इंटरव्यू : सुखद था वह क्षण जब गुलजार साहब ने मुझसे ऑटोग्राफ मांगा था, बोले कथाकार चरण सिंह पथिक
विलियम शेक्सपीयर के दुखांत नाटकों का सिनेमाई रूपांतरण करने वाले मशहूर फ़िल्म निर्देशक विशाल भारद्वाज की फिल्म "पटाखा" से शुरूआत करने वाले कथाकार चरण सिंह पथिक हिन्दी साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण नाम हैं। फिल्म के निर्माण के दौरान जहां विशाल भारद्वाज ने चरण सिंह पथिक को आज के दौर का प्रेमचंद कहा तो वहीं हिन्दी सिनेमा के महान गीतकार गुलजार ने चरण सिंह पथिक से उनका ऑटोग्राफ मांगा। फिल्म "पटाखा" के बाद लेखक चरण सिंह पथिक ने फिल्म "कसाई", "मूसो" में काम किया। इसके साथ ही उनकी कहानी पर शॉर्ट फिल्म "लाठी" का निर्माण किया गया है। अभी कुछ दिन पहले चरण सिंह पथिक की नई फिल्म "आंटा - सांटा" का पोस्टर रिलीज हुआ है। राजस्थान के करौली जिले के रौँसी गांव में रहने वाले चरण सिंह पथिक से उनके जीवन, लेखन और फिल्मी करियर को लेकर आउटलुक से मनीष पाण्डेय ने बातचीत की।
साक्षात्कार से मुख्य अंश :
अपनी आगामी फिल्म "आंटा - सांटा" के बारे में कुछ बताइए?
अभी फिल्म का ट्रेलर आने वाला है इसलिए इतना ही बता सकता हूं कि "आंटा -सांटा" हमारे समाज में व्याप्त एक कुरीति पर आधारित फिल्म है। इसके अनुसार किसी परिवार की पुत्री/पुत्र से विवाह करने के लिए आपको अपने परिवार की विवाह योग्य पुत्र/पुत्री का उनके परिवार में विवाह कराना होगा। अदला बदली कह सकते हैं आप इसे। इसी थीम पर है फिल्म।
अपने शुरुआती सफर के बारे में बताइये, क्या आप बचपन से ही लेखक बनना चाहते थे ?
नहीं। बचपन से ही मुझे क्रिकेट खेलना बहुत ज़्यादा पसंद था। मैं खूब क्रिकेट खेला करता था।मुझे राजस्थान की रणजी टीम में शामिल होना था। लेकिन कुछ पारिवारिक परिस्थितियां रहीं, जिसके कारण क्रिकेटर बनने का सपना छूटता रहा। जवान हुए तो फ़िल्मों का शौक़ पैदा हुआ।दोस्तो से सुना कि मैं एक्टर बन सकता हूं तो ठान लिया कि अब एक्टर ही बनना है। मुझे किसी ने बताया कि ये जितने भी आम आदमी जैसे दिखने वाले अभिनेता हैं चाहे ओम पुरी हों या नसीरुद्दीन शाह, ये सब नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा और पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूट से पढ़े हुए हैं। मैंने दोनों जगह प्रयास किया लेकिन असफल रहा। इसका कारण यह था कि इन जगहों पर दाखिले के लिए स्नातक होना जरूरी था लेकिन मैं तब कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था। जब सब कुछ अधूरा रह गया तो भीतर एक कोफ्त उठने लगी। मेरे भीतर भावनाओं का एक ज्वालामुखी फूटने के लिए बेचैन हो रहा था। तब मैंने कविताएँ और कहानियां लिखने शुरू की। शुरुआत में अधिकतर रचनाएँ जो मैं प्रकाशित होने के लिए भेजा करता, वह यूं ही वापस आ जाया करती थीं। फिर एक बार, मेरी एक कविता राजस्थान पत्रिका में छपी। फिर लगातार राजस्थान पत्रिका, नव ज्योति में मेरी कविताएँ छपती रहीं।नव ज्योति, जयपुर के तत्कालीन संपादक यशवंत व्यास से मुलाक़ात हुई, जहाँ उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे कहानियां लिखनी चाहिए। तब मैं कहानी लेखन में अधिक सक्रिय हो गया। मैंने पहली कहानी लिखी, जिसका नाम था "बक्खड़"। नव ज्योति ने एक कथा प्रतियोगिता का आयोजन किया तो मैंने उसमें अपनी कहानी " बक्खड़" भेजी।ज्ञान रंजन, अरुण प्रकाश, राजेन्द्र यादव जैसे बड़े पत्रकारों के निर्णायक मंडल ने कुल 450 कहानियों को पढ़ने के बाद, मेरी कहानी "बक्खड़" को प्रथम पुरस्कार के लिए चुना। इस तरह मैं कहानी लेखक के लिए लोकप्रिय हुआ। तब से आज तक लिखने की सतत प्रक्रिया चल रही है।
विशाल भारद्वाज से आपकी मुलाकात कैसे हुई, फिल्म "पटाखा" के बनने का किस्सा बताइए?
