साहित्य साक्षी भाव से नहीं सृजन से बनता है्
सन 2014 का साहित्य अकादमी पुरस्कार वरिष्ठ कथाकार, कवि, निबंधकार, और चिंतक डॉ. रमेशचंद्र शाह को दिए जाने की घोषणा हुई है। शाह की 75 से ज्यादा कृतियां प्रकाशित हैं। देश के हृदय स्थल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में वह चुपचाप अपने साहित्य सृजन में जुटे रहते हैं। सौम्य, मृदुभाषी और विनम्र रमेशचंद्र शाह को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि साहित्य जगत की उठा पटक किन विवादों को खड़ा करती हैं। वह अपने पाठकों के लिए लगातार सृजनशील रहना चाहते हैं। डॉ. शाह से बातचीतः
. बचपन की स्मृतियों में साहित्य का रिश्ता कैसा था?
अवचेतन पर सबसे ज्यादा इसी वक्त का प्रभाव होता है। यही स्मृति सबसे ज्यादा टिकाऊ और गहरी होती हैं। मुझे गर्व है कि हमें हमारा पूरा बचपन मिला। बचपन का पूरा सुख मिला। पांच वर्ष तक हम स्कूल नहीं गए। हम निरक्षर भट्टाचार्य रहे। स्कूल रूटीन से मुक्त रहे। यही वजह रही कि बहुत सी बातों से सीधा संवाद स्थापित हुआ जो साहित्य रचने के काम आया। जैसे कुछ स्मृतियां हैं, वह कविता में आती हैं। वे यादें बुलाने से नहीं आतीं। ऐसी ही एक कविता जिसमें एक बच्चा सुबह-सुबह खिड़की में खड़ा है, सामने पहाड़ है। वह हिमपात देखता है। यह मेरी चेतना पर पड़ा पहला बिंब है। मैं तब दो या ढाई वर्ष का रहा हूंगा। रात भर हिमपात हुआ था। इस प्रकार के कई बिंब हैं जो जीवन में लौट-लौट कर आते हैं।
. स्मृतियों का सौंदर्य क्या है? क्या आज साहित्य में यह बचा है?
यहां दो बातें हैं। मेरे साथ क्या हो रहा है और मेरे आसपास क्या हो रहा है। जहां तक मेरी रचना प्रक्रिया का सवाल है, मेरी स्मृति का सवाल है तो वह मेरी चेतना की पूंजी हैं, अभिन्न हिस्सा है। स्मृति का सौंदर्य ही है कि इससे ऊब नहीं होती। स्मृतियां नए बिंबों को जन्म देती हैं। यही इसका सौंदर्य है। आज भी साहित्य में कुछ लोग बहुत अच्छे से इसका उपयोग कर रहे हैं। कविता ऐसी विधा है जिसमें आपके सारे अंग एक्टिव होते हैं। भाव और विचार तंत्र भी सक्रिय होता है। यही कारण है कि कविता से मिलने वाला सुख अन्य किसी भी बात से मिलने वाले सुख अधिक होता है।
आप मानते हैं, समाज और कविता का रिश्ता टूटा या उसमें असहजता आई है?
हां समाज और कविता में सहज रिश्ता नहीं रहा। समाज में जाए बिना समाज की बात होने लगी है। इससे कोई भी अपने समाज को जान नहीं सकता। जीवन में जो आंदोलन होना चाहिए वह नहीं हो रहा, बस कविता आंदोलित हो रही है। इससे जनता या कहें पाठक जीवन से वंचित होते हैं और कविता से भी जीवन छिन जाता है। इससे कविता और समाज का रिश्ता कमजोर हुआ है। लेकिन यह होना ही था। तकनीक का विकास हुआ, नई चीजें आईं तो फर्क पडऩा ही था। साहित्य अब एकमात्र विकल्प नहीं रहा।
विचारधारा की इसमें कोई भूमिका आप देखते हैं?
