इंटरव्यू । एम.वाइ. तारिगामीः ‘भाजपा को जम्मू-कश्मीर का राजनैतिक पुनर्गठन महंगा पड़ा’
माकपा के राज्य सचिव एम.वाइ. तारिगामी जम्मू-कश्मीर की बेहद खास राजनैतिक शख्सियत हैं। वे 1996 से लगातार अपने निर्वाचन क्षेत्र से विधानसभा चुनाव जीतते आ रहे हैं और क्षेत्र की राजनीति में इकलौती कम्युनिस्ट आवाज हैं। तारिगामी की राजनैतिक यात्रा कम्युनिस्ट सिद्धांतों में उनकी गहरी आस्था के साथ शुरू हुई। उन्हें 1979 में युवा कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ता के रूप में उनकी गतिविधियों के लिए सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। अनुच्छेद 370 के रद्द होने के बाद, तारिगामी को गुपकार घोषणापत्र के लिए पीपुल्स अलायंस का प्रवक्ता और संयोजक चुना गया था। तारिगामी जम्मू-कश्मीर के लोगों के अधिकारों खासकर केंद्र सरकार के महत्वपूर्ण राजनैतिक बदलावों को लेकर मुखर रहे हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, कांग्रेस, माकपा और अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआइपी) के 4 अगस्त, 2019 को पारित गुपकार घोषणापत्र का उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की रक्षा करना था। अगले दिन, भाजपा सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया और तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों सहित लगभग 8,000 लोगों को जेल में डाल दिया और सुरक्षा और संचार लॉकडाउन लागू कर दिया। 2020 के जिला विकास परिषद (डीडीसी) चुनावों के दौरान, फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाले गुपकार अलायंस को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और दूसरे भाजपा नेताओं ने ‘‘गुपकर गिरोह’’ और ‘‘वंशवादी’’ बताया था। गुपकार अलायंस ने 280 में से 110 सीटों पर प्रभावी जीत हासिल की। भारी उम्मीदों के बावजूद भाजपा की सफलता जम्मू, कठुआ, उधमपुर और सांबा जिलों तक ही सीमित रही। हालांकि, संसदीय चुनावों में यह गठबंधन बिखर गया क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को एक सीट देने से इनकार कर दिया, जिससे पार्टी को कश्मीर की तीनों सीटों से चुनाव लड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। फिर भी, तारिगामी को गुपकार अलायंस का भविष्य दिखाई देता है। तारिगामी कहते हैं, ‘‘गुपकार अलायंस ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ है। यह अच्छा प्रयोग है और यह जारी रहेगा। जम्मू-कश्मीर में चुनौती के मद्देनजर एकजुट आवाजों की आवश्यकता है। जम्मू-कश्मीर और उसके बाहर कई और समूहों का हिस्सा होना जरूरी है। गुपकार अलायंस हमेशा भाजपा के लिए आंख की किरकिरी रहा है। यही कारण है कि उसे एक गिरोह बताया गया।’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘2019 से, भाजपा ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अपने अनुरूप बदलाव लाने की कोशिश की है। लेकिन मुख्यधारा के राजनैतिक दलों ने दबावों का सामना किया है और जम्मू-कश्मीर में राजनैतिक पुनर्गठन के डिजाइनों को हराया है। वास्तविक मुख्यधारा के राजनैतिक दल मजबूती से खड़े हैं।’’ आउटलुक के नसीर गनई के साथ बातचीत में तारिगामी ने अनुच्छेद 370 के रद्द होने के बाद राजनैतिक उथल-पुथल और जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा के राजनैतिक दलों की मजबूती पर बेबाक राय व्यक्त की। मुख्य अंश:
अनुच्छेद 370 हटने का जम्मू-कश्मीर पर क्या असर हुआ है?
