दलित फूड है ज्यादा सेहतमंद-चंद्रभान प्रसाद
दलित फूड शुरू करने के पीछे क्या सोच रही, कब ये आडिया आपके दिमाग में आया ?
मैं जब 2008 में उत्तर प्रदेश में दलितों की जीवन शैली और खानपान में आए बदलाव पर काम कर रहा था, सर्वेक्षण कर रहा था, तब मैंने देखा कि गांव में बुजुर्ग दलित भी बहुत कठिन काम आराम से कर रहे थे। भारी-भारी बोझा उठा रहे थे। दलितों की उम्र भी लंबी होती है। जब इसकी वजह की पड़ताल की तो दो बड़ी चीजें सामने आईं, पहली तो यह कि वह शारीरिक रूप से बेहद सक्रिय रहते हैं। आराम बहुत कम करते हैं। औऱ दूसरा उनका भोजन। खाने में वे मोटा अनाज, मोटा चावल, मांसाहार आदि नियमित रूप से खाते रहे हैं। यहीं से दलित फूड को प्रचारित करने का ख्याल आया। अभी हम धनिया, हल्दी, मिर्ची और अचार लेकर आएं हैं, जल्द ही जौ और मटर का आटा लॉन्च करेंगे।
लेकिन आज गैर दलितों में, खास तौर से शहरी मध्यम वर्ग में मोटे अनाज का चलन है। इसे ही स्वास्थ्य के लिए अच्छा मानते हैं, डॉक्टर भी यही करते हैं, फिर इसमें क्या नया है ?
यही मेरा सवाल है कि आज जब डायटिशियन इस तरह के खाने को कहती हैं, तो उन्हें कहना चाहिए कि दलित फूड खाओ। दलितों के बारे में जो हेय सोच बनी हुई है, उसे तोड़ने की जरूरत है। वह इस माध्यम से तोड़ी जा सकती है कि जो अच्छा है, स्वास्थ्यवर्धक है, वह दलितों से आया हुआ है। दलितों में जो सौंदर्य हैं, उसे स्वीकारो।
भोजन में जाति को लेकर बहुत सवाल उठ रहे हैं। खाने में दलित और गैर दलित के मुद्दे को कैसे समझाएंगे ?
खाने में जाति तो बहुत ज्यादा है। जिस तरह से जीवन में जाति की ऊंच-नीच (हाइरेरकी) होती है, उसी तरह से खाने में यह हाइरेरकी होती है। आप किसी ऊंची जाती वाले से पूछिए कि क्या उसने सूखे मटर की रोटी खाई है, वह कहेंगे सूखे मटर की रोटी, कैसी। आप ऊंची जात वालों से पूछिए कि क्या आप बकरे का सिर खाते हैं, वह कहेंगे-नहीं। आप पूछिए आप बकरे की आंतें खाते हैं, वह कहेंगे, नहीं। फिर कौन खाते हैं, ये सब दलित-छोटे लोग खाते हैं। खाने में जाति उसी तरह से है, जैसे जीवन में।
आपकी टैग लाइन क्या होगी ?
जाति बड़ी या सेहत, सीधा सा सवाल है हमारा। हम जो बेच रहे हैं, वह सेहतमंद हैं। क्या आप दलितों द्वारा बनाया गया, दलितों द्वारा मार्केट किया गया खाना, खाने की चीजें बेचने को तैयार हैं, या नहीं