जो कवि अच्छा लिख रहा है, उसे रूपवादी कह दो, कलावादी कह दो। इससे ज्यादा खराब बात और कुछ नहीं हो सकती। रूप को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता। शरीर से आत्मा अलग नहीं होती। कविता होगी तो रूप भी होगा, कला भी होगी। प्रकृति में कुछ भी एक सा होगा तो वह मशीनी हो जाएगी। विचार की कविता बनेगी और कविता में भी विचार होगा। इसे किसी को निर्देशित नहीं किया जा सकता। जहां सबसे अधिक स्वतंत्रता होना चाहिए वहीं कुठाराघात होता है। जब रघुवीर सहाय ने अखबार की भाषा में कविता लिखी थी तो अलग बात हुई थी। कविता में विचार और विविधता दोनों होना चाहिए।
क्या आक्रोश भारतीय साहित्य का साक्षी भाव है?
नहीं आक्रोश भारतीय साहित्य का स्थाई भाव नहीं है। संवेदनशीलता और प्रेम ने भी भारतीय साहित्य में अपनी जगह बनाई है। अनुभव से जो उपजता है वह जीवन के काम भी आता है और साहित्य के भी। साक्षी भाव केवल कविता का मामला नहीं है, यह जीवन की बात भी है। विचार शक्ति के बिना कम से कम इंसान काम नहीं कर सकता। ऐसे लोगों को हम अक्सर जानवर कह देते हैं। मगर प्रकृति से तो हम दूर होते हैं। वह जिसे हम तुच्छ जानवर कहते हैं वह तो वहीं रहता है। प्रकृति के पास। इसलिए किसी एक बात को स्थाई भाव नहीं कहा जा सकता। यह स्थाई नहीं है इसलिए तो साहित्य में आज भी विविधता जिंदा है। हमेशा याद रखना चाहिए, अभिव्यक्ति का कोई स्थाई भाव नहीं।
भावनाएं किसी साहित्यिक कृति को पठनीय बनाती हैं। हाल ही में मैंने वागर्थ में एक कहानी पढ़ी। वेलकम मोहम्मद। शायद कोई मलयाली कहानी है। वह कहानी पढ़ कर मैं अभीभूत हो गया। मैंने दो बार पढ़ी। कहानी में एक भिखारी है। सड़क किनारे उसकी मौत होने वाली होती है। अब उससे मिलने के क्रम में पूरा संसार है। आदमी ही नहीं, कीड़े-मकौड़े भी शामिल हैं। उस बहाने लेखक ने पूरे संसार से बुलवा दिया है। चारों तरफ से रिश्तों को ध्वनित किया गया है। यह बात कोई भी साक्षी भाव वाली बात से नहीं आ सकती। जब लेखक पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और जीवन के तमाम पहलुओं से कोई रचना उठाता है तभी वह बहुआयामी बनती है।
वेदों की ऋ चाएं प्रकृति के प्रति आभार प्रदर्शन हैं। उनमें पवन के प्रति आभार है। पानी की आराधना है, आग के प्रति हार्दिकता है। उस आभार से हम आज तक नहीं बच पाए हैं, आप क्या कहना चाहते हैं?
वह भारतीय कविता की शुरुआत है। जब हम किसी का आभार प्रकट करते हैं तो पावनता महसूस करते हो। आज हमारे सामने सामने सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि वह पावनता का भाव हम महसूस नहीं कर पा रहे हैं। आभार वह भाव है, जो कवि को उसकी कविता में आत्मा का बोध कराता है।
नया साहित्यकार अपने हुनर को मांज सके, कला पक्ष मजबूत कर सके। ऐसी कोई सीख?
अभ्यास और उस्ताद का साथ। उस्ताद से मेरा मतलब है, जो हुनरमंद होगा वही सिखा पाएगा। शब्दों के गहरे अर्थ से परिचय और काम के प्रति निष्ठा।