इंटरव्यू - रामवीर तंवर: पानी के प्रहरी पॉंडमैन की प्रेरक यात्रा
पिछले कुछ वर्षों में पर्यावरण चेतना के क्षेत्र में भारत में कई प्रेरक हस्तियों ने काम किया है। उनमें से एक नाम है — रामवीर तंवर। एक साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर उन्होंने असाधारण काम किए हैं। “पॉन्डमैन ऑफ इंडिया” के नाम से मशहूर रामवीर तंवर ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद अपने जीवन को पूरी तरह जल संरक्षण और पारिस्थितिकी के पुनर्जीवन के लिए समर्पित कर दिया। छह राज्यों में 80 से अधिक जलाशयों के पुनर्जीवन, दिल्ली-एनसीआर में 6 शहरी वनों की स्थापना, और ‘वेस्ट टू वेल्थ’ जैसी पहल के जरिए उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में नई मिसाल कायम की है। लेखक वीरेंद्र कुमार ने रामवीर तंवर से एक विस्तृत बातचीत की है। बातचीत में रामवीर तंवर के सफर, चुनौतियों और सपनों पर खुलकर चर्चा की गई है।
साक्षात्कार से संपादित अंश :
“आपकी जल संरक्षण यात्रा कैसे शुरू हुई? क्या कोई ऐसी घटना थी, जिसने आपको तालाबों और पर्यावरण के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया?”
हमारी यात्रा तब शुरू हुई जब हम स्वयं छात्र थे।जहाँ तक तालाबों और पर्यावरण से जुड़ाव की बात है, यह किसी एक घटना से नहीं, बल्कि धीरे-धीरे एक गहरी अनुभूति से विकसित हुआ।दरअसल, जब मैं दसवीं के बाद अपने गाँव में था, तो वहाँ लगभग 10-15 भैंसें थीं। मेरा काम था कि स्कूल से लौटने के बाद उन्हें चराने के लिए जंगल ले जाना। प्लास्टिक का एक बोरा साथ होता जिसमें किताबें रखता और फिर जंगल में पढ़ाई करता। उस रास्ते में एक नहर आती थी, जो उस समय काफी स्वच्छ और चौड़ी थी। उसे पार करते समय कई बार भैंसें पानी पीने रुक जातीं, और हम भी नहर में खेलते-तैरते थे।तैरना भी मैंने वहीं सीखा — भैंसों के साथ नहर पार करते-करते। कभी कोई अपनी बकरी लेकर आता, तो कोई भैंस या सूअर। वह नहर, पास के तालाब, और साफ पानी की वह दुनिया — ये सब मेरे बचपन की खूबसूरत यादों से जुड़ गए।लेकिन जैसे-जैसे हम ग्रेजुएशन के लिए गाँव से बाहर आए, लगभग 5-10 साल के भीतर हालात बदलने लगे। वह नहर जो कभी जीवनदायिनी थी, गंदे नाले में बदल गई। तालाबों में कचरा भरने लगा।यह बदलाव देखकर भीतर एक टीस उठी — एक गहरा जुड़ाव था इन जल स्रोतों से। सवाल उठने लगे कि हमारी प्राकृतिक जलसंपदाएँ क्यों नष्ट हो रही हैं? क्या हम इसे रोक नहीं सकते? इसी सोच ने धीरे-धीरे दिशा दी। फिर आगे चलकर एक जलाधिकारी एनपी सिंह जी से संपर्क हुआ। उन्होंने हमारा काम देखा और ‘जल चौपाल’ नाम से इसे एक औपचारिक पहचान दी।उन दिनों हमारे एक मित्र ने एक छोटी-सी डॉक्यूमेंट्री भी बनाई, जो स्थानीय सिनेमाघरों में दिखाई गई। यह एक तरह से शुरुआत थी — इसके बाद हमने सोशल मीडिया के ज़रिए जागरूकता फैलानी शुरू की और विभिन्न परियोजनाओं जैसे ग्लास अपसाइक्लिंग, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट आदि में भी काम किया।इस तरह से एक विद्यार्थी के व्यक्तिगत जुड़ाव से शुरू हुई यात्रा आज एक व्यापक सामाजिक आंदोलन का रूप ले चुकी है।
“प्राकृतिक तालाबों और जल संसाधनों की सफाई या पुनर्जीवन (रिजुवनेशन) में सबसे बड़े चुनौतियाँ क्या हैं? और आप उनसे कैसे निपटते हैं?”
