राममंदिर से रहा है गोरक्षपीठ के तीन पीढ़ियों का नाता
अयोध्या और राममंदिर से रहा है गोरक्षपीठ के तीन पीढ़ियों का नाता। यह नाता करीब 100 साल पुराना है। इस दौरान राममंदिर को लेकर होने वाले हर आंदोलन में तबके पीठाधीश्वरों की केंद्रीय भूमिका रही है। गोरखपुर स्थित इस पीठ के मौजूदा पीठाधीश्वर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। उनके दादा गुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ और पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ ने जिस अयोध्या और वहां जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर का सपना देखा था। जिस सपने के लिए संघर्ष किया था वह 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के साथ साकार होने को है।
ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ ने दिया मंदिर आंदोलन को संगठित रूप
यूं तो श्रीराम जन्मभूमि स्थित मंदिर पर फिर से रामलला आंदोलन विराजमान हों इस बाबत छिटपुट संघर्ष की शुरुआत इसको गिराए जाने के बाद से ही शुरू हो गया था। मुगल काल से लेकर ब्रिटिश काल के गुलामी के दौर और आजाद भारत का करीब 500 साल का कालखंड इसका प्रमाण है। इन सारे संघर्षों और इसके लिए खुद को बलिदान देने वालों के दस्तावेजी सबूत भी हैं। लेकिन आजादी के बाद इसे पहली बार रणनीति रूप से संगठित स्वरूप और एक व्यापकाधार देने श्रेय गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दादा गुरु ब्रह्मलीन गोरक्ष। पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ को जाता है।
1935 में गोरक्ष पीठाधीश्वर बनने के बाद से ही उन्होंने इस बाबत प्रयास शुरू कर दिया था। इस क्रम में उन्होंने अयोध्या के अलग अलग मठों के साधु संतों को एकजुट करने के साथ ही जातीय विभेद से परे हिंदुओ को समान भाव व सम्मान के साथ जोड़ा। 22/23 दिसंबर 1949 को प्रभु श्रीरामलला के विग्रह के प्रकटीकरण के नौ दिन पूर्व ही महंत दिग्विजयनाथ के नेतृत्व में अखंड रामायण के पाठ का आयोजन शुरू हो चुका था। श्रीरामलला के प्राकट्य पर महंत जी खुद वहां मौजूद थे। प्रभु श्रीराम के विग्रह के प्रकटीकरण के बाद मामला अदालत पहुंचा। इसके चलते विवादित स्थल पर ताला भले जड़ दिया गया पर पहली बार वहां पुजारियों को दैनिक पूजा की अनुमति भी मिल गई।
श्रीरामलला के प्रकटीकरण के बाद मंदिर आंदोलन को एक नई दिशा देने वाले महंत दिग्विजयनाथ 1969 में महासमाधि लेने तक श्रीराम जन्मभूमि के उद्धार के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। ये आजादी के बाद के दिन थे। कांग्रेस की आंधी चल रही थी। खुद को धर्म निरपेक्ष घोषित करने की होड़ मची थी। तब हिंदू और हिंदुत्व की बात करने का मतलब अराराष्ट्रीय होना था।इस होड़ में कई लोग तो करोड़ों के आराध्य प्रभु श्रीराम के वजूद को ही नकार रहे थे। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी पूरी निर्भीकता से दिग्विजय नाथ सदन से लेकर संसद और सड़क तक हिंदू, हिंदुत्व और राम मंदिर की मुखर आवाज बन गए।
राममंदिर आंदोलन के सर्व स्वीकार्य अगुआ थे ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ
जिस मंदिर आंदोलन को महंत दिग्विजयनाथ ने एक ठोस बुनियाद और व्यापक आधार दिया उसे उनके ब्रह्मलीन होने के बाद उनके शिष्य एवं उत्तराधिकारी महंत अवेद्यनाथ की अगुआई में नई ऊंचाई मिली। अस्सी के दशक के शुरूआत के साथ श्रीराम जन्मभूमि को लेकर ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ ने जो बीज बोया था वह अंकुरित हो चुका था। इसे बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा अलग अलग पंथ और संप्रदाय के संत समाज की मत भिन्नता थी। इन सबको संत समाज का वही एक कर सकता