कामयाब भारतवंशी/इंटरव्यू: अब रूसी हूं, मगर दिल हिंदुस्तानी है
“बिहार के लोगों की राजनीतिक समझ अच्छी होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है”
इन दिनों पूरी दुनिया की राजनीति में भारतवंशियों की धूम देखी जा रही है। अमेरिका में कमला हैरिस उपराष्ट्रपति हैं, आयरलैंड में लियो वराडकर प्रधानमंत्री रह चुके हैं और अब ब्रिटेन में ऋषि सुनक प्रधानमंत्री हो सकते हैं। रूस जैसे देश में जहां, विदेशी मूल के लोगों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति नहीं है, वहां रूस के कुर्स्क से अभय सिंह विधायक हैं। वे ऐसे नेता के तौर उभरे हैं, जो वैश्विक राजनीति और उसमें बढ़ते भारतीयों के प्रभाव पर बेबाक राय रखते हैं। पत्रकार और लेखक अनुरंजन झा ने आउटलुक के लिए उनसे उनकी यात्रा और राजनैतिक सफर पर लंबी बातचीत की। संपादित अंशः
बिहार से निकल कर रूस पहुंचे, यह अनायास था या इसकी कोई योजना बनाई थी?
जवाब के लिए मैं आपको थोड़ा पीछे ले चलूंगा। जब मैं छठी में पढ़ता तब पिताजी का देहांत हो गया। उस समय मैंने महसूस किया कि घर में एक अच्छे डॉक्टर की जरूरत है। बिहार से इंटरमीडियट तक की पढ़ाई कर मैं यहां पढ़ने चला आया। यहां आने के बाद जिंदगी पूरी तरह बदल गई। जब आया था, तब सोवियत संघ का विघटन हो रहा था। उस वक्त लेफ्ट पार्टीज के जरिए ही आना संभव हो पाता था। अब तो कोई भी पैसे खर्च कर कहीं भी पढ़ने जा सकता है पर तब ऐसा नहीं था। फिर धीरे-धीरे सब होता चला गया। मैंने कोई योजना नहीं बनाई थी।
कहा जाता है बिहार के लोगों में स्वाभाविक राजनीतिक गुण होता है। रूस में आपको इसका लाभ मिला?
बिहार के लोगों की राजनीतिक समझ अच्छी होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। हां, इसका लाभ मुझे भी मिला। रूस में एक कहावत है, ‘असली सैनिक’ वही है, जो जनरल बनने का सपना देखता हो। यह तो कहा ही जा सकता है कि यह हमारे खून में है। हम जहां रहें अच्छे से रहें, समाज के लिए कुछ करें, अपनी पहचान बनाएं, यह इच्छा रहती ही है।
रूस ने आपको आसानी से अपनाया? जमने में क्या परेशानी आई?
शुरुआत में मुश्किलें आती थीं क्योंकि रूस आप्रवासियों का देश नहीं है। यहां के स्थानीय लोगों में देशभक्ति की भावना बहुत ज्यादा है। जैसे अमेरिका में अलग-अलग देशों के लोग आकर बसे और उसका निर्माण किया, वैसा यहां नहीं है। अमेरिका में कोई ब्लैक, ब्राउन या ह्वाइट है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रूस में यहीं के लोग हर बड़ी जगह पर मिलेंगे। जब मैंने अपना व्यापार शुरू किया, तो यहां के लोगों का भरोसा बढ़ता गया। बाद में स्थानीय लोगों ने ही राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। इस तरह मैं राजनीति में आया। अगर कोई एक शब्द में पूछें कोई परेशानी हुई, तो जवाब है नहीं।
भारतवंशी यूरोप, अमेरिका समेत तमाम देशों में राजनीतिक दखल रखने लगे हैं। इसे कैसे देखते हैं?