देखिए, जब भी आप कोई अच्छा काम करने जाते हैं, तो चुनौतियाँ तो आती ही हैं। प्राकृतिक तालाबों और जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने में भी हमें कई स्तरों पर कठिनाइयाँ आईं।सबसे पहली चुनौती होती है — लोगों का विश्वास जीतना।बहुत से लोग मानते ही नहीं थे कि तालाब फिर से जिंदा हो सकता है या उसमें कोई काम किया जा सकता है। पहले उन्हें यह भरोसा दिलाना पड़ता था कि परिवर्तन संभव है और हम मिलकर इसे कर सकते हैं।विश्वास बनाना ही हमारी पहली और बड़ी चुनौती थी।दूसरी बड़ी चुनौती थी — एक समर्पित टीम बनाना।ऐसे लोग खोजना जो बिना किसी बड़े वेतन या सुविधाओं के भी पूरी निष्ठा से काम करें — यह भी आसान नहीं था। फिर भी धीरे-धीरे हम कुछ अच्छे लोगों को साथ जोड़ पाए।तीसरी सबसे बड़ी चुनौती थी — संसाधनों की कमी।हमारे पास न पैसा था, न मशीनें थीं और न ही पर्याप्त मानव संसाधन।तालाब तक पहुँचने के लिए बाइक चाहिए, सफाई के लिए उपकरण चाहिए, और ईंधन भी चाहिए। लेकिन हमारी तनख्वाह इतनी नहीं थी कि हम इन सबका खर्च उठा सकें। फिर भी हमने बिना संसाधनों के छोटे-छोटे कदम उठाते हुए काम शुरू किया।धीरे-धीरे कुछ चुनौतियाँ हम सुलझाने लगे। कुछ में हमने अनुकूलन सीखा और कुछ स्वतः ही आसान होती गईं।आज स्थिति ये है कि हम तालाबों को पुनर्जीवित करना सीख गए हैं — 40से 50 प्रतिशत तक सफल भी हुए हैं।लेकिन अब सबसे बड़ी चुनौती कुछ और है — मानसिकता (Mindset) बदलना।तालाब तो एक साल में साफ हो सकता है, लेकिन लोगों की सोच — जो पिछले 50 सालों में बिगड़ी है — उसे बदलने में बहुत समय लगेगा।अगर आसपास के लोग फिर से उसमें कचरा डालने लगें, तो हमारी सारी मेहनत व्यर्थ हो जाएगी।इसलिए आज हमारी सबसे बड़ी चुनौती है — तालाबों को दीर्घकालीन (सस्टेनेबल) तरीके से साफ और सुरक्षित बनाए रखना।सिर्फ पुनर्जीवित करना काफी नहीं है, जब तक हम लोगों की आदतें और सोच नहीं बदलेंगे, तब तक तालाबों की सफाई स्थायी नहीं रह सकती।यही लड़ाई सबसे कठिन और सबसे महत्वपूर्ण है।
‘पोंड मैन’ कहे जाने के पीछे की कहानी क्या है? और आपको यह उपाधि किसने दी? क्या यह पहचान आपके मिशन को आगे बढ़ाने में सहायक रही है?”