था जो सबको स्वीकार्य हो। यह सर्व स्वीकार्यता बनी तबके गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ के पक्ष में। इसी सर्वसम्मति का परिणाम था कि 21 जुलाई 1984 को अयोध्या के वाल्मीकि भवन में जब श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ तो महंत अवेद्यनाथ समवेत स्वर से इसके अध्यक्ष चुने गए और उनके नेतृत्व में देश में ऐसे जनांदोलन का उदय हुआ जिसने देश का सामाजिक-राजनीतिक समीकरण बदल दिया। उनकी अगुआई में शुरू श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन आजादी के बाद का सबसे बड़ा और प्रभावी आंदोलन था। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के गठन के बाद 7 अक्टूबर 1984 को अयोध्या के सरयू तट से धर्मयात्रा निकाली गई जो 14 अक्टूबर 1984 को लखनऊ पहुंची। यहां के बेगम हजरत महल पार्क में ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ जिसमें लाखों लोग शामिल हुए। महंत अवेद्यनाथ की अध्यक्षता में हुए इस सम्मेलन से तत्कालीन सरकार हिल गई। तबके मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी से महंत जी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात की और मांग पत्र सौंपा।
धर्मचार्यों के आह्वान पर 22 सितंबर 1989 को दिल्ली के बोट क्लब पर विराट हिंदू सम्मेलन का आयोजन किया गया। महंत जी की अध्यक्षता में हुए इस सम्मेलन में जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए 9 नवंबर 1989 को शिलान्यास का ऐलान कर दिया गया। बोट क्लब की इस रैली से पूर्व 20 सितंबर 1989 को भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह ने महंत जी से बातचीत का आग्रह किया था लेकिन महंत जी ने रैली के बाद ही बातचीत संभव होने की बात कही। 25 सितंबर को मुलाकात हुई तो बूटा सिंह ने शिलान्यास कार्यक्रम स्थगित करने का निवेदन किया लेकिन महंत जी निर्णय पर अडिग रहे। इसके बाद लखनऊ में बूटा सिंह, तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने महंत जी, महंत नृत्यगोपाल दास, अशोक सिंहल, दाऊदयाल खन्ना के साथ बैठक कर आग्रह किया। पर, महंत जी ने दो टूक कहा कि यह राष्ट्रीय सम्मान एवं हिंदू समाज की आस्था का सवाल है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता।
इसके बाद देशभर में शिलान्यास समारोह के लिए श्रीराम शिला पूजन का अभियान प्रारंभ हो गया। महंत अवेद्यनाथ की अगुवाई में देशभर के गांव-गांव से श्रीराम शिला पूजन कर अयोध्या के लिए चल पड़ी। खुद महंत जी दर्जनों कार्यक्रमों में शामिल हुए। शिलान्यास समारोह की तैयारियों से घबराई सरकार ने एक बार फिर महंत जी को 8 नवंबर को गोरखपुर विशेष विमान भेजकर बातचीत के लिए लखनऊ आमंत्रित किया। वार्ता के बाद महंत जी को अयोध्या पहुंचाया गया। उनके अयोध्या पहुंचने पर शिलान्यास का कार्य तेजी से अंजाम की ओर आगे बढ़ा। शुभ मुहूर्त में गर्भगृह के बाहर निर्धारित स्थान पर भूमि पूजन और हवन के बाद महंत जी ने सांकेतिक रूप से नींव खोदकर दलित कामेश्वर प्रसाद चौपाल से पहली शिला रखवाकर एक नए भविष्य की शुरुआत की।
गर्भगृह के बाहर शिलान्यास के बाद मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा का दौर प्रारंभ हुआ। महंत अवेद्यनाथ की अगुवाई में हिंदू समाज तन, मन, धन से कारसेवा के लिए समर्पित होने लगा। 30 अक्टूबर 1990 और 2 नवंबर 1990 को कारसेवा के दौरान तत्कालीन सरकार के आदेश पर पुलिस फायरिंग में कई रामभक्त बलिदान ही गए। पर, दमनात्मक कार्रवाई के बावजूद महंत अवेद्यनाथ के नेतृत्व में आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प लिया गया। नारा दिया गया, "बच्चा-बच्चा राम का"।
शांतिपूर्ण समाधान के लिए हर सरकार को दिया मौका