साहित्य अकादमी से एक पत्रिका छपती है "समकालीन भारतीय साहित्य"। सन 2006 में मेरी कहानी "दो बहनें" उसमें छपी।सन 2011 में यह कहानी विशाल भारद्वाज ने पढ़ी तो वह प्रभावित हुए। तब उनके असिस्टेंट ने मुझे फ़ोन किया।बातचीत के बाद, मैंने अपने कहानी संग्रह "बात ये नहीं है" और "पीपल के फूल" विशाल भारद्वाज को भेज दिए।सन 2012 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मैं कहानी पढ़ने गया था। मुझे पता चला कि फेस्टिवल में विशाल भारद्वाज आए हैं। मैं उनसे मिला तो विशाल भारद्वाज ने कहा "मज़ा आ गया आपसे मिलकर, ऐसा लगता है मुझे मेरा भाई मिल गया है,हम साथ में फिल्म ज़रूर करेंगे"। कुछ समय बाद विशाल भारद्वाज का कॉल आया और उन्होंने मुझे मुंबई बुलवा लिया। मैं मुंबई पहुंचा तो विशाल जी ने मुझसे "दो बहनें" कहानी को फिल्म की कहानी के रुप में विकसित करने के लिए कहा। फिर मैंने कहानी पर काम किया और उसे 120 पन्नों में विस्तार दिया। विशाल भारद्वाज फिर मेरे गांव रौंसी आए और उन्हें जगह इतनी पसंद आई कि उन्होंने फिल्म पटाखा की शूटिंग राजस्थान में मेरे गांवके पास माउंट आबू में हुई। इस तरह बनी फिल्म "पटाखा"।
गुलजार साहब से मिलने का अनुभव साझा कीजिए ?
मैं 2012 जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कहानी पढ़ने गया था।
मैंने अपनी कहानी " फिरनेवालियाँ" पढ़ी। जैसे ही कहानी खत्म हुई, गुलज़ार साहब ने मुझे आगे बढ़कर, गले से लगा लिया। उन्होंने मेरी किताब "पीपल के फूल", जिस किताब से मैंने कहानी " फिरनेवालियाँ" पढ़ी थी, मांग ली। मैं जब उन्हें किताब देने लगा तो उन्होंने कहा "ऐसे नहीं, इसमें आज की तारीख लिखकर, अपना ऑटोग्राफ दो"। यह जीवन का सुंदर लम्हा था।
हिन्दी साहित्य में भी आपने खूब काम किया है, आपके कहानी संग्रह पसन्द किए गए हैं, फ़िल्म लेखन और साहित्यिक लेखन में किसको कठिन मानते हैं?
दोनों ही अपनी अपनी जगह चुनौतीपूर्ण हैं। फ़िल्म के लिए लिखते वक़्त आपको निर्देशक की ज़रूरतों का ख्याल रखना होता है।फ़िल्म एक विज़ुअल मीडियम है, जहाँ बहुत सी चीज़े भावों से कही जाती हैं। यानी सब कुछ लिखने और बोलने की ज़रूरत नहीं होती। वहीं अगर बात साहित्यिक कहानी की करें तो आप उसके निर्माता होते हैं। आपको कोई बंधन नहीं होता। आप जिस तरह से, भाषा, शिल्प, बिम्बों के ज़रिये संवाद करना चाहते हैं, कर सकते हैं।
जीवन का क्या फलसफा है आपका?
ज़िंदगी को मैं वैसे ही देखता हूँ, जैसी ये है। कोमल भी और क्रूर भी। आपको जीवन से लड़ना नहीं है, आपको सर नहीं पटकना इसके सामने।आपको बस मजबूती से खड़े रहना है और इसके हर एक वार का सामना करना है। आप देखेंगे कि वक़्त के साथ आप हर चुनौती के लिए, हर संघर्ष के लिए तैयार हो गये हैं।आपको हर दर्द, हर तकलीफ़ में भी एक सुख का अनुभव होगा।
ओटीटी माध्यम को किस तरह से देखते हैं?
मैं इसे सकारात्मक रूप से देखता हूँ। आज अच्छी कहानियों को मंच और दर्शक मिल रहे हैं। कलाकारों को उचित अवसर और पैसे मिल रहे हैं। लम्बे समय तक सिनेमा व्यवसायी और कारोबारी लोगों के हिसाब से बनता रहा है। अभी जैसे जैसे युवा और कलात्मक सोच वाले लोग फ़िल्म,टीवी के क्षेत्र में आएंगे, स्थिति और बेहतर होती चली जाएगी। तब बाजार के लिए प्रोडक्ट नहीं मनुष्य के सुख के लिए कला का भी सृजन होगा।
युवा लेखकों को आप क्या कहना चाहेंगे ?
अच्छे लेखन के लिए साहित्यिक ज्ञान जरूरी है। युवाओं से कहूंगा कि साहित्यिक बुनियाद मज़बूत बनाओ।खूब पढ़ो. भारतीय और विश्व साहित्य का अध्ययन करो।तभी एक मज़बूत नींव बनेगी।चीज़ों को सतही तौर पर मत देखो, उसकी गहराई में जाओ और फिर विश्लेष्ण करो, यह कला पढ़ने से ही आएगी।खूब घूमो, लोगों से संवाद करो, जीवन को क़रीब से देखो। क्योंकि लेखन अनुभव करने का खेल है। जब लोगों से मिलोगे, ज़मीन को महसूस करोगे, तभी लेखन में मौलिकता नज़र आएगी। इसके बिना कुछ लिखोगे तो वह झूठ, छलावा होगा, जिसका असर कुछ दिन में ही उतर जाएगा।