योगावतार लाहिड़ी महाशय: योगियों को स्वयं करनी चाहिए अपनी आजीविका की चिन्ता
लाहिड़ी महाशय एक महान गृहस्थ योगी थे, जो योग के प्रति अपने समर्पण भाव के कारण “योगावतार” के नाम से प्रसिद्ध हुए, ठीक उसी प्रकार जैसे बाबाजी को “महावतार” और श्रीयुक्तेश्वरजी को “ज्ञानावतार” कहा गया। इनकी महिमा को काशी ही नहीं बल्कि सारा देश जानता है।लोग मानने लगे हैं कि गृहस्थ होकर भी क्रियायोग में पारंगत होकर, अपनी आध्यात्मिक शक्ति को समृद्ध करके,देवत्व को प्राप्त किया जा सकता है। शायद लाहिड़ी महाशय एक मात्र गृहस्थ योगी थे, जिनका पूरा जीवन महर्षियों जैसा था, जिन्होंने पहली बार स्वीकार किया कि योगियों को अपनी आजीविका की चिन्ता स्वयं करनी चाहिए, न कि अपनी आजीविका के लिए दूसरों पर आश्रित रहना चाहिए। लाहिड़ी महाशय को देश के बदले हुए धार्मिक और आर्थिक हालातों का ज्ञान था, शायद इसीलिए उन्होंने ये बातें कहीं।साथ ही अपने ही भार से दबी जनता और समाज के ऊपर एक औरबोझ ना डालकर, लोगों को घर के एकांत में ही योग-साधना करने के लिए कहा। वे कहा करते थे – “ईश्वर-साक्षात्कार आत्मप्रयास से संभव है, क्योंकि वह किसी धार्मिक विश्वास या ब्रह्माण्ड नायक की मनमानी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर नहीं है।”
योगावतार लाहिड़ी महाशय ने क्रियायोग अभ्यास से जनमानस में एक उदाहरण पेश कर इस मिथक को तोड़ा कि योग एक गूढ़ साधना है। उन्होंने क्रियायोग की दीक्षा आंख मूंद कर नहीं बल्कि उपयुक्त पात्रको प्रदान की और इसमें किसी भी प्रकार का विभेद नहीं किया।क्रियायोग के बारे में उनकी सोच स्पष्ट थी। वे कहा करते थे, “क्रियायोग रूपी फूल की सुगंध को स्वतः फैलने दिया जाय, क्योंकि क्रियायोग का बीज आध्यात्मिक रूप से उर्वरा हृदय पटल पर अवश्य ही अंकुरित होगा।”
लाहिड़ी महाशय क्रियायोग को साधक की उन्नति के अनुसार देते थे। इस पर एक सुंदर कहानी भी है, जब एक शिष्य को लगा कि उसकी साधना का उचित मूल्यांकन नहीं हो पा रहा, तो उसने लाहिड़ी महाशय से आग्रह किया कि उसे और उन्नत दीक्षा दी जाए। तभी वृंदा नामक डाकिया जो लाहिड़ी महाशय से क्रियायोग दीक्षा प्राप्त कर चुका था, वहां आया, तभी लाहिड़ी महाशय ने उससे पूछ लिया – क्यों वृन्दा तुम्हे उन्नत दीक्षा दे देनी चाहिए? वृन्दा ने बड़े ही दीन भाव से कहा कि गुरुदेव अब मुझे कोई दीक्षा नहीं चाहिए, क्योंकि पहली ही दीक्षा से मेरा ये हाल है कि मैं अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर पा रहा हूं। स्थिति ऐसी हो गई है कि पहली क्रिया के कारण ही मैं सुध-बुध खो बैठा हूं। उन्नत दीक्षा मांगने वाले शिष्य को समझ आ गया कि क्रियायोग के सही अभ्यास से व्यक्ति की क्या स्थिति होती है।
लाहिड़ी महाशय दानापुर के मिलिटरी इंजिनियरिंग विभाग में एकाउंटेट के पद पर थे। काम करने के दौरान रानीखेत पहुंचना, बाबाजी से मिलना व उनसे क्रियायोग की दीक्षा प्राप्त करना, लाहिड़ी महाशय के जीवन का एक अविस्मरणीय समयथा, क्योंकि रानीखेत पहुंचने से पहले तक उन्हें पता ही नहीं था कि रानीखेत पहुंचने का उद्देश्य क्या है? ये तो महावतार बाबाजी से मुलाकात हुई तब जाकर रानीखेत का मूल उद्देश्य पता चला और जब उन्होंने 1886 में अवकाश प्राप्त किया, और उसके बाद भक्तों की संख्या में जब वृद्धि होने लगी, वेक्रियायोग में लोगों को दीक्षित करने लगे, तब जाकर दिनों-दिन उनके चाहनेवालों की संख्या में भी भारी वृद्धि हो गई।
जो लोग उनके पास आते, लाहिड़ी महाशय उनसे कहते कि जो क्रियायोग करते हैं, मैं सदैव उनके पास रहता हूं। उनके आध्यात्मिक अनुभवों के माध्यम से परमपद प्राप्त करने का उनका मार्गदर्शन भी करता हूं।
भूपेन्द्र नाथ सान्याल जैसे अपने मुख्य शिष्य को तो उन्होंने स्वप्न में ही दीक्षा दे दी थी।फिर भी भूपेन्द नाथ सान्याल लाहिड़ी महाशय के पास क्रियायोग की दीक्षा के लिए काशी पहुंच गये, लाहिड़ी महाशय ने उन्हें तुरन्त कह दिया कि उन्होंने भूपेन्द्र नाथ सान्याल को तो सपने में ही दीक्षित कर दिया है। ऐसे थे लाहिड़ी महाशय, ऐसा है उनका क्रियायोग, ऐसी थी उनकी शिष्यों के प्रति उनकी पकड़, मतलब शिष्य भले ही भूल जाये, पर लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को कहाँ भूलनेवाले।
लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को कर्म, ज्ञान, भक्ति और राजयोग के मार्गोंपर चलाया करते थे, जिसने भी उनसे संन्यास लेने की बात की, वे उसकी अनुमति जल्दी में नहीं देते थे, बल्कि उसकी तपश्चर्या पर विचार करने के बाद ही अनुमति देते थे। वे कहा करते थे, “विद्वान वही है, बुद्धिमान वही है, जो प्राचीन दर्शनों को पढ़ने के बजाय, उसमें छुपे गूढ़ रहस्यों की अनुभूति करता है, उनके अनुरूप चलता है। अच्छा यही है कि व्यक्ति ध्यान में ही अपनी सारी समस्याओं का समाधान ढूंढे।”
ऐसे महान गृहस्थ गुरु, जिनका जन्म 30 सितंबर 1828 को हुआ व महाप्रयाण 26 सितंबर 1895 को हुआ, की आध्यात्मिक परंपरा आज भी योगदा सत्संग सोसाइटी द्वारा जारी है। इसकी स्थापना 1917 में परमहंस योगानन्द जी ने की थी। ऐसी विभूति को शत-शत नमन।
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