भारतीयों के साथ अच्छी बात यह है कि वे जिस देश में जाते हैं, उस देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था में मजबूती से योगदान देते हैं। उस देश को अपना समझते हैं और फिर उसी तरह काम करते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं। कई दूसरे देशों के साथ ऐसा नहीं है। यही वजह है कि जिन देशों में ऐसी संस्कृति नहीं है, उनकी तुलना में भारतवंशियों की धाक ज्यादा जमती है। मसलन, रूस की लंबी सीमा चीन से लगती है। रूस में चीनी व्यापारी भी हैं लेकिन यहां की राजनीति में एक भी व्यक्ति चीन का नहीं मिलेगा। नेता देश की बेहतरी के लिए फैसले में भागीदार होते हैं इसलिए बहुत सारे देशों में चीन जैसे देशों की राजनीतिक भागीदारी नहीं मिलती। इसीसे अंदाजा लगा सकते हैं कि आर्थिक ताकत चीन की चाहे जैसी हो लेकिन भारत की तुलना में उसकी वैश्विक छवि कहीं नहीं टिकती। इस मामले में भारत के लोग जुनूनी और ईमानदार हैं। दुनिया भर में भारतवंशियों की राजनैतिक धाक जमने के पीछे यह बड़ी वजह है। ब्रिटेन में ही देख लीजिए, ऋषि सुनक प्रधानमंत्री बनने से बस एक कदम दूर हैं। भारतवंशियों और भारत की भी अगली पीढ़ी के लिए यह अच्छा है।
जिस दौर में रूस के लिए निकले थे, उस दौर में भारत बदलना शुरू हुआ था। आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण से स्वरूप बदल रहा था। पिछले तीस साल में भारत को दुनिया में किस तरह की ताकत के रूप में देखते हैं?
निस्संदेह भारत मजबूत ताकत के तौर पर उभरा है। उसकी वैश्विक छवि शानदार हुई है। जी-7 देशों की व्यवस्था को फिर से संतुलित करने की जरूरत है। भारत को उसमें मजबूत जगह मिलनी ही चाहिए।
आप भारत के हैं और अब रूस में नेता हैं, आप पर कोई अनकहा दबाव रहता है? भारतवंशी नेताओं से भारत को कोई उम्मीद लगानी चाहिए?
अब मैं रूसी हूं। इस देश की बेहतरी के लिए कुछ भी करूंगा। लेकिन मेरे अंदर हिंदुस्तान का दिल धड़कता है, मैं उसे भूल नहीं सकता। नेता के नाते ऐसा कोई दबाव नहीं रहता। भारत और रूस के संबंधों को बेहतर बनाने की उम्मीद भारत सरकार या भारत के लोगों को हमसे जरूर रखनी चाहिए।
जब आप आए, सोवियत संघ का विघटन हो रहा था। अब आप रूस के नेता हैं। इस बदलाव को कैसे देखते हैं?
जब मैं पढ़ने आया तब 17 साल का था। राजनैतिक परिपक्वता नहीं थी। जब समझ में आया तब लगा कि यह घटना बहुत चिंतनीय है। कैसे इतना बड़ा देश, दुनिया की महाशक्ति, इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में बदल सकता है। शीत युद्ध और आर्थिक समस्याओं ने सोवियत संघ को विभाजित किया। रूस के लिए तो ये खराब था ही, भारत के लिए भी ठीक नहीं था। एक समय था जब भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सोवियत संघ के राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेजनेव के संबंधों में गर्मजोशी थी। इसकी मिसाल आज भी यहां दी जाती है। अब एक और दौर आया है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन के संबंधों की बात की जाती है। सोवियत संघ का टूटना भारत और रूस के लिए तो खराब था ही, पूरी दुनिया के लिए भी यह स्थिति किसी भी मायने में ठीक नहीं थी।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति को रूस या यूरोपीय देश कैसे आंकते हैं?