‘पॉंडमैन’ शब्द सबसे पहले मज़ाक में इस्तेमाल हुआ था। जब मैं अपनी जॉब के दौरान ऑफिस में बैठा करता था, तो मेरे एक दोस्त, राहुल, जो मेरे बगल में बैठता था, अक्सर मुझे ‘पॉंडमैन’ कहकर बुलाया करता था।उस समय तो यह महज़ एक हंसी-मज़ाक का हिस्सा था। एक बार एक पत्रकार ने मुझसे पूछा कि आपको क्या कहलवाना पसंद है? मैंने सहजता से कहा कि मेरा नाम ही ठीक है, लेकिन कुछ साथी मज़ाक में मुझे ‘पॉंडमैन’ कहते हैं।उस पत्रकार ने फिर अपने लेख में मुझे ‘पॉंडमैन’ के नाम से ही उल्लेखित कर दिया।सबसे बड़ी घटना तब घटी जब अक्टूबर 2021 में माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मेरा जिक्र किया। उन्होंने लगभग दो मिनट तक मेरे कार्यों और ‘पॉंडमैन’ उपाधि का उल्लेख किया।यह मेरे लिए बहुत बड़ा आश्चर्य और सम्मान का क्षण था। इसके बाद तो हर मीडिया रिपोर्ट, टीवी चैनल, और सोशल मीडिया पर मुझे ‘पॉंडमैन’ के रूप में पहचान मिलने लगी।मैंने भी अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल में ‘पॉंडमैन’ लिखना शुरू कर दिया।सबसे बड़ी खुशी मुझे इस बात से मिलती है कि मेरी पहचान मेरे नाम से नहीं, बल्कि मेरे काम से बनी है।यह सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता है कि उनका काम ही उनकी पहचान बन जाए।‘पॉंडमैन’ — यानी ‘तालाबों के लिए काम करने वाला व्यक्ति’ — यही मेरी असली पहचान है।गूगल पर अगर आप ‘पॉंडमैन’ सर्च करें, तो आपको हजारों लेख, रिपोर्ट्स, और जानकारियाँ मिलेंगी। यह अपने आप में एक उपलब्धि है।अब हम जहाँ भी कोई तालाब पुनर्जीवित करते हैं, वहाँ एक स्थानीय युवा को छह महीने की ट्रेनिंग भी देते हैं।ट्रेनिंग पूरी होने के बाद हम उसे ‘पॉंडमैन’ या ‘पॉंड वॉरियर’ का प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट) देते हैं।हमारा सपना है कि हर गाँव में एक ‘पॉंडमैन’ हो, ताकि भले ही हम रहें या न रहें, यह कार्य चलता रहे और जल संरक्षण की यह मुहिम आगे बढ़ती रहेगी।
“क्या आपको लगता है कि आज की पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता बढ़ रही है?”
देखिए, आज की पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता तो बढ़ रही है, लेकिन साथ ही साथ नुकसान भी बढ़ रहा है।मतलब, हमारा कार्बन फुटप्रिंट भी लगातार बढ़ रहा है।आज हम पर्यावरण को लेकर खूब बातें कर रहे हैं, जागरूकता फैला रहे हैं, लेकिन उसी के साथ हम बहुत अधिक नुकसान भी पहुँचा रहे हैं।पहले के समय में लोग कम बातें करते थे, लेकिन नुकसान भी कम करते थे। आज के समय में बातें ज्यादा हैं, शब्दावली ज्यादा है — जैसे सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals), जलवायु परिवर्तन (Climate Change), वैश्विक ऊष्मीकरण (Global Warming), हीट वेव्स, ESG जैसे सैकड़ों कॉर्पोरेट शब्द।इन सब शब्दों की भरमार से लगता है कि बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन वास्तविकता में कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ रहा है।हम बहुत अधिक कपड़े खरीदते हैं, गाड़ियों का उपयोग बढ़ गया है।मैं स्वयं भी इससे अछूता नहीं हूँ।कहीं न कहीं, हम सब पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं।लेकिन एक सकारात्मक बात यह है कि आज छोटे-छोटे बच्चे भी स्कूलों में जलवायु परिवर्तन, वेटलैंड्स, और ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।यह एक अच्छी शुरुआत है।जब आने वाली पीढ़ी इन विषयों को लेकर जागरूक होगी, तभी बड़े स्तर पर बदलाव आएगा।