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06 August 2022

इंटरव्यू : “अभिनय संजीदा काम है, यह 30 सेकण्ड वाली रेसिपी नहीं, बोले अभिनेता गोपाल कुमार सिंह

रामगोपाल वर्मा की फिल्म "कंपनी" से हिन्दी फिल्मों में कदम रखने वाले गोपाल कुमार सिंह, उन चुनिंदा कलाकारों में से हैं, जिन्होंने बेहद कम स्क्रीन स्पेस के बावजूद अपने अभिनय से दर्शकों के दिलों में जगह बनाई है। कलकत्ता मेल, ट्रैफिक सिग्नल, अंधाधुन, बुद्धा इन ए ट्रैफिक जैम, एक हसीना थी, पेज 3 जैसी फिल्मों का हिस्सा रहे गोपाल कुमार सिंह, फिल्म और टीवी के बाद ओटीटी माध्यम पर भी बेहद सक्रिय हैं। गोपाल कुमार सिंह हिन्दी सिनेमा के सफल निर्देशक मधुर भंडारकर की फिल्म "इंडिया लॉक डाउन" में नज़र आने जा रहे हैं। मधुर भंडारकर की इस फिल्म की रिलीज़ कोरोना महामारी के कारण विलंब हुई है। इसके साथ ही उनकी वेब सीरीज़ "चिड़िया उड़" भी एमएक्स प्लेयर पर रिलीज़ होने वाली हैं। गोपाल कुमार सिंह से उनके अभिनय सफर, जीवन और फिल्मों के बारे में आउटलुक से मनीष पाण्डेय ने बातचीत की।

साक्षात्कार से मुख्य अंश 

मधुर भंडारकर की फिल्म “इंडिया लॉकडाउन” और अपने वेब शो “चिड़िया उड़” के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?

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इंडिया लॉकडाउन में लॉकडाउन के समय की त्रासदी और पीड़ा को चार कहानियों की मदद से कहने का प्रयास किया गया है। इसमें से एक कहानी में मैं हूं। मैं बिहार के एक ऐसे आदमी का किरदार निभा रहा हूं, जो लॉकडाउन के समय मुम्बई में फंस गया है और किसी तरह तमाम तकलीफों, दुखों का सामना करते हुए, पैदल अपने गांव तक पहुंचने की कोशिश करता है। जबकि चिड़िया उड़ मुम्बई के कमाटीपुरा इलाके पर आधारित वेब शो है। यह इलाका आम तौर पर वैश्यावृत्ति की गतिविधियों के कारण चर्चा में रहता है। इसमें जैकी श्रॉफ, मीता वशिष्ठ, सिकंदर खेर जैसे कमाल के कलाकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। 

बचपन की स्मृतियों में लौटते हैं?

मैं बचपन को भूल ही कहां पाया हूं। चिरमिरी नाम का शहर, जहां मेरा बचपन बीता, आज भी मेरे भीतर हर पल धड़कते रहता है। चिरमिरी मूल रूप से कोल माइंस क्षेत्र है। बचपन की कई यादें हैं, जिन्हें याद कर के आज मन भावुक हो जाया करता है। जैसे गर्मी में तेंदु, अमरूद, बेर और जामुन के फल जंगल में जाकर खाया करते थे। जो आनन्द महसूस होता था, उसे शब्दों में बता पाना संभव नहीं है। चिरमिरी में मिट्टी को हटाकर ब्लास्ट किया जाता था और फिर कोयला निकालने की प्रक्रिया होती थी। हम लोग मिट्टी के पहाड़ के ऊपर लकड़ी, पॉलीथीन आदि से घर बनाया करते थे। इन घरों से हम शहर को देखा करते थे।

नाटक और अभिनय की दुनिया में आना किस तरह से हुआ ?

बचपन में सप्ताह में एक दिन रोड सिनेमा दिखाया जाता था। इसके तहत सड़क के किनारे पर्दा लगाकर फिल्म दिखाई जाती थी। यह बहुत रोमांचक अनुभव था। स्कूल की पढ़ाई के बाद, मैं दिल्ली आया था टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने। जब डिप्लोमा का फाइनल इयर था तो मैं एक दिन अपने एक दोस्त के साथ मंडी हाउस पहुंचा। वहां किसी नाटक की रिहर्सल चल रही थी। मुझे नाटक ने आकर्षित किया। मुझे लगा कि यह काम बढ़िया है और मुझे यह करना चाहिए। भीतर यह बात भी थी कि किसी दिन फिल्मों में काम करेंगे। रिहर्सल देखते हुए मेरे मन में विचार आया कि नाटकों के माध्यम से खुद को परिपक्व अभिनेता बनाया जा सकता है।मैंने प्रयास किए और धीरे धीरे नाटकों की दुनिया में अच्छा काम करने लगा। 

जब आप अभिनय में रुचि ले रहे थे उस वक़्त आपके परिवार वालों का क्या रवैया था ?

पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने नौकरी नहीं की। मैं दिल्ली के मशहूर थियेटर ग्रुप “ एक्ट 1 “ के साथ नाटक कर रहा था। इसमें मज़ा तो आ रहा था मगर कमाई का कोई साधन न होने के कारण दिक्कतें भी पैदा हो रही थीं। एक दिन मैंने पिताजी को बता दिया कि मैं नौकरी नहीं करना चाहता और मुझे नाटकों, अभिनय की दुनिया में ही काम करना है। पिताजी ने पूरी गंभीरता से मेरी बात सुनी। फिर नाटकों, अभिनय से जुड़े कुछ ज़रूरी सवाल पूछे।जब उन्हें यकीन हो गया कि मैं अभिनय ही करना चाहता हूं तो फिर उन्होंने पूरी जिंदगी साथ दिया और मेरे निर्णय का सम्मान किया।

अपने मुंबई के सफर के बारे में बताइये, किस तरह पहला काम मिला और मुंबई में काम करने का अनुभव कैसा रहा ?