इसका लोगों पर बहुत गहरा असर पड़ा है। तवारीख याद कीजिए। जम्मू-कश्मीर में निरंकुश डोगरा राज था। वह निरंकुश सामंती राज था। फिर भी, 1927 में डोगरा राजा ने जम्मू-कश्मीर के लोगों के हक में एक व्यवस्था बनाई। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लोगों को स्थायी निवासियों के रूप में दर्ज किया और उनको कुछ अधिकार दिए। 1947 के बाद, भारतीय संविधान के तहत, वे अधिकार अनुच्छेद 35 (ए) के जरिए जारी रहे। ये लोगों की भलाई के लिए थे, उसके जरिए तरक्की हुई और जम्मू-कश्मीर में अपेक्षाकृत समतावादी व्यवस्था बनी। 5 अगस्त, 2019 को, जम्मू-कश्मीर के लोगों के ये सभी अधिकार छीन लिए गए। लोगों को घरों में बंद कर दिया गया और नेताओं को जेल में डाल दिया गया। इस तरह से भाजपा ने अपने राजनैतिक एजेंडे को अंजाम दिया।
अनुच्छेद 370 रद्द करने के साथ अनुच्छेद 35ए को भी हटा दिया गया। अनुच्छेद 35ए स्थायी निवासियों के अधिकारों, पहचान, भूमि अधिकारों और रोजगार की रक्षा करता था। संसद में कोई बहस किए बिना जम्मू-कश्मीर राज्य को तोड़ दिया गया। जम्मू, कश्मीर या लद्दाख के लोगों की सहमति के बिना राज्य को बांट दिया गया। फिर भी, आप पूछ रहे हैं कि इसका क्या असर पड़ा है। हर समाज में स्वतंत्र रूप से वोट देने, खुलकर बात करने और स्वतंत्र रूप से चलने का विकल्प होना चाहिए। यह हर समाज का बुनियादी अधिकार है। लोगों को निहायत ही बुनियादी अधिकारों से महरूम कर दिया गया है। यह अघोषित रूप से जेल में रहने जैसा है। 5 अगस्त, 2019 को अपनी तवारीख से अलग करने कोशिश हुई और यह यहीं खत्म नहीं हुआ। यह अभी जारी है। तब से, हर रोज आप कुछ ऐसा देखते हैं और आपको लगता है कि इसका कोई अंत नहीं है।
इसका दीर्घकालिक असर क्या है?
मुझे लगता है कि 5 अगस्त, 2019 का फैसला उनकी अदूरदर्शिता की मिसाल है, जिन्होंने सोचे-समझे बिना ऐसा किया। इसका लोगों पर क्या असर पड़ेगा, यह भी नहीं सोचा। यह कश्मीरीयत के लोकाचार पर हमला है। सिर्फ कश्मीरी लोकाचार ही नहीं, देखिए लद्दाख में क्या हो रहा है। मुझे याद है कि अनुच्छेद 370 रद्द होने से बहुत पहले लेह में केंद्र शासित प्रदेश की मांग करने वाली पार्टियों के साथ आंदोलन हुए थे। आज वे जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्य के साथ फिर से जुड़ने की मांग कर रहे हैं। वे सड़कों पर हैं। उनका कहना है कि वे जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्य में बेहतर थे। शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में भी वे भूख हड़ताल पर हैं। वे राज्य का दर्जा मांग रहे हैं। जम्मू में लोग सड़कों पर हैं और कह रहे हैं कि उनके पास कोई काम-धंधा नहीं है, कोई रोजगार सुरक्षा नहीं है और उनकी जमीन की कोई सुरक्षा नहीं है। कश्मीर में लोगों ने चुप्पी साध रखी है। अगर वे चुप्पी को सामान्य समझ रहे हैं, तो उन्हें इस भ्रम में रहने दें।
कश्मीर में आम चुनाव के नतीजों को आप कैसे देखते हैं? चुनाव आयोग का कहना है कि पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोग वोट देने के लिए बाहर आए।
यह सच है कि लोग वोट देने के लिए बाहर आए। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। अगर आप चुनाव आयोग का रिकॉर्ड देखें, तो जम्मू-कश्मीर में पहले भी मतदान का प्रतिशत अधिक रहा है। लेकिन सवाल यह है कि भाजपा ने चुनाव नहीं लड़ा। वे यहां चुनाव नहीं लड़ सकते क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने कुछ नहीं किया है और उन्हें कोई वोट नहीं मिलेंगे। वे चुनाव से दूर रहें।
राजनैतिक दल चुनाव परिणाम को कैसे देख रहे हैं?
अनुच्छेद 370 हटाए जाने के कुछ महीने बाद, केंद्र सरकार कश्मीर में यूरोपीय और अमेरिकी राजनयिकों का एक प्रतिनिधिमंडल ले आई। एक स्वागत समारोह आयोजित किया गया था। लेकिन मुख्यधारा की किसी भी पार्टी को बैठक में नहीं बुलाया गया। उसकी कोशिश क्या थी? वह जम्मू-कश्मीर की राजनीति को बदलने की कोशिश थी। लेकिन जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियों को बदलने की उन कोशिशों का क्या हुआ? वे कहीं नहीं हैं। वे लोग कहीं नहीं हैं। मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियां जम्मू-कश्मीर में हैं, जैसे देश के दूसरे हिस्सों में और पार्टियां हैं। भाजपा हमेशा कहती है कि यहां कमल खिलेगा। यहां कमल खिलता है लेकिन वह भाजपा और उसके समर्थकों का नहीं है। यह असली कमल है जो डल झील में खिलता है।
पुनर्गठन कानून के तहत बहुत सारे आदेश आ रहे हैं। हाल ही में उप-राज्यपाल को ज्यादा अधिकार दिए गए हैं। आप इसे कैसे देखते हैं?
