Advertisement
20 January 2024

अयोध्या: राम राजनीति लीला

अयोध्या इन दिनों रंग-रंगीली है। सवेरा कोहरा लपेटे खिलता है। सरयू नदी में डूबकी लगाते रामबोला साधु-संन्यासियों, स्थानीय लोगों और बाहर से पधारे स्‍त्री-पुरुषों की भीड़भाड़ है। मंदिरों में घंटे-घड़ियाल बज उठते हैं। दूर कहीं मद्धिम-सी अजान की आवाज भी आती है। दिन लोगों और बंदरों की चिल्ल-पों के साथ ढलता है, तो शाम बत्तियों से जगमग हो उठती है। चारों ओर रंग-रोगन, पुताई-सफाई, पुराना ढहाया-छुपाया जा रहा है। सब कुछ चकमक है। सड़कें चौड़ी और रंगी-पुती हैं। सरयू के घाट नए-नए हैं। हर जगह एक ही रंग का बोलबाला है। मानो उदासियों, वैरागियों, विविध संस्कृतियों-संप्रदायों (जैन, बौद्ध) के संगम की नगरी ने एक ही रंग की चादर ऐसे ओढ़ ली है कि स्थानीय लोग थोड़े हैरान, कुछ भौचक्के-से, शायद खुश या खुश दिखने की बरबस कोशिश करते दिखते हैं क्योंकि न वह सरयू रही, न अयोध्या। जिनके घर, दुकानें, मंदिर टूट गए, कहीं और ले जाए गए, वे शिकायत करने के भी जो हकदार नहीं रहे। कायाकल्प किए गए लकदक रेलवे स्टेशन और आसपास के हवाई ठिकानों पर भी खासी भीड़भाड़ है। बसें तो हर ओर से आ रही हैं। तमाम सितारा तथा सामान्य होटल और धर्मशालाएं वगैरह भर चुकी हैं। सरकार या कहिए सरकारें, तो जैसे अयोध्या में ही डेरा डाल चुकी हैं। अफसर-अमला, मंत्रियों, तमाम सरकारी साहबान, लाट साहबों की सायरन बजाती गाड़ियों और काफिलों का शोर भी बेहिसाब है। सो, पुलिसिया इंतजामात भी हर जगह बदस्तूर है। ऐसा लगता है कि सारी दिशाएं अयोध्या की ओर उमड़ पड़ी हैं। फिर तो अयोध्या में बग्घी की सवारी करते केरल के महामहिम आरिफ मुहम्मद खान का यह कहना तो बनता है कि “पूरा देश राममय, अयोध्यामय हो गया है।” या जैसा कि विपक्ष के कई नेता कहते हैं कि किया गया है।

अयोध्या को एक रंग-रूप देने की कोशिश

अयोध्या को एक रंग-रूप देने की कोशिश

Advertisement

 आखिर सुप्रीम कोर्ट के नवंबर 2019 के फैसले से दशकों तक चले वाद-विवाद, अभियान के बाद राम मंदिर निर्माणाधीन है और 22 जनवरी को रामलला की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का अनुष्ठान संपन्न होने जा रहा है, वह भी खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यजमानी या प्रतीकात्मक यजमानी में ही सही। शायद यह दूसरी दफा है कि कोई संवैधानिक पद पर असीन व्यक्ति अपनी उसी हैसियत से ऐसा प्रतीकात्मक ही सही, अनुष्ठान करेगा। तारीख, तिथि, मुहुर्त को लेकर भी तमाम तरह के विवाद हैं, जो किसी भी राजनैतिक शख्सियत या लंबे राजनैतिक अभियान के साथ जुड़े रह सकते हैं। इस अभियान की मुख्य संचालक विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी के लिए इसका फलितार्थ होना बेशक बड़ी कामयाबी है, जिसके राजनैतिक लाभ ये 1990 के दशक के बाद से ही कमोबेश उठाते रहे हैं। हालांकि सिर्फ इसी मुद्दे के बल पर पार्टी कोई चुनाव नहीं जीत पाई है (देखें, नजरिया), लेकिन इस मुद्दे का उसके हिंदुत्व संबंधी विचार और जमीनी विस्तार में बड़ा योगदान रहा है। इसलिए इस बार भी घर-घर जाकर अक्षत बांटने का कार्यक्रम बनाया गया। देश-विदेश से नदियों का जल और सामग्रियां जुटाने का अभियान चलाया गया। हालांकि विहिप, संघ और भाजपा सभी औपचारिक तौर पर इसे सांस्कृतिक-धार्मिक कार्य ही बताते रहे हैं।

शायद इसी औपचारिक स्थिति के मद्देनजर विविध क्षेत्रों की शख्सियत को राम मंदिर ट्रस्ट की ओर से बुलावा भेजा गया है, जिसके मुख्य कर्ताधर्ता चंपत राय और प्रधानमंत्री के पूर्व प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्र हैं। इसमें फिल्मी दुनिया की अनेक शख्सियतें शामिल हैं तो समाज के दूसरे क्षेत्रों के नामधारी भी। भाजपा और उसके सहयोगी दल के नेता-कार्यकर्ता तो उत्सवधर्मिता के उत्साह से पहुंच रहे हैं। बेशक, दूसरी पार्टियों के राजनैतिक नेताओं को भला कैसे छोड़ा जा सकता था। तो, कुछ चुनिंदा नेताओं तक न्यौता पहुंचा, खासकर उन्हें जिनकी राजनैतिक जमीन इसके पक्ष-विपक्ष दोनों से जुड़ी हुई है। उन्होंने राजनैतिक गुगली को भांपकर प्रतिक्रिया दी, जिनके पहुंचने और न पहुंचने दोनों के राजनैतिक मतलब निकल सकते हैं या निकाले जा सकते हैं।