 जब मैं मुंबई आया तो रामगोपाल वर्मा फिल्म “ कंपनी” बना रहे थे। जो लोग अभिनेता की पारंपरिक छवि में फिट नहीं बैठते थे, रामगोपाल वर्मा उनके भगवान थे। मैं भी अपनी किस्मत आजमाने रामगोपाल वर्मा के ऑफिस पहुंचा। ऑफिस पहुंचकर मेरी मुलाकात चीफ असिस्टेंट रमेश कटकर से हुई और मैंने अपनी तस्वीरें उन्हें दे दी। मेरी किस्मत अच्छी रही और तीन दिन बाद मुझे फिल्म “ कंपनी” में काम करने का ऑफर आ गया। कंपनी के सफल होने पर मुझे मधुर भंडारकर ने अपनी फिल्म पेज 3 के लिए बुलाया।मैंने स्क्रिप्ट सुनी तो काम करने से मना कर दिया। मैं फिल्म में एक सीन, दो सीन करने मुंबई नहीं आया था। मुझे अच्छे और महत्वपूर्ण किरदार निभाने थे, जिससे मेरी अभिनय क्षमता की अभिव्यक्ति हो। मधुर भंडारकर ने मेरी बात सुनी तो बोले तुम अभी ये फिल्म कर दो,अगली फिल्म में कुछ ऐसा सोचा है तुम्हारे लिए, जिससे तुम्हारी शिकायत दूर हो जाएगी। मैंने मधुर भंडारकर की बात मान ली। कुछ सालों बाद मधुर भंडारकर ने फिल्म “ ट्रैफिक सिग्नल” बनाई, जिसमें मुझे बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण रोल दिया। इस फिल्म से मुझे अच्छी पहचान मिली। मैंने सीखा है कि आपको अपने लिए बोलना होगा। अन्यथा आप गुम हो जाएंगे।

क्या इंस्टाग्राम, टिक टॉक, रील्स के इस दौर में जब लोग वायरल होकर शोहरत हासिल कर रहे हैं, तब लोगों में अभिनय का जुनून कम रहा गया है?

जिनमें जुनून नहीं है, वह आर्टिस्ट नहीं हैं। इसलिए आर्टिस्ट हैं तो जुनून तो होगा ही। रही बात टिकटॉक और इंस्टाग्राम की तो मेरा मानना है कि एक्टिंग एक संजीदा काम है।आप 30 सेकंड की रील बना सकते हैं मगर कैमरे के सामने 2 मिनट का सीन करने में आपकी हवा गुल हो सकती है। इसलिए जहां अभिनय की बात आएगी, वहां एक्टर ही तलाशे जाएंगे, इंस्टाग्राम और टिकटॉक स्टार नहीं। 

ओटीटी माध्यम ने क्या कलाकारों की स्ट्रगल को कम किया है?

ओटीटी माध्यम कलाकारों के लिए क्रांतिकारी तो साबित हुआ ही है। पहले काबिल लोगों को काम करने के लिए कुछ चुनिंदा लोगों से उम्मीद रहती थी। अधिकांश लोग कमर्शियल सिनेमा बनाते थे। ऐसे में संजीदा और सार्थक काम करने की इच्छा रखने वाले इंतज़ार करते रह जाते थे। आज हर तरह के कलाकारों के लिए हर तरह का काम है और भरपूर काम है। यह ओटीटी माध्यम की वजह से ही संभव हो सका है। बाक़ी स्ट्रगल तो जीवन का अंग है। वह कहां कभी कम होता है।

इधर बहस चल रही है कि साउथ इंडियन फ़िल्मों ने हिन्दी सिनेमा की कलई खोल दी है, इस पर आपके क्या विचार हैं ? 

अगर सिनेमा अच्छा है तो दर्शक उसे किसी भी कीमत पर पसन्द करते हैं। आप दक्षिण भारतीय भाषाओं में घटिया फ़िल्में बनाएंगे तो उन्हें नकार दिया जाएगा। इसलिए यह कहना कि साउथ इंडियन फ़िल्मों का वर्चस्व है, ठीक नहीं है। वर्चस्व तो हमेशा से अच्छे सिनेमा का था और रहेगा। फिर चाहे वह किसी भी भाषा में बने।

अपने कमजोर क्षणों में कैसे खुद को हिम्मत देने का काम करते हैं?

मेरी पूरी ज़िंदगी पिताजी की छाया में बीती। मुझे जब भी निराशा महसूस हुई, मैंने पिताजी जी से बात की और कुछ देर में भीतर सकारात्मक ऊर्जा लौट आई। पिताजी ने हमेशा मेरा साथ दिया। अब जब पिताजी जीवित नहीं हैं, तब भी मैं मन में पिताजी को सोचते हुए, उनसे संवाद करता हूं। मुझे इस तरह खूब हिम्मत मिलती है।

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TAGS: Gopal Kumar Singh, Bollywood, Hindi cinema, company, traffic signal, Buddha in a traffic jam, andhadhun, India lockdown, chidiya udd, Ramgopal Verma
OUTLOOK 06 August, 2022
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