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21 October 2019

कश्मीर में झुकने को कहा, तो अखबार काफ्का, ऑरवेल की तरफ मुड़ गए

जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने के 10 दिनों के बाद 15 अगस्त को घाटी में अखबारों का प्रकाशन फिर से शुरू हुआ। अगस्त 2019 में स्थानीय अखबारों की प्रमुख खबरें स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे हुआ करती थी। अब अखबार साहित्य बन गए हैं। घाटी में इतना कुछ हो रहा है, तो अखबारों ने मौजूदा माहौल के नकारात्मक प्रभावों से बचने के लिए पाठकों को साहित्य की दुनिया में डुबो देने का फैसला कर लिया है। और, इन वजहों से हम बड़ी खबरों में काफ्का और जॉर्ज ऑरवेल की बाईलाइन देखते हैं। यहां तक कि प्रकाशक कभी-कभी “एल्डाउस हक्सली की ब्रेव न्यू वर्ल्ड” दोहराते हैं। कभी-कभी वे डॉ. अली शरियाती के आगे सोचने के लिए पाठकों को प्रेरित करते हैं।   

इतिहास कश्मीरी मीडिया के लिए दयालु रुख अपनाएगा। यह नहीं कहेगा कि जब हम झुकने के लिए कहा गया, तो हम रेंगने लगे। इसके बजाय, यह कहेगा कि जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया, तो उन्होंने काफ्का की ओर रुख कर लिया। शायद, हम सभी मानते हैं कि हमें झुकने के लिए कहा गया, वह भी बिना किसी के कहे कि हम झुक जाएं और हमने काफ्का को छापकर और पढ़कर इसका विरोध किया। लगता है कि कश्मीरियों को साहित्य पढ़ाने के पीछे की मंशा यह निश्चित करना है कि सभी को मालूम है कि जोसेफ के. रीडर्स के साथ क्या हुआ। उन्हें यह नहीं बताया गया कि अगस्त 2019 की एक सुबह को फारुक अब्दुल्ला के साथ क्या हुआ, बल्कि अब वे जानते हैं कि जोसेफ के. के साथ क्या हुआ।   

सबसे पहले, हमें बताया गया है कि काफ्का की “द ट्रायल” एक सामान्य कहानी लगती है। “जरूर कोई जोसेफ के. के बारे में झूठ बोल रहा है कि बिना किसी गलती के उन्हें एक सुबह गिरफ्तार कर लिया गया।” फिर इसक बाद अखबार का कॉलम हमें बताता है कि के. अदालत और कानून-व्यवस्था के बारे में जो कुछ जानते हैं, उन्हें उसका सामना करना पड़ेगा, जो इस तरफ इशारा करता है कि कानून बकवास है। ठीक है। हम सभी यह जानते हैं। सच में, कानून एक बकवास है। कैंसर का एक मरीज प्रिवेंटिव डिटेंशन कानून, पब्लिक सेफ्टी कानून के तहत जेल में बंद है और अदालत इस मामले में सरकार से रिपोर्ट मांगती है। अगर सावधानी से कहें तो हम कह सकते हैं कि हम काफ्का के बारे में बात कर रहे हैं, जिन्होंने जोसेफ के. का किरदार यह समझने के लिए बनाया कि कानून एक बकवास है। हम उस कानून के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, जो सरकार से कैंसर के मरीज की गिरफ्तारी पर सरकार से रिपोर्ट मांगता है। कुछ इस तरह के हालात हैं।

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घाटी में अखबार “मेटामॉरफोसिस” के अंशों को भी छाप रहे हैं। ऐसे समय में जब अखबार मौजूदा राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा की स्थितियों पर खबरें और संपादकीय नहीं छाप रहे हैं और “मेटामॉरफोसिस और द ट्रायल” के अंशों को छाप रहे हैं, तो लगता है कि हम जिस हालात में रह रहे हैं, उस लिहाज से सही ही है।

जोसेफ के. की सड़क किनारे अज्ञात रूप से और यूं ही किसी ने हत्या कर दी। जोसेफ के. के साथ जो हुआ, वह पढ़ने के बाद मैंने अगले दिन के अखबार के कॉलम का इंतजार किया और उम्मीद जताई कि यह काफ्का की कहानी न हो। अगले दिन अखबारों में जॉर्ज ऑरवेल की किताब “सच, सच वर द जॉयज” के अंश छपे थे। यह निबंध बिस्तर पर पेशाब करने, मारने और पीटने के बारे में था, इसने पुराने दिनों की याद दिलाई। ऑरवेल लिखते हैं, “लड़कपन का यही वह दौर था, जब पिटाई से मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे और बेहद आश्चर्य की बात है कि अब दर्द की वजह से मैं रो भी नहीं रहा था। दूसरी बार पिटाई से मुझे ज्यादा दर्द भी नहीं हुआ। भय और शर्मिंदगी ने लगता है मुझे चेतनाशून्य बना दिया है। ”

ऑरवेल की बिस्तर पर पेशाब वाले दृश्य से अलग जाते हैं, तो घाटी में सेब किसान अपने माल बेचने में असमर्थ हैं। घाटी में दुकानें बंद हैं और सड़कों से सार्वजनिक परिवहन नदारद हैं। और कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा है। मुख्यधारा के आधे से अधिक नेता एहतियातन हिरासत में बंद हैं और बाकी के आधे कुछ कहने के लिए उनकी रिहाई का इंतजार कर रहे हैं। कोई कुछ नहीं कह रहा है। सभी खामोश हैं। सरकार ने 71 दिनों के बाद पोस्टपेड मोबाइल पर पाबंदी हटाई और उसके अगले ही दिन एसएमएस सेवा पर पाबंदी लगा दी। अखबारों ने अपने पहले पन्ने पर इस हालात का जिक्र “बेचैनी भरी शांति बरकरार” के तौर पर किया। अंदर के पन्नों में हम ऑरवेल के साथ “बिस्तर पर पेशाब” वाली कहानियों को पाते हैं।  

अगले दिन, मैंने एडवर्ड सेन का निबंध देखा। इसमें लिखा थाः “एडवर्ड सेड कहां गलत था।” अखबार अपने संपादकीय और अभिमत वाले पन्नों पर जो छाप रहे थे, मेरा सहयोगी साहित्य की रोज होने वाली उस बमबारी से उत्तेजित हो गया। उसने कहा, “वे रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र और जीवविज्ञान पर नियमित निबंध क्यों नहीं छापते? पिछले 70 दिनों से स्कूल बंद हैं, तो कम-से-कम इससे छात्रों को परीक्षा के दौरान मदद मिलेगी।” हम सभी उसकी इस बात पर खिलखिला उठे। यहां तक कि सबसे बदतर हालात में भी हर त्रासदी का कटु व्यंग्य लोगों को जोसेफ के. की तरह अज्ञात और निरर्थक मारे जाने से रोकने में मदद करता है।

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TAGS: कश्मीर, अनुच्छेद 370, काफ्का, ऑरवेल, Kashmir, Article 370, Kafka, Media, Newspapers
OUTLOOK 21 October, 2019
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