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून क्या है? यह कश्मीर को उसकी तवारीख से अलग करने का हिस्सा है। हालिया आदेश उसी का हिस्सा है। लोगों को उनके राजनैतिक संबंधों से अलग करना है, जो लोगों के प्रतिनिधियों को ज्यादा ताकत दे रहे थे। यह ताकत उन लोगों के हवाले की जा रही हैं, जो चुने नहीं गए हैं। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में परिसीमन किया और जनसंख्या के बजाय भूगोल को चुनावी पुनर्संयोजन का आधार बनाया, जिससे छह सीटें जम्मू को और एक कश्मीर को मिलीं। उन्होंने वोटरों को बांटने के लिए जम्मू के राजौरी-पुंछ जिलों को दक्षिण कश्मीर का हिस्सा बनाकर एक दक्षिण कश्मीर सीट बनाई। संसदीय चुनाव में, मुख्यधारा के राजनैतिक दलों को बांटने और उन्हें कमजोर करने की परियोजना नाकाम हो गई। हममें से कुछ लोग कह रहे हैं कि विधानसभा चुनाव क्यों नहीं? पिछले पांच साल से वे राजनीति को ऐसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं कि भविष्य की किसी भी विधानसभा में भाजपा का कमल ताकत बन जाए। ऐसा नहीं हो रहा है और निकट भविष्य में भी ऐसा नहीं होने वाला है, भले ही उन्होंने पांच और मनोनीत सीटें बनाई हों, उन पांच सीटों पर उप-राज्यनपाल मनोनीत करेंगे।
एनिमि एजेंट कानून को लागू करने के बारे में क्या कहना है?
हमारे पास पहले से ही यूएपीए और अन्य कड़े कानून हैं। अब, वे एनिमि एजेंट कानून की बात कर रहे हैं। लेकिन सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) को अक्सर भुला दिया जाता है। मैं 1979 में पीएसए के तहत गिरफ्तार होने वाला पहला व्यक्ति था। पहले के भूमि कानूनों को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन पीएसए को बरकरार रखा गया है। यह कानून, जो मूल रूप से जम्मू-कश्मीर का कानून है, बरकरार रखा गया है क्योंकि यह उन्हें प्रिय है और इसके तहत वे बिना सोचे-समझे किसी पर भी मामला दर्ज कर लेते हैं। यहां तक कि इनमें से ज्यादातर मामलों को बाद में अदालतों ने खारिज कर दिया है।
विधानसभा चुनाव कब तक होंगे?
भाजपा दावा कर रही है कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल हो गई है, जो कभी नहीं थी। दरअसल, अनुच्छेद 370 को हटाने को सही ठहराने के लिए सामान्य हालात की मिसाल पेश की जाती है। फिर भी उन्होंने विधानसभा चुनाव नहीं कराए। आप कह रहे हैं कि पहली बार लोगों ने 2020 में जिला विकास परिषद के चुनावों या 2024 में संसदीय चुनावों में भाग लिया है, जबकि सच्चाई यह है कि लोग पहले भी अच्छी संख्या में और बहुत अधिक मुश्किल परिस्थितियों में मतदान करते रहे हैं। 2014 के संसदीय और विधानसभा चुनावों के आंकड़े देखें। फिर भी वे विधानसभा चुनाव कराने से बचते हैं। अब हमारे पास जम्मू में हालात कुछ और हैं। मेरा कहना है कि घुसपैठ को रोका और उस इलाके की बाड़बंदी मजबूत की जाए। इसके बजाय, आप जम्मू में कश्मीर मॉडल लागू करने की बात कर रहे हैं। अगर कल कश्मीर में कुछ होता है, तो क्या आप जम्मू मॉडल लागू करेंगे? उन्होंने अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद भी जम्मू-कश्मीर को भारतीय लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनाया है। अगर वे ऐसा करते तो हालात इतने आगे नहीं बढ़ते। भारत के चुनावी इतिहास में यह अभूतपूर्व है कि सुप्रीम कोर्ट को जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को निर्देश देना पड़ा है। अभी भी कोई नहीं जानता कि क्या होगा, कब होगा चुनाव।