1984 में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के गठन के बाद से आंदोलन के निर्णायक होने तक महंत अवेद्यनाथ ने हर सरकार को शांतिपूर्ण समाधान का मौका दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव से समय-समय पर उनकी वार्ता भी हुई। सरकारें कोरे आश्वासन से आगे नहीं बढ़ती थीं और महंत जी जन्मभूमि को मुक्त कराने के संकल्प पर अडिग रहे।
श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति को हुआ राजनीति में दोबारा प्रवेश
तत्कालीन मानीराम विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार, 1962 से लेकर 1977 तक के चुनाव में विधायक चुने गए महंत अवेद्यनाथ 1969 में अपने गुरु महंत दिग्विजयनाथ के ब्रह्मलीन होने के बाद रिक्त हुए गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र के उप चुनाव में सांसद चुने गए। 1980 में मीनाक्षीपुरम में धर्मांतरण की घटना के बाद उन्होंने राजनीति की बजाय खुद को सामाजिक समरसता के अभियान में समर्पित कर दिया। सितंबर 1989 में महंत अवेद्यनाथ के नेतृत्व में दिल्ली में हुए विराट हिंदू सम्मेलन के दौरान जब मंदिर शिलान्यास की तारीख घोषित कर दी गई तो तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह ने उन्हें यह कहकर चुनौती दे दी कि अपनी बात रखनी है तो संसद में आइए। इस चुनौती को को स्वीकार कर महंत अवेद्यनाथ ने दोबारा राजनीति में प्रवेश करने का निर्णय लिया। फिर तो वह ताउम्र सड़क से लेकर संसद तक अयोध्या में दिव्य और भव्य मंदिर की आवाज बने रहे। उनका एक मात्र सपना भी यही था, उनके जीते जी ऐसा हो। आज वह भले ब्रह्मलीन हो चुके हैं, पर अपने सुयोग्य शिष्य की देख रेख में 22जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह को देख उनकी आत्मा जरूर खुश हो रही होगी।
दादागुरु और गुरुदेव के सपनों और संघर्षों को मूर्त कर रहे योगी आदित्यनाथ
बतौर उत्तराधिकारी महंत अवेद्यनाथ के साथ दो दशक से लंबा समय गुजारने वाले उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी इस पूरे परिवेश की छाप पड़ी। बतौर सांसद उन्होंने अपने गुरु के सपने को स्वर्णिम आभा दी। मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपनी पद की गरिमा का पूरा खयाल रखते हुए कभी राम और रामनगरी से दूरी नहीं बनाई। गुरु के सपनों को अपना बना लिया। नतीजा सबके सामने है। उनके मुख्यमंत्री रहते हुए ही राम मंदिर के पक्ष में देश की शीर्ष अदालत का फैसला आया। देश और दुनिया के करोड़ों रामभक्तों, संतों, धर्माचार्यों की मंशा के अनुसार योगी की मौजूदगी में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन्मभूमि पर भव्य एवं दिव्य राम मंदिर की नींव रखी। युद्ध स्तर इसका जारी निर्माण अब पूर्णता की ओर है।
त्रेतायुगीन वैभव से सराबोर की जा रही अयोध्या
बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जितनी बार गए, अयोध्या को कुछ न कुछ सौगात देकर आए। उनकी मंशा अयोध्या को दुनिया का सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थल बनाने की है। इसके अनुरूप ही अयोध्या के कायाकल्प का काम जारी है। योगी सरकार की मंशा है कि अयोध्या उतनी ही भव्य दिखे जितनी त्रेता युग में थी। इसकी कल्पना गोस्वामी तुलसीदास ने कुछ इस तरह की है, 'अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।' अयोध्या के इस स्वरूप की एक झलक दीपोत्सव के दौरान दिखती भी है। कायाकल्प के बाद यह स्वरूप स्थायी हो जाएगा। तब भगवान श्रीराम की अयोध्या कुछ वैसी ही होगी जिसका वर्णन उन्होंने खुद कभी इस तरह किया था। 'अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ, जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।'