंड में उनके काम को देश-दुनिया में पहचान मिली है। एक कार्यक्रम के सिलसिले में रांची आये थे। पर्यावरण को लेकर उन्होंने आउटलुक के नवीन कुमार मिश्र से लंबी बातचीत की। उन्होंने कहा कि पर्यावरण का हम बहुत नुकसान कर चुके। स्थिति भयावह है। अब बात नहीं, काम करने की जरूरत है, ऑपरेशनल मोड में। सिर्फ इकोनॉमी से काम नहीं चलने वाला। निवेश तभी समेकित होगा जब साथ-साथ इकोलॉजी पर भी काम हो। हमें भी सड़क, पुल, एयरपोर्ट, आधारभूत संरचना, मोबाइल सब चाहिए मगर इकोलॉजी के साथ।
वरदान बन सकते हैं खाली खदान
झारखंड के मसले पर कहा कि उत्तराखंड और झारखंड की प्रकृति में समानता है, ऐसे में यहां के लिए आपका क्या फार्मूला है सवाल पर डॉ जोशी ने कहा जंगल कट रहे हैं, पानी भाग रहा है। यहां खदानों की भरमार है। खाली या बंद पड़े खदान अभिशाप के बदले वरदान साबित हो सकते हैं। यहां भी इकोलॉजी बैलेंस पर काम करने की जरूरत है। जहां खनन कर खाली छोड़ दिया है बंधवा दें, वाटर हार्वेस्टिंग की क्षमता बढ़ा दें। खनन के स्रोत पानी के स्रोत हो जायेंगे। मैं लिखकर देता हूं पांच साल में सूरत बदल जायेगी। बारिश कंजर्व हो, एक-एक क्यूविक मीटर के होल बनाएं। एक हेक्टेयर में तीन सौ होना चाहिए क्योंकि एक खड़्डे को भरने के लिए दस मीटर का कैचमेंट एरिया होना चाहिए ताकि भरे। पानी से खुद जंगल पैदा होगा, पहले घास उगेंगे, उसके बाद पौधे और उसके बाद ये जंगल का आकार लेने लगेंगे। जहां जंगल आ गया, आग भी नहीं लगती। बारिश के पानी से कायम नमी रहने के कारण आग नहीं लगती। पानी रिचार्ज होगा, जंगल जिंदा हो जायेंगे। जीडीपी के साथ जीईपी भी लाओ। आपके एकाउंट से पता चल जायेगा कि कितना हवा, मिट्टी जंगल, पानी है और आपने कितना जोड़ा। बताओ इकोलॉजिकल ग्रोथ रेट कितना है। कितना पानी रोका, वाटर लेवल कहां पहुंचा। यहां इकोलॉजिकल एकाउंटिंग नहीं है। झारखंड सरकार इकोलॉजी और इकोनॉमी पर बैठक करे। विरोध से कुछ नहीं होता, टेहरी का विरोध हुआ मगर बना। सरकार को भरोसे में लेना होगा।
पानी से सब आता है
डॉ जोशी ने कहा कि झारखंड में करीब 1400 एमएम रेन फॉल है। हम सब की ये ड्राइव होनी चाहिए कि जंगल नहीं बचे तो पानी बचाओ फिर उसके फॉलोअप में सब आता है। देश का दुर्भाग्य कि जो भी बारिश का पानी आठ से दस प्रतिशत ही स्टोर होता है वह भी नेचर करता है। हमने प्रयत्न नहीं किया। क्यों चाहिए जंगल सवाल करने के साथ खुद उत्तर देते हैं इसलिए कि पानी बनाता है मिट्टी बनाता है, हवा देता है। 33 प्रतिशत फॉरेस्ट कवर होना चाहिए नियम है। यह पानी के लिए क्यों नहीं बना कि इतनी बारिश होती है इतना स्टोरेज होना चाहिए। यह सिर्फ आपके लिए ही नहीं है नदियों के माध्यम से नीचे जाता है। आपने क्यों तय नहीं किया कि इतना पानी रोकना है। यानी आप कितना रिचार्ज जोन बना सकते हैं। राजस्थान जहां बारिश कम होती है 70 प्रतिशत कंजर्व हो, यहां बारिश होती है तो 40-50 प्रतिशत भी कर देंगे तो ठीक। जंगल रेन फॉल रिचार्ज का तरीका थे जिन्हें खत्म करते जा रहे हैं। जंगल चले गये तो वाटर होल बनाइए, अमृत सरोवर योजना भी बनी है। मगर यह कालकुलेट नहीं किया है कि हमें कितना प्रतिशत पानी रिचार्ज करना है, अभी आठ प्रतिशत कंजर्व हो पाता है पूरे देश में। पानी बचाने की कोई नीति नहीं है। उसी मानव ने जंगल काटा मगर पानी जोड़ने का काम नहीं किया।
