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09 August 2020

इंटरव्यू- हैरी पॉटर की लोकप्रियता से बढ़ा पौराणिक गल्प: देवदत्त पटनायक

“अंग्रेजी में पौराणिक पात्रों के इर्द-गिर्द कथा बुनकर कई किताबों और फिल्मों में अपनी आमद-रफ्त से मशहूर हुए देवदत्त पटनायक से आकांक्षा पारे काशिव की बातचीत के अंशः”

अंग्रेजी में पौराणिक पात्रों के इर्द-गिर्द कथा बुनकर कई किताबों और फिल्मों में अपनी आमद-रफ्त से मशहूर हुए देवदत्त पटनायक से आकांक्षा पारे काशिव की बातचीत के अंशः

 

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हिंदी में पौराणिक चरित्रों पर बढ़ते लेखन और अचानक इन चरित्रों को लेकर दिलचस्पी का आप क्या कारण मानते हैं?

मुझे लगता है कि इसकी शुरुआत हैरी पॉटर की लोकप्रियता से हुई है। हैरी पॉटर लोकप्रिय हो गया और उस पर फिल्में आने लगीं तो लोगों की रुचि लोककथाओं और दंतकथाओं, आख्यानों में बढ़ने लगी। यह सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में हो रहा है। मैं यही मानता हूं कि दंत कथाओं की वापसी हुई तो पौराणिक चरित्र साहित्य का हिस्सा हो गए।

आपको कब विचार आया कि पुराण या मिथकीय चरित्रों को लेकर लोगों के बीच जाना चाहिए। लोगों को ये कहानियां अचानक क्यों लुभाने लगीं?

मैं लंबे अरसे से इन विषयों पर काम करता रहा हूं। लगभग 20 साल से मैं इन पर काम कर रहा हूं। लेकिन जब हैरी पॉटर की बात हुई तो लोगों को लगा कि हमारे पास भी ऐसी कथाएं हैं और वे दंतकथाओं की ओर मुड़ने लगे। एक कारण यह हो सकता है। लेकिन हमारे यहां भारत में एक दिक्कत यह भी है कि हमारा शिक्षा तंत्र तकनीकी पढ़ाई पर ज्यादा जोर देता रहा है। हमारे यहां विज्ञान पर ज्यादा जोर होता है, साहित्य पर नहीं। हमारे यहां कल्पना पर ज्यादा जोर नहीं है। लेकिन मैं मानता हूं, हर व्यक्ति में कल्पना और कहानी के लिए प्राकृतिक जिज्ञासा और प्रतिभा होती है। इन कथाओं ने कल्पना के द्वार खोल दिए हैं, इसलिए भी हो सकता है कि ये कहानियां लोगों को लुभा रही हैं। 

आजकल कई युवा इनमें हाथ आजमा रहे हैं, लेकिन कुछ लोग इन पात्रों की नए सिरे से व्याख्या कर रहे हैं, उन्हें अपने नजरिये से लिख रहे हैं, आपको लगता है इन पात्रों से इस तरह छेड़छाड़ उचित है?

सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि माइथोलॉजी और माइथोलॉजी फिक्शन दो अलग-अलग हैं। माइथोलॉजी में हम जानना चाहते हैं कि वाल्मीकी क्या व्यक्त करना चाहते थे, तुलसीदास क्या व्यक्त करना चाहते थे। लेकिन जब आप इसमें फिक्शन जोड़ देते हैं तो बात दूसरी हो जाती है। यह समझना ही होगा कि माइथोलॉजी फिक्शन नहीं है और दोनों को अलग ही रहना चाहिए। आप देखिए कि अलग-अलग भाषाओं में जो रामायण और महाभारत लिखी गई, उनमें उस काल की अभिव्यक्ति है। लेकिन आजकल जो लेखन हो रहा है, उसमें लेखक अपनी इच्छाएं देवी-देवताओं के माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं। जब हम इसमें फिक्शन जोड़ देते हैं तो हम परंपराओं के बारे में नहीं सीखते, बल्कि अपनी ओर से ही कहानी कह रहे होते हैं। जो लोग फेमिनिज्म की बात करना चाहते हैं वो सीता, द्रोपदी या शूर्पणखा के माध्यम से इसे व्यक्त करते हैं। जो राष्ट्रवाद की बात करना चाहते हैं वे शिव, राम, कृष्ण को लेकर राष्ट्रवाद के बारे में बात करते हैं। उनकी न रामायण में रुचि है, न शास्त्रों में या न ही पुराणों कि उनमें क्या लिखा गया। नए दौर के लेखन या फिक्शन राइटिंग के लेखक वेदों में रुचि नहीं रखते बल्कि कल्पना या अपने विचार व्यक्त करने के लिए इनका सहारा ले रहे हैं और देवी-देवताओं को पात्र बनाते हैं।

आप सरल भाषा में पुराण समझाते हैं, कुछ लोगों का मानना है कि इतना सरलीकरण पुराणों का हो ही नहीं सकता। कई बार पुराणों की कहानियों को लेकर भी मतभेद सामने आते हैं, जब आप अपनी पुस्तक लिखते हैं तो इनकी विश्वसनीयता के लिए क्या उपाय करते हैं?

