इंटरव्यू/शिवानंद तिवारी: ‘वंचितों के हक के लिए जरूरी’
“राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी का मानना है कि पिछड़ों और अति पिछड़ों को उपेक्षित कर न राजनीति की जा सकती है न देश का विकास”
राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी का मानना है कि पिछड़ों और अति पिछड़ों को उपेक्षित कर न राजनीति की जा सकती है न देश का विकास। जाति आधारित जनगणना से समाज समरस होगा और सहिष्णुता बढ़ेगी। तिवारी के अनुसार भाजपा भी जाति की राजनीति करती है और इसी के तहत नरेन्द्र मोदी को गुजरात में लांच किया गया। आउटलुक के लिए संजय उपाध्याय के साथ उनकी बातचीत के मुख्य अंशः
क्या जाति आधारित जनगणना आवश्यक है?
हां। विभिन्न नेता जो संख्याबल बताते हैं उस पर विवाद होता रहता है। इससे तो विवाद पर भी विराम लगेगा। खासकर हिंदी पट्टी में जातियों की भी उपजातियां हैं। उस गणित से उनका प्रतिनिधित्व अथवा हक तो मिलेगा। आर्थिक हैसियत का भी इसमें ध्यान रखा गया है। अब भी पिछड़ी जातियों में हीनता का भाव है। यह उनसे बातचीत करने से पता चलता है।
क्या आपको नहीं लगता कि इससे समाज में सहिष्णुता घटेगी या नए विवाद होंगे?
जब समाज समरस होगा तो सहिष्णुता कैसे घटेगी। लोगों के पास वास्तविक आंकड़े होंगे। इससे तो सहिष्णुता बढ़नी चाहिए। सच जानने का अधिकार तो है। इस पर ना-नुकुर भाजपा वाले करते हैं क्योंकि वे जाति, उपजाति और गोत्र तक की राजनीति करते हैं। लोहिया या आंबेडकरवादियों को इससे कभी इनकार नहीं रहा।
पहले भाजपा ने जाति जनगणना का विरोध किया, फिर यू-टर्न ले लिया। इसकी वजह?
उन्हें भी पिछड़ों और अति पिछड़ों की ताकत का अंदाजा है। जाति भारतीय समाज की कठोर सच्चाई है। पिछड़ी जातियां जागृत हो रही हैं। भाजपा को तो इसलिए भी जाति आधारित जनगणना में आना था क्योंकि विधानसभा में जब सर्वसम्मति से यह पारित हुआ तो उसमें वह थी। भाजपा भी जाति की राजनीति करती है। तभी तो नरेन्द्र मोदी को गुजरात में लांच किया गया। उनके मुख्यमंत्री रहते ही गोधरा का दंगा हुआ। तब से राजनीति को एक साजिश के तहत टर्न देकर हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेला जाने लगा। अभी कानपुर में जो हिंसक वारदात हुई, उसमें भी भाजपा का नाम आया। सोशल मीडिया पर एक धर्म विशेष को टारगेट कर उत्तेजक बातें की जाती हैं, गालियां दी जाती हैं। जब खाड़ी देशों की भृकुटि तनी तब संतुलन बनाने की कोशिश की जाने लगी।
जनगणना को लेकर कई अयोग गठित हुए, लेकिन अभी तक परिणाम कुछ नहीं निकला?
पहली ओबीसी कमेटी 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुई थी जिसकी रिपोर्ट 1955 में आई। उसमें तकनीकी और प्रोफेशनल कोर्स में 70 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई थी, पर वह ठंडे बस्ते में पड़ी रही। 1961 की जनगणना भी जाति आधारित होनी थी पर राजनीति हो गई। कालेलकर समिति की ड्राफ्टिंग कमेटी के मेंबर जवाहरलाल नेहरू से मिले भी थे, पर परिणाम कुछ नहीं आया।
बिहार में जाति जनगणना का मॉड्यूल क्या होगा? नीतीश सरकार खुद स्वीकार करती है कि राज्य में अफसरों और कर्मचारियों की भारी कमी है। ऐसे में जाति जनगणना का विशाल कार्य कैसे होगा? फरवरी 2023 में तो रिपोर्ट सौंप देनी है।
सवाल तो वाजिब है। पर इन टेक्निकल बातों में मुझे मत उलझाइए। जाति जनगणना इसलिए भी जरूरी है कि वंचितों को उनका हक मिले। अब भी कई ऐसी जातियां हैं जिन्हें हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है। एक सभ्य और विकसित समाज में ऐसा होना उचित है क्या?
भाजपा को आशंका है कि बांग्लादेशी और रोहिंग्या शरणार्थियों को जाति जनगणना में शामिल न कर लिया जाए।
यह सब एक स्टंट है। हिंदुओं को मुसलमानों के नाम पर डराया जा रहा है, मुसलमानों को खूनी बताया जा रहा है। जब कश्मीर में हिंदू पंडित नहीं रहना चाहते तो उन्हें जबरन कॉलोनी बना कर रखा जा रहा है, और कहा जा रहा है कि उनकी टारगेटेड किलिंग हो रही है। सच तो यह है कि वे वहां भय और दहशत के साये में जी रहे हैं। राजा हरि सिंह के काल का कश्मीर अब थोड़े ही रह गया है। एक विकृत मानसिकता के तहत देश को अंधेरे युग में ले जाया जा रहा है। गुजरात में 8-10 प्रतिशत मुस्लिम हैं। घर से बाहर निकलने के बाद उनकी सलामती के लिए परिजन दुआएं करते हैं। गोधरा कांड लोग भूले नहीं हैं। दंगे में मारे गए लोगों की लाशें प्रोटोकॉल के खिलाफ ले जाई जा रही थीं जिससे दहशत व्याप्त हो जाए। यह दहशत से वोट लेने की विकृत मानसिकता है।