क्लाइमेटिक फॉरेस्ट्री हो तरीका
अनिल जोशी कहते हैं आप जंगल जोड़ते हो मगर उसकी क्वालिटी का पता नहीं कि क्या लगा रहे हो। नर्सरी से पौधे लाकर लगा देते हैं। चिंता नहीं कि नेचर के अनुकूल कितना लगा रहे हो। इसलिए एक शब्द देने की कोशिश की है, क्लाइमेटिक फॉरेस्ट्री। जिस क्लाइमेट को जो सूट करे वही फॉरेस्ट लगाना चाहिए। देश के जितने वन इलाके हैं एमपी , झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ जहां बहुत कुछ जंगल प्रकृति के नाम पर है वहां वाटर हारवेस्टर बनाना चाहिए। उनके पास जमा पानी स्थानीय लोगों और दूसरी समस्याओं का भी समाधान करेगा।
वाटर होल का फार्मूला
अपने अनुभवों के बारे में कहते हैं कि उत्तराखंड में हेस्को (संगठन के नाम पर) हमारा अपना जंगल है। अपनी नदी है। जो प्रकृति से कर्ज लिया था उससे कई गुना वापस कर दिया है। जब वहां गये थे बसावा (उत्तराखंड) आश्रम, नदी सूख गई थी। प्रकृति का विद्यार्थी था तो तय किया कि प्रकृति के रास्ते ही वापस लाना है। 44 सेक्टर का वन था कट-कटा गया था, खत्म हो गया था। इसी कारण पानी का रिचार्ज नहीं हो रहा था। हमने तय किया कि जंगल लगायेंगे तो दस पंद्रह साल लगेंगे। हमने वाटर होल बना दिया। एक हेक्टेयर में तीन सौ होल। एक-एक क्यूविक मीटर का। एक पानी पड़े तो दस हजार लीटर पानी जमीन के अंदर। पूरे एक हेक्टेयर से तीन लाख लीटर पानी जमीन के अंदर। 44 हेक्टेयर में आप सोचिये कितना पानी जमीन के भीतर गया। दूसरे साल पानी आना शुरू हुआ। नदी वापस आ गई, बहुत स्ट्रांग तरीके से। जंगल अपने आप आया है उसके साथ हिरण आया, खरगोश आया, सुअर, लेपर्ड आये। 16 से बढ़कर 115 तरह की चिडि़यां आ गई।
बंद हो वानिकी का नाटक
इस बात पर बहस हो कि वानिकी का नाटक बंद कर देना चाहिए। वनों का सर्वाइवल रेट 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है, वह भी कागज पर। जंगल कटा सरकार ने कहा कंपनसेट्री जंगल लगायेंगे उसका सर्वाइवल मात्र तीन प्रतिशत है। नेशनल ड्राइव होना चाहिए जंगलवाजी बंद करो। कुछ मामलों में मैं पर्यावरविदों का विरोधी हूं। ठाटबाट चाहिए, मोबाइल चाहिए, गाड़ी, सुंदर मकान भी, सड़क में एक गड्ढा हो तो सरकार को गाली देंगे। वहीं पहाड़ पर जैसे ही सड़क बनने लग जायेगी विरोध करने लगेंगे। हम बीच का रास्ता नहीं निकाल पाते। पहाड़ पर दूर दराज गांवों में लोग रह रहे हैं तो बीमार स्ट्रेचर पर लाद कर ला रहे हैं, उन्हें अस्पताल, दवा चाहिए। उन गरीबों के लिए आपने कह दिया पर्यावरण। आंदोलन का स्वरूप बदल जाना चाहिए। या तो आप जंगल में बस जायें कि कुछ नहीं चाहिए। मगर आप बड़े शहरों में रहेंगे ठाट में। इस दोहरा चरित्र ने पर्यावरण और आंदोलनों को मार दिया है। चार धाम सड़क बन रही है, मैंने कहा सड़क तो चाहिए ही मगर कैसी बने इस पर बहस होनी चाहिए। एक माह में दो-तीन 50 किलोमीटर जेसीबी, ब्लास्ट करोगे, ऐसी सड़क नहीं चाहिए। एक माह में दो-तीन किलोमीटर बनाओ। दुर्भाग्य है कि आंदोलनकारियों ने जंगल पर जोर लगाया है, पानी पर नहीं। नदी बचाओ मगर कैसे बचाओ किसी को पता नहीं है। सड़क तो हमें चाहिए मगर कैसे बने देखना होगा, बांध तो हमें चाहिए मगर कैसे विकल्प देखो। जरूरत के हिसाब से छोटे-छोटे बांध बनें। ढांचागत विकास क्लाइमेटिक तरीके से हो।