जो लोग पुराणों के बारे में ऐसा कहते हैं, उन्हें पुराणों का ज्ञान ही नहीं है। पुराण लिखे गए थे, ताकि वेदों का ज्ञान आसान और सरल तरीके लोगों तक पहुंच सके। कहानी लोक परंपरा या यूं कहें देसी परंपरा है। मंत्र और तत्व ज्ञान गूढ़ भाषा में होता है। यह केवल ब्राह्मणों तक सीमित रहता है, लेकिन लोक परंपरा तक जाने के लिए कहानियों की जरूरत पड़ती है। एक पौराणिक कथा के अलग-अलग रूप होते हैं, जो देश और काल के हिसाब से बदलते हैं। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस की तुलना करेंगे, तो पाएंगे कि वाल्मीकि रामायण दो हजार साल पहले संस्कृत में लिखी गई थी, जबकि तुलसीदास ने रामचरितमानस 500 साल पहले अवधी में लिखा। तुलसीदास जब लिख रहे थे तब भारत में मुगलों का राज था। माना जाता है कि लिखित वाल्मीकि रामायण जो हमें मिली है, वह मौर्य और गुप्त काल के बीच की है। रामचरितमानस में ज्यादातर भक्ति युग दिखाई देता है, जबकि वाल्मीकि रामायण में ज्ञान योग और कर्म योग को ज्यादा महत्व दिया गया है। साथ ही इसमें धर्म को भी महत्व दिया गया है। रामचरितमानस में भक्ति और मोक्ष को भी महत्व दिया गया है। इसी तरह अलग-अलग प्रांतों में आप देखें तो पाएंगे कि ओडिशा के जगन्नाथदास की नंदी रामायण बिलकुल अलग दिखाई पड़ती है। या 17वीं शताब्दी में तुलसीदास के साथ ही लिखी गई वैदेही विड़ास की रामायण पढ़े तो पाएंगे कि उसमें शृंगार और माधुर्य भाव की अधिकता है। उड़िया रामायण में इस भाव की अधिकता है। हर प्रांत में, हर समय में, हर देश-काल में यह बदलाव दिखाई देता है। जब हम कहते हैं कि रामायण और महाभारत एक ही है, तो यह गलत है। हर देश-काल के अनुसार इसमें अंतर है।   

साहित्य में मिथक या पुराण लेखन का बहुत बाजार नहीं था, प्रकाशक भी इस तरह की चीजें छापने से कतराते थे। आपको अपनी किसी पुस्तक के प्रकाशन में कभी किसी दिक्कत का सामना करना पड़ा?

नहीं मुझे कभी ऐसी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा। बीस साल पहले भी प्रकाशक ही मेरे पास आए थे और अब भी आते हैं। बीस साल पहले भी मुझे प्रकाशक ने पूछा था कि कि क्या मैं उनके लिए किताबें लिख सकता हूं। मेरी किताबें लोगों को पसंद आती हैं, इसकी मुझे खुशी है। मैं अभी भी साल में चार किताबें और सौ के करीब लेख लिखता हूं।

जिस तरह से साहित्य में कहानी या उपन्यासों की बिक्री होती है, आप मानते हैं कि मिथकीय चरित्रों पर लिखी किताबों का भी उतना ही बाजार है?

आप उपन्यासों को मिथकीय चरित्र पर लिखी किताबों के न समकक्ष रख सकते हैं, न तुलना कर सकते हैं। दोनों में बहुत फर्क है। सबसे पहले तो यह समझना होगा कि कौन सा विषय मनोरंजन के लिए है, कौन सा आध्यात्म के लिए और कौन सा शिक्षा के लिए। उपनिषद पर लिखी किताब उपन्यास नहीं हो सकती। आप रामायण को शेक्सपियर या हैरी पॉटर की कथा से नहीं जोड़ सकते। हैरी पॉटर फेंटेसी है, कल्पना है। लेकिन मिथकीय पात्र कल्पना नहीं हैं। इसे इतिहास भी नहीं कहा जा सकता। इतिहास और कल्पना के बीच में जो है, वह मिथकीय पात्र हैं। मैं देखता हूं कि लोग ईश्वर को लेकर लिखते हैं और उसे फिक्शन कह देते हैं। ईश्वर को आप फिक्शन नहीं कह सकते। यह आस्था का विषय है, उसका इतिहास से कोई लेना देना नहीं है। माइथोलॉजी बिलकुल अलग बात है और फिक्शन बिलकुल अलग। दोनों का घालमेल करना ठीक नहीं।

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TAGS: इंटरव्यू, पौराणिक गल्प, देवदत्त पटनायक, Devdutt Patnaik, interview, mythological fiction
OUTLOOK 09 August, 2020
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