किसी भी सामाजिक परिवर्तन का पहला चरण होता है — चर्चा।आज हम सेमिनार, वेबिनार, कार्यशालाओं में इन विषयों पर खूब चर्चा कर रहे हैं।यह इस बात का संकेत है कि परिवर्तन की बातें शुरू हो गई हैं।जहाँ पहले हमारी चर्चा ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ तक सीमित थी, अब उसमें पर्यावरण भी एक महत्वपूर्ण विषय बन चुका है।हालांकि, इन सेमिनारों और आयोजनों से भी कुछ हद तक पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है, लेकिन फिर भी संवाद आवश्यक है, क्योंकि संवाद के बिना परिवर्तन संभव नहीं है।पिछले 5-10 वर्षों में इस संवाद ने तेज़ी से गति पकड़ी है।अब समय आ गया है कि इस संवाद को ‘कार्रवाई’ (Action) में बदला जाए।अब सिर्फ ‘Climate Change’ की बातें नहीं, बल्कि ‘Climate Action’ की ज़रूरत है।हमें खुद बदलाव लाना है, इंतज़ार नहीं करना है।तो कुल मिलाकर कहूँ तो — हाँ, आज की पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह संवेदनशीलता केवल सोशल मीडिया या चर्चाओं तक सीमित न रह जाए, बल्कि जमीन पर भी दिखाई दे।
आपने अभी तक कितने तालाबों का पुनर्जीवन किया है? और इससे पर्यावरण या जैव विविधता में क्या सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिले हैं?”
अब तक हम सौ से अधिक तालाबों के पुनर्जीवन कार्य का हिस्सा बन चुके हैं।मैं ‘हिस्सा’ इसलिए कहता हूँ क्योंकि यह एक सामूहिक प्रयास है — पूरी टीम मिलकर काम करती है, मैं केवल नेतृत्व और समन्वय का कार्य करता हूँ।इन प्रयासों से बहुत सारे सकारात्मक बदलाव देखने को मिले हैं।पहले कई तालाब ऐसे थे जहाँ भैंसें जातीं तो दलदल में फँस जाती थीं और जान बचाना मुश्किल हो जाता था। बच्चे भी उन तालाबों के पास जाने से डरते थे क्योंकि वहाँ गंदगी और दलदल का भय था।आज वही तालाब बच्चे खुशी से नहाने के लिए जाते हैं, भैंसें भी आराम से पानी पीती और तैरती हैं। यह देखकर दिल को गहरा सुकून मिलता है।हम हर तालाब के पुनर्जीवन में एक विशेष कार्य करते हैं — हम तालाब के बीचोंबीच एक बड़ा सा ‘आइलैंड’ या टापू बनाते हैं।इस टापू पर विशेष प्रकार की घास लगाई जाती है जो जलीय पक्षियों और अन्य छोटे जीवों के लिए आदर्श होती है।ये घासें पक्षियों को घोंसला बनाने, अंडे छिपाने और शरण लेने के लिए प्राकृतिक सुरक्षित स्थान देती हैं।किनारे पर तो बिल्लियाँ और कुत्ते अंडों को नुकसान पहुँचा सकते हैं, लेकिन टापू पर सुरक्षित माहौल मिलता है।इस प्रयास से जैव विविधता में शानदार बढ़ोतरी देखने को मिली है।भैंसें, मछलियाँ, जलीय पौधे, मेंढक, कछुए, और खासतौर पर प्रवासी पक्षी (Migratory Birds) — सर्दियों में दो से तीन महीनों के लिए आकर रुकते हैं, अंडे देते हैं, और फिर लौटते हैं।इससे एक प्राकृतिक फूड चेन पुनर्जीवित हो जाती है, जो स्थानीय पारिस्थितिकी को समृद्ध करती है। हमेशा ध्यान रखा जाता है कि हम केवल इंसानों के नजरिए से तालाब न देखें।आज जब हमारे घरों में पाइपलाइन से पानी पहुँच गया है, तो हम तालाबों की अहमियत भूल गए हैं।लेकिन हजारों-लाखों अन्य प्राणी आज भी अपने अस्तित्व के लिए इन प्राकृतिक जलस्रोतों पर निर्भर हैं।हमारे लिए यह सिर्फ एक सुविधा का प्रश्न है, लेकिन उनके लिए जीवन-मरण का।इसलिए हर तालाब को पुनर्जीवित करते समय हम यह सोचते हैं कि यह इंसानों के साथ-साथ अन्य जीवों के लिए भी एक घर है, एक जीवनरेखा है।
“अगर आपको नीति निर्माताओं या आम लोगों को कोई सन्देश देना है तो वह क्या होगा?”
