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07 August 2022

इंटरव्यू : सुशांत सिंह राजपूत और फिल्म " एम. एस धोनी" रहेगी हमेशा दिल के करीब, बोले फिल्म अभिनेता आलोक पाण्डेय

एम. एस धोनी - द अनटोल्ड स्टोरी, बाटला हाउस, लखनऊ सेंट्रल, पीके,प्रेम रतन धन पायो जैसी कामयाब फिल्मों में काम कर चुके आलोक पाण्डेय छोटे कस्बे से निकलकर मुंबई पहुंचे और अपनी प्रतिभा से उन्होंने सभी को प्रभावित किया। आलोक पाण्डेय की फिल्म "हुड़दंग" पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई, जिसमें उनके किरदार को काफी पसंद किया गया। आलोक पाण्डेय से उनके कलात्मक सफर और फिल्मों के बारे में आउटलुक से मनीष पाण्डेय ने बातचीत की। 

 

 

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साक्षात्कार के मुख्य अंश

 

 

अपनी फिल्म हुड़दंग के बारे में बताइए, क्या किरदार है आपका ? 

 

हुड़दंग का विषय, भारत में लागू किए गए मंडल कमीशन के प्रभाव से पैदा हुआ है। इस समाज में किस तरह से युवा को जातिवाद आरक्षण, धर्म के नाम पर मोहरा बनाकर राजनीति में इस्तेमाल किया जाता रहा है, यह दिखाती है फिल्म "हुड़दंग"। मैं फिल्म के मुख्य किरदार छात्रनेता लोहा सिंह के छोटे भाई का किरदार निभा रहा हूं। यह एक महत्वपूर्ण किरदार है। लोहा सिंह का भाई महसूस करता है कि उसे उसकी प्रतिभा के अनुसार महत्व नहीं दिया जा रहा। इसी भाव से दोनों भाइयों में मतभेद भी पैदा होता है। लेकिन आगे चलकर कुछ ऐसे प्रसंग होते हैं कि दोनो भाइयों के बीच की गलतफहमी दूर हो जाती है। अभी मैं इतना ही कहूंगा। अधिक जानने के लिए फिल्म देखी जानी चाहिए।  

 

 

 

 

 

आपके जीवन पर बचपन का क्या प्रभाव रहा है? 

 

बचपन मस्ती, ऊर्जा, जोश से भरपूर था। गांव में जो खेल खेले जा सकते थे, सब खेले गए। पहिए को लकड़ी से दौड़ाना हो या फिर छुपन छुपाई, हर खेल बहुत याद आता है अभी भी । बेचैनी नहीं थी। लोभ, लालसा नहीं थी। जो था, जितना था, उसमें सुकून मिलता था। वो शक्तिमान , अलिफ लैला और 12 बोल्ट की बैटरी वाले दिन थे। वो ब्लैक एंड वाइट वाला बचपन आज की कलरफ़ुल लाइफ से बहुत ख़ूबसूरत था। 

 

 

 

 

स्कूली शिक्षा के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आपकी कितनी सहभागिता रहती थी ? 

 

मुझे रुचि तो हमेशा से थी। उस दौर में स्कूल में 26 जनवरी, 15 अगस्त, गांधी जयंती के आयोजन भव्य होते थे। मुझे इनका इंतजार रहता था। मुझे मौका मिलता और मैं मंच पर होता था । कभी कविता सुनाता, कभी कुछ और परफॉर्म करता। हमेशा शिक्षकों ने उत्साह वर्धन किया। यहां से लगा कि ये कुछ बढ़िया काम है। आठवीं कक्षा में फ़िल्म शोले के कुछ सीन मंच पर प्रस्तुत किए। आज समझ आता है कि ज़िंदगी में कोई भी चीज़ ऐसे ही नही होती।मुझे मिमिक्री का भी शौक था।स्कूल से होते हुए ग्रेजुएशन तक मैंने लगातार मंच पर प्रस्तुति दी।

 

 

 

 

कब विचार आया कि प्रोफेशनल एक्टिंग करनी चाहिए, इस बात को लेकर घर वालों का क्या रुझान था ? 

