“फैन ही तो खेल की जान हैं”
आज भी सचिन तेंडुलकर की लोकप्रियता सिर चढ़कर बