इंटरव्यू - हंसल मेहता : "मैंने कभी परिस्थितियों का रोना नहीं रोया, कभी हार नहीं मानी"
हिन्दी सिनेमा जगत में कुछ ऐसे फिल्म निर्देशक रहे हैं, जिन्होंने भीड़ से अलग हटकर अपनी कला के जरिए दर्शकों के दिलों में जगह बनाई है।
इन्हीं निर्देशकों ने सिनेमा की मनोरंजन से बढ़कर एक संवेदनशील छवि स्थापित की है। हंसल मेहता ऐसे ही एक निर्देशक हैं। "शाहिद", "अलीगढ़", "सिटी लाइट्स" और "स्कैम 1992" जैसी फिल्मों से हंसल मेहता ने साबित किया है कि यदि प्रबल इच्छाशक्ति हो तो अपनी बात कहने में कोई रुकावट आड़े नहीं आती। हंसल मेहता अब 2 जून को नेटफ्लिक्स पर अपना शो "स्कूप" लेकर आ रहे हैं। हंसल मेहता से उनकी आगामी वेब सीरीज और जीवन के बारे में आउटलुक से मनीष पाण्डेय ने बातचीत की।
साक्षात्कार से मुख्य अंश :
स्कैम 1992 की अपार सफलता के बाद सभी को आपके काम का बेसब्री से इंतजार है। ऐसे में "स्कूप" की कहानी पर वेब सीरीज बनाने के पीछे क्या वजह रही है?
मैंने "स्कूप" की कहानी स्कैम 1992 के आने से पहले ही चुन ली थी। मैंने हमेशा कहा है कि मैं किसी कहानी को नहीं चुनता बल्कि कहानियां खुद ही मुझे चुन लेती हैं। मैं हमेशा कोशिश करता हूं कि मेरे काम की सफलता, मुझ पर दबाव न पैदा करे। इसलिए स्कैम 1992 की कामयाबी के बाद भी मैंने अपने मन में स्पष्ट रखा था कि मैं वही बनाऊंगा, जो मुझे ठीक लगेगा। मुझे स्पष्ट था कि मैं अपने शो की कामयाबी के दबाव में कुछ भी ऐसा नहीं बनाऊंगा, जो बाद में मुझे एक समझौता लगे। जब निर्माता ने मुझे "स्कूप" की कहानी पढ़ने को दी तो मुझे स्क्रिप्ट के कुछ पन्ने पढ़कर ही लगा कि यह कहानी मुझे कहनी है। और जब दिल से आवाज आती है तो काम पूरे हो ही जाते हैं।
हर प्रोजेक्ट के अपने संघर्ष होते हैं। "स्कूप" बनाते हुए आपने किन चुनौतियों का सामना किया?
हर कहानी को कहने में चुनौतियां तो रहती ही हैं। और यदि चुनौतियां न हों तो कहानी कहने में मजा भी नहीं आता है। "स्कूप" बनाते हुए सबसे बड़ा संघर्ष तो यही था कि किसी भी तरह एक ऐसा वातावरण बनाया जाए तो कहानी को जीवंत करता हो। सिनेमा का सारा जादू ही वातावरण पर निर्भर करता है। जो निर्देशक ऐसा माहौल तैयार कर देता है कि दर्शक को सब कुछ जीवंत महसूस होने लगे, वही निर्देशक कामयाब होता है। बाकी मेरी टीम इतनी शानदार है कि उनके होते हुए, मुझे किसी भी काम में कोई दुश्वारी महसूस नहीं होती।
एक दौर था, जब एक तरफ आपकी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल रहा था और दूसरी तरफ आपकी माली हालत ठीक नहीं थी। कितना कठिन था वह समय और कितना मुश्किल था उस दौर से बाहर निकलना ?
मेरा ऐसा मानना है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, इंसान को कर्म करना नहीं छोड़ना चाहिए। हर सुबह एक नई उम्मीद लेकर आती है। हर सवेरा कुछ नए अवसर आपके सामने खोलता है। इसलिए इंसान को बीते दिन की सफलता और असफलता को पीछे छोड़ते हुए, यह देखना चाहिए कि नई सुबह किस ताजगी को लेकर आई है। मेरे लिए वह समय कठिन था। मेरी फिल्म को सम्मान मिल रहा था मगर मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसके बावजूद मैंने परिस्थितियों का रोना नहीं रोया। मैं हारकर नहीं बैठ गया। मैंने संघर्षों में भी प्रयास किया और रास्ता बनने तक लगा रहा। इसी धैर्य और निरंतर प्रयास का नतीजा है कि आज मैं अपने पसन्द का काम कर रहा हूं।
आपने शुरुआत से ही वह रास्ता चुना, जहां मुश्किलें ज्यादा थीं और समर्थन कम। इस राह पर चलने का साहस कहां से मिला?