 

ग्रेजुएशन तक सब कुछ मौज मस्ती तक सीमित था। फिर मैंने नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और बीएनए की तैयारी की। बीएनए में एडमिशन लिया और दो साल तक मैंने लखनऊ में रहकर रंगमंच की बारीकियां सीखी। तब महसूस हुआ कि इतनी मेहनत, इतनी लगन के बाद अब जीवन अभिनय करते हुए ही जीना है। इस तरह प्रोफेशनल एक्टिंग का खयाल आया।  

 

घर वालों को बहुत वक़्त तक समझ नहीं आया कि मैं एक्टिंग को लेकर सीरियस हूं। उनको लगा कि स्कूल में गाता हूं, कविता सुनाता हूं, तालियां मिलती हैं, बढ़िया ही है। बाद में जब घरवालों को मालूम हुआ कि मैंने एक्टिंग को जीवन बना लिया है,तब मेरे भाईयों ने मुझे हर तरह से पूरा सहयोग किया। उनकी पूरी कोशिश रही कि मैं अपने पैशन को जी सकूं। हालांकि मुहल्ले, पड़ोस, गांव के लोगों से बेरोक टोक ताने, उलाहने मिलते रहते थे। लेकिन जीवन में संघर्ष पथ पर इतना सामान्य है। 

 

 

मायानगरी मुंबई में आपको 10 वर्ष होने को हैं, क्या अनुभव रहे आपके ? 

 

 

29 दिसंबर 2012 को मैं मुम्बई पहुंचा था। तह से आज तक मुंबई को समझ रहा हूं, जी रहा हूं। शुरुआती दिन कठिन थे। एक कमरे में 6 से 7 लोग तक रहते थे। दिनचर्या अस्त व्यस्त थी। इसी सब में लगातार ऑडिशन दे रहा था मैं और रिजेक्ट हो रहा था। नॉट फिट सुनते सुनते कान थकने लगे थे। उन्हीं दिनों, एक रोज़ मुझे एक निर्देशक का फ़ोन आया। निर्देशक मेरे परिचित थे। उन्होंने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुझे अपने ऑफिस बुलाया।ऑफिस पहुंचा तो उन्होंने मुझे एक स्क्रिप्ट थमा दी। स्क्रिप्ट दूरदर्शन के सीरियल की थी। इस सीरियल के 13 एपिसोड से आत्मविश्वास मिला। पैसे आए तो मुंबई में रहने की हिम्मत मिली। मैंने ऑडिशन दिए और फिर समय के साथ पीके, सनम तेरी एक कसम, एम एस धोनी, लखनऊ सेंट्रल, बाटला हाउस, वन डे में काम मिलता चला गया। एम एस धोनी में अच्छा रोल था और खूब मज़ा आया। सुशांत सिंह राजपूत से अच्छी दोस्ती हो गई थी। आज सुशांत को बहुत याद करता हूं। लेकिन नियति और प्रकृति से आप लड़ नहीं सकते। आज मेरे काम को लोगों ने पहचानना और प्यार देना शुरू किया है। मुंबई या कहूं जीवन का अनुभव यही है कि जीतता वही है, जो टिका रहता है। 

 

 

 

अक्सर हम फ़िल्म जगत की उजली तस्वीर देखते हैं लेकिन यहां के कलाकारों का डिप्रेशन हम तक नहीं पहुंचता, इस पर आपकी क्या टिप्पणी है ?

 

मुंबई एक बड़ा बाज़ार है। नाम ही में जुड़ा हुआ है हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री। इंडस्ट्री यानी कारोबार की जगह। जहां पैसे लगते हैं आर्टिस्ट पर। यानी तगड़ा रिस्क है और तगड़ा कॉम्पटीशन भी। इस कॉम्पटीशन में लोग बह जाते हैं। उनके ऊपर दबाव होता है, खुद को मेंटेन करने का। चाहे इच्छा और ज़रूरत न हो लेकिन आर्टिस्ट एक लक्जरी से भरा लाइफ स्टाइल पेश करते हैं। जब काम मिलता है तब तो ठीक लेकिन जब नहीं मिलता तब इस लाइफ स्टाइल को कायम रखना कठिन होता है। यही से जन्म लेता है डिप्रेशन। और एक दिन ये डिप्रेशन इंसान को खत्म कर देता है। मैं गांव का आदमी हूं। बिलकुल सरल, सहज। कल जो जीवन जीता था, आज भी वैसे ही जीता हूं। आज भी ट्रेन में सफर करता हूं। सामान्य से घर में रहता हूं। सुकून से दो रोटी खाता हूं। दिखावे से दूर रहता हूं। जानता हूं कि दिखावा एक रोज़ मिट जाना है।

 

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TAGS: Alok Pandey, huddang, Netflix, Mahendra Singh Dhoni biopic, Sushant Singh Rajput, Salman Khan, Prem ratan dhan payo fame actor, PK fame actor interview
OUTLOOK 07 August, 2022
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