मुझे नीति निर्माताओं या आम लोगों को कोई संदेश देना हो, तो मैं सबसे पहले यह कहूँगा कि —प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण को गंभीरता से लिया जाए, और केवल बजटीय प्रावधानों तक सीमित न रखा जाए।नीति निर्माताओं से मेरा निवेदन होगा कि:
● तालाबों और जलस्रोतों के पुनर्जीवन कार्यों को वित्तीय वर्ष (31 मार्च) की अनिवार्यता से न जोड़ा जाए।
● इसके बजाय, इन कार्यों को मानसून चक्र के अनुसार समयबद्ध किया जाए, ताकि बारिश से पहले अच्छे से डिसिल्टिंग, सफाई और पुनर्जीवन कार्य पूरे हो सकें।
● प्रत्येक तालाब परियोजना में दीर्घकालिक रख-रखाव (Maintenance) की व्यवस्था अनिवार्य रूप से हो, ताकि काम एक बार करके छोड़ा न जाए, बल्कि तालाबों को सहेजकर रखा जा सके।
मैं यह भी कहना चाहूँगा कि हम सबको, चाहे सरकार हो या समाज, यह स्वीकार करना चाहिए कि —हमारे पूर्वजों ने बिना किसी आधुनिक मशीन के, अपने श्रम और संवेदनशीलता से सुंदर तालाब बनाए थे।आज जब हमारे पास तकनीक है, फिर भी हम उन मूल्यों को भूल गए हैं।यह शिक्षा और विकास के गलत दिशा में जाने का प्रमाण है।आज ‘सस्टेनेबिलिटी’ के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, पर वास्तविक टिकाऊ विकास का अर्थ है —जितना प्रकृति से लिया जाए, उतना उसे लौटाया भी जाए।जहाँ पेड़ काटे जाएँ, वहाँ नए पेड़ लगें। जहाँ पानी लिया जाए, वहाँ जल स्रोत पुनर्जीवित किए जाएँ।
आम लोगों से मेरा संदेश है कि:
● छोटे-छोटे कार्यों से शुरुआत करें — पेड़ लगाएँ, जल स्रोतों की सफाई में भाग लें।
● जो लोग पर्यावरण के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं, उनका समर्थन करें — चाहे उपकरण दान देकर, पौधे देकर, या केवल उन्हें प्रोत्साहित करके।
● यदि संभव हो तो सोशल मीडिया, लेखन या कानूनी तरीकों से पर्यावरण संरक्षण की आवाज़ उठाएँ।
● यह समझें कि जल, जंगल और ज़मीन केवल हमारे नहीं हैं, बल्कि पूरी पृथ्वी के जीव-जंतुओं की साझा संपत्ति हैं। इन्हें बचाना हमारा सामूहिक दायित्व है।
COVID महामारी ने हमें यह सिखाया है कि जब मानव गतिविधियाँ रुकती हैं, तो प्रकृति स्वयं को पुनर्जीवित कर लेती है।हमें अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक स्वच्छ, सुरक्षित और जीवंत प्रकृति छोड़नी है —सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि हर जीव के लिए।