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19 May 2025

युद्ध का धंधा: जब रणभूमि मुनाफे की जमीन बन जाए

21वीं सदी के युद्ध अब केवल राष्ट्रों के बीच भू-राजनीतिक संघर्ष नहीं रह गए हैं। ये अब रणनीति और सरहदों से निकलकर एक सुनियोजित कारोबार में तब्दील हो चुके हैं। यह कारोबार इतना बड़ा और संगठित हो गया है कि इसमें शामिल देश, कंपनियाँ और हितधारक मानवता से ज्यादा मुनाफे की चिंता करते हैं। आउटलुक इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि कैसे आज की दुनिया में युद्ध, हथियार, सैन्य तकनीक और उससे जुड़ी सप्लाई चेन एक विशाल 'वॉर इकोनॉमी' का हिस्सा बन चुके हैं।

अमेरिका: हथियार बेचकर अमन का रखवाला

दुनिया में सबसे ज्यादा रक्षा खर्च करने वाला देश अमेरिका, हथियारों का सबसे बड़ा निर्यातक भी है। इसकी कंपनियाँ—लॉकहीड मार्टिन, रेथियॉन, बोइंग, नॉर्थरोप ग्रुम्मन—हर उस भू-भाग में सक्रिय हैं जहां अशांति या युद्ध की संभावना है। इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, यमन, यूक्रेन—इन सभी संघर्षों के पीछे कहीं न कहीं हथियार सप्लाई करने वाली अमेरिकी कंपनियों का आर्थिक हित जुड़ा रहा है।

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रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे अमेरिका युद्ध को "लोकतंत्र की रक्षा" के नाम पर वैधता देता है, लेकिन असल में वह अपने रक्षा उद्योग को जीवनदान देता है। युद्ध की हर घोषणा के साथ अमेरिकी शेयर बाजार में रक्षा कंपनियों के स्टॉक्स बढ़ जाते हैं।

रूस और चीन भी पीछे नहीं

अमेरिका के मुकाबले रूस और चीन भी अब वैश्विक रक्षा बाजार के प्रमुख खिलाड़ी बन चुके हैं। रूस ने यूक्रेन युद्ध को अपने हथियारों की प्रदर्शनी में बदल दिया है। वहीं, चीन अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों को सस्ते हथियार और ड्रोन सप्लाई कर रहा है, जिससे उसकी कूटनीतिक पकड़ बढ़ रही है।

भारत की भूमिका

शांति का संदेश या रणनीतिक भागीदारी? भारत पारंपरिक रूप से एक शांति-प्रिय देश माना जाता रहा है, लेकिन बीते एक दशक में देश ने अपने रक्षा बजट में भारी वृद्धि की है। 'मेक इन इंडिया' के तहत भारत अब हथियारों का निर्यातक भी बनना चाहता है। रिपोर्ट बताती है कि भारत अब पश्चिमी देशों की तर्ज पर अपनी सैन्य ताकत को एक रणनीतिक उत्पाद के रूप में देखने लगा है।

देश की कई निजी कंपनियाँ अब रक्षा उत्पादन में उतर चुकी हैं—जैसे टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स, लार्सन एंड टुब्रो, भारत फोर्ज आदि। इसके अलावा, सरकार भी युद्ध के समय "राष्ट्रवाद" और "राष्ट्रीय सुरक्षा" के नाम पर सार्वजनिक सहमति तैयार करने में जुट जाती है।

मीडिया और युद्ध का गठजोड़

रिपोर्ट में विशेष रूप से रेखांकित किया गया है कि कैसे युद्धकाल में मीडिया एक 'प्रोपेगेंडा मशीन' की तरह काम करता है। टीवी चैनलों पर राष्ट्रवाद का उबाल, दुश्मन के खिलाफ नफरत फैलाने वाले शो और “पलटवार कब होगा?” जैसे नारों के पीछे केवल भावनाएं नहीं, बल्कि एक राजनीतिक और आर्थिक एजेंडा छिपा होता है।

युद्ध: एक स्थायी बाजार

युद्ध के दौरान सिर्फ हथियार नहीं बिकते—बुलेटप्रूफ जैकेट, ड्रोन, साइबर डिफेंस सिस्टम, सैटेलाइट डेटा, मेडिकल सप्लाई, फूड पैकेजिंग, टेंट, गाड़ियों से लेकर खुफिया तकनीक तक की मांग बढ़ जाती है। इससे जुड़ी कंपनियों और कॉन्ट्रैक्टर्स की चांदी हो जाती है। युद्ध एक ऐसा व्यापार है जिसमें नुकसान केवल सैनिक और आम जनता का होता है, लेकिन लाभ कॉरपोरेट्स और रणनीतिक नीतिकारों को होता है।

क्या कभी खत्म होगा यह युद्ध व्यवसाय?

रिपोर्ट का सबसे अहम सवाल यही है कि क्या युद्ध को मुनाफे का मॉडल बनने से रोका जा सकता है? जब तक राष्ट्र युद्ध से ज्यादा शांति में विश्वास नहीं करेंगे, जब तक हथियार बनाना और बेचना आर्थिक सफलता की कसौटी रहेगा—तब तक युद्ध एक उद्योग बना रहेगा।

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TAGS: war economy, military industrial complex, weapon exports, Lockheed Martin, Raytheon, Boeing, Northrop Grumman, US defense budget, Russia Ukraine war, China arms trade, India Make in India, global arms race.
OUTLOOK 19 May, 2025
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