मेरे शो "स्कैम 1992" की एक मशहूर लाइन है। "रिस्क है तो इश्क है"। यही मेरे जीवन का भी आधार रहा है। मैंने अपने जीवन में बहुत बारीकी से अनुभव किया है कि जहां संघर्ष है, वहीं सुख और आनंद है। सुकून है। इसलिए मुझे कभी आसान रास्तों ने आकर्षित नहीं किया। मैं पथरीली जमीन पर चलते हुए जानता था कि मंजिल बेहद खूबसूरत होने वाली है। जिस दौरान मैं अपने मन का काम कर रहा था, उस समय कम लोगों को मुझ पर यकीन था। कम लोग मेरे समर्थन में थे। मगर मुझे खुद पर विश्वास था और भीतर आत्म संतुष्टि थी। यह मेरे लिए सबसे बढ़कर है। इसी आत्म संतुष्टि से ही साहस मिलता है। मैं नहीं चाहता कि आसान रास्तों पर चलते हुए मेरी मुलाकात अफसोस, ग्लानि से हो। इसलिए मैं पूरी ऊर्जा और उत्साह के साथ उस सफर को तय करता हूं, जो चुनौतीपूर्ण होता है।
बीते दिनों बॉयकॉट बॉलीवुड मुहिम छिड़ी तो एक बात सामने आई कि हिंदी सिनेमा के दर्शक अब अच्छा कॉन्टेंट देखना चाहते हैं। मगर पठान, तू झूठी मैं मक्कार जैसी फिल्मों के कायमाब होने और अफवाह, भीड़ जैसी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित होने के बाद, हिंदी सिनेमा के दर्शकों की पसंद अबूझ पहेली बनी हुई है। आपका इस परिस्थिति को किस तरह देखते हैं?
चूंकि मैं कोई ट्रेड विशेषज्ञ नहीं हूं इसलिए अमुक फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर किस तरह सफलता प्राप्त की और अमुक फिल्म क्यों बॉक्स ऑफिस पर विफल रही, इस विषय में मैं कोई बयान नहीं दे सकता। जहां तक बात रही अच्छे और बुरे कॉन्टेंट की तो यह उतना सीधा मामला नहीं है। क्यों अफवाह, भीड़ जैसी फिल्में नकार दी जाती हैं, उसके कई पहलु हैं। इस विषय को लेकर मेरे भीतर गुस्सा है, दुख है, असंतोष है मगर अभी मैं उसे जाहिर करना नहीं चाहता। मैं यही कहूंगा कि इन बातों का सतही मूल्यांकन और विश्लेषण नहीं होना चाहिए।
कई लोगों का कहना है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के कारण लोग अब फिल्मों को थियेटर में देखने नहीं जाते, जिस कारण सार्थक फिल्मों के कारोबार पर असर हुआ है। आप ओटीटी प्लेटफॉर्म के प्रभाव को किस तरह देखते हैं?
एक फिल्मकार के रूप में मेरी यही अभिलाषा रहती है कि मेरी फिल्म को अधिक से अधिक लोग देखें। ओटीटी प्लेटफॉर्म ने मेरे कॉन्टेंट को बड़ी तादात तक पहुंचाने का काम किया है। स्कैम 1992 ने मुझे नई ऊर्जा दी है और यह ओटीटी प्लेटफॉर्म से ही संभव हुआ है। मैं तो यही चाहता हूं कि लोग मेरी फिल्म, मेरा शो देखें। अब वह टीवी पर देखते हैं या ओटीटी पर या थियेटर में, यह दर्शकों का चुनाव है। जहां तक सार्थक फिल्मों के कारोबार की बात है तो जब ओटीटी प्लेटफॉर्म नहीं था, तब भी गिनी चुनी जनता इन फिल्मों को देखने थियेटर पहुंचती थी। इसलिए यह कहना असत्य होगा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म ने सार्थक फिल्मों के कारोबार को प्रभावित किया है।