मोदी के तौर पर भारत को मजबूत नेता मिला है। पूरी दुनिया में भारत की गरिमा बढ़ रही है। भारत की अंदरूनी राजनीति चाहे जो हो लेकिन भारत को लंबे समय से ऐसे मजबूत नेता की जरूरत थी, जिसकी बात पर, काम पर दुनिया भरोसा कर सके। दुनिया भर में फैले भारतीय उस पर भरोसा कर सकें। अब दुनिया के वे देश भी भारत को गंभीरता से लेते हैं, जो पहले नहीं लेते थे। नरेंद्र मोदी के तौर पर भारत को दूर की सोच रखने वाला नेता मिला है। भारत और रूस के संबंध बेहतर हुए हैं। एनर्जी सेक्टर, अंतरिक्ष मामलों में भारत दुनिया को टक्कर दे रहा है। जाहिर है, इससे भारत को देखने की दुनिया की नजर बदली है। हालांकि पिछले तीस साल में मैं जब-जब भारत आया हूं, विकास साफ दिखता है। लेकिन मजबूत लीडरशिप से दुनिया भर में माहौल तो बदला ही है।
आप भारत और रूस दोनों देशों की राजनीति को जानते हैं, तो आपके हिसाब से कहां के लोकतंत्र का राजनैतिक स्वरूप जटिल है। भारत का या रूस का। मतलब राजनीति में मुश्किलें कहां ज्यादा दिखती हैं आपको?
मुश्किलें दोनों जगह हैं। फर्क बस यह है कि भारत में नेता आम लोगों के लिए उपलब्ध हैं और रूस में ऐसा नहीं है। भारतीय राजनीति के इस अच्छे पहलू को हमने यहां लागू किया है। हमने पब्लिक मीटिंग की संख्या बढ़ाई है। लोगों से संपर्क बनाए रखा और यह लगातार जारी है। रही बात मुश्किलों की तो हर देश के लिहाज के समस्या अलग किस्म की होती है। राजनीति तो कहीं भी आसान नहीं है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद रूस के वैश्विक महत्व को कैसे देखते हैं?
रूस कभी यह ऑपरेशन यूक्रेन पर चलाना नहीं चाहता था। यह हमारी मजबूरी हो गई थी। पिछले 10 साल से ज्यादा समय से, राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन लगातार नाटो देशों से कह रहे थे कि आप अपना विस्तार मत कीजिए क्योंकि यह सोवियत संघ के विघटन के वक्त हुए वादों से मुकरना है, नियमों की अनदेखी है। हम तो यही कहते रहे कि हमारी सीमा को युद्ध क्षेत्र मत बनाइए लेकिन नाटो देशों ने कहा कि हम ये जो तैनाती करेंगे, वे आपके लिए नहीं, ईरान के लिए है। इसके लिए तो उन्हें ईरान की सीमा पर जाना था। हमारी सीमा पर क्यों आ रहे हैं। दरअसल ये ऑपरेशन यूरोपीय देशों और नाटो ने हम पर थोपा है, जिसे रूस को करना पड़ा। जाहिर है, इसका नुकसान हमें भी हो रहा है। लेकिन अपनी संप्रभुता बचाए रखने के लिए यह जरूरी था। इसमें मैं एक बात और जोड़ूंगा कि इस माहौल में यूरोप और अमेरिका के तमाम दबाव के बाद भी भारत ने जो अपना रुख बनाए रखा, वह नए भारत की पहचान है।
इस मुकाम तक पहुंचने के लिए भारतवासियों की ओर से बधाई और शुभकामनाएं। भारत के युवाओं को कोई संदेश देना चाहेंगे?
ईमानदारी से मेहनत कीजिए, अपने देश का नाम रोशन कीजिए, माता-पिता का नाम रोशन कीजिए और दुनिया में अपनी पहचान बनाइए। मेरी ओर से भी आपको और आउटलुक के माध्यम से पूरे भारतवर्ष को धन्यवाद और आजादी के अमृत महोत्सव की ढेर सारी बधाइयां और शुभकामनाएं।