मसलन, कांग्रेस में अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, संसदीय दल की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीररंजन चौधरी ने यह कहकर इनकार कर दिया कि भाजपा ने इसका राजनीतिकरण कर दिया है। हालांकि कुछ कांग्रेसी इससे सहमत नहीं और अपने-अपने फैसले किए। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि भगवान बुलाएंगे तब हम जाएंगे। आम आदमी पार्टी दिल्ली में हर हफ्ते सुंदर कांड और हनुमान चालिसा के पाठ का आयोजन कर रही हैं। बाकी पार्टियों की प्रतिक्रियाएं कई तरह की दुविधा लिए हैं। दो-टूक इनकार सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर से ही आया।

अयोध्या में मोदी का रोड शो

अयोध्या में मोदी का रोड शो

हालांकि भाजपा और संघ के संगठनों को ज्यादा झटका चारों पीठों के शंकराचार्यों के शामिल न होने के बयान से लगा हो सकता है, जिनकी मान्यता धार्मिक मामलों में सर्वोच्च मानी जाती है। शंकराचार्यों का कहना था कि मंदिर पूरा नहीं बना है, इसलिए शास्त्र सम्मत विधि के मुताबिक प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो सकती और की जाती है तो आसुरी शक्तियों का प्रवेश होता है। ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद मुहुर्त पर भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि 22 जनवरी को मुहुर्त कुछेक सेकेंड का है, जबकि मुहुर्त दो घड़ी यानी चार मिनट का ही माना जाता है। जवाब में राम मंदिर न्यास के चंपत राय का कहना था कि राम मंदिर रामानंदी संप्रदाय का है, इसलिए शंकराचार्यों का इससे संबंध नहीं है।

दरअसल शंकराचार्यों से संघ परिवार का नाता सहज नहीं रहा है। शंकराचार्य हिंदुत्व के प्रति नहीं, हिंदू धर्म के प्रति आग्रही रहे हैं। मोटे तौर पर संघ परिवार के संगठनों और भाजपा का भी धर्माचार्यों और विभिन्न अखाड़ों से कुछ गहरा रिश्ता अस्सी और नब्बे के दशक में ही शुरू होता है। उसके पहले आरएसएस, विहिप या जनसंघ के एजेंडे में अयोध्या या राम मंदिर का एजेंडा नहीं था या बहुत ही ढीलेढाले ढंग से था (देखें, तवारीख)। असल में अस्सी के दशक में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में हिंदू धर्म (जिसे जीने का ढंग के रूप में परिभाषित किया गया) की जगह हिंदुत्व (जो विशुद्घ राजनैतिक अवधारणा है) शब्द आ गया तो हिंदुत्व के पैरोकार उसे न्यायिक मान्यता बताने लगे और हिंदुत्व का इस्तेमाल चल पड़ा। लेकिन मौजूदा विवाद साक्षी है कि संघ परिवार के संगठनों का शंकराचार्यों से मतभेद कायम है और वे हिंदू समाज को अपने ढर्रे पर चलाने की कोशिशें करते हैं और उसकी विविधता तथा सामासिकता के बदले एक रूप पर जोर देते हैं।

भाजपा की फेहरिस्त में भी 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अयोध्या और राम मंदिर पीछे चला गया था। यहां तक कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों तक में राम मंदिर एजेंडे में नहीं था। इसीलिए विपक्षी पार्टियों की इस बात में दम हो सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा इस आयोजन के जरिए ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे और अपने वोट बैंक को मजबूत करना चाह रही है। यह शंका इससे भी दमदार लगने लगती है कि महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। इसका अंदाजा तकरीबन 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त अनाज बांटने की केंद्र की योजना को 2028 तक विस्तार देने से भी लगता है। इस ओर बसपा की नेता मायावती ने 15 जनवरी को अपने प्रेस बयान में सबसे जोरदार ढंग से इशारा किया। उन्होंने कहा, “रोजगार और महंगाई की हालत बेकाबू होती जा रही है। केंद्र और कुछ राज्य सरकारें अनाज और मुफ्त योजनाओं के जरिए लोगों को गुलाम, लाचार और अपाहिज बना रही हैं। हमारी उत्तर प्रदेश में सरकार रोजी-रोटी कमाने की सुविधा मुहैया कराके पैरों पर खड़ा होने का मौका देती रही है। विभिन्न धार्मिक मुद्दों को हवा देना भी लोगों को आश्रित बनाने का ही एजेंडा है।”

बहरहाल, अयोध्या में राम मंदिर से एक तबके की भावनाओं को जरूर सहलाने का काम हो सकता है, लेकिन देश और लोगों की भलाई तो आर्थिक स्थितियों में सुधार से ही हो सकता है। वैसे भी, राम राज्य तो वही है, जहां सब खुशहाल हों, सब एक समान हों, गैर-बराबरी मिटे। बकौल तुलसीदास, रामहि केवल प्रेम पियारा। जो भी हो, अब 2024 के लोकसभा चुनावों में इसका असर क्या होता है, यह देखना होगा। लेकिन यह भी तय है कि चुनाव सिर्फ फिजा बनाकर नहीं जीते जाते।   

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: consecration of ramlala, grand ram temple, Ayodhya, political issue
OUTLOOK 20 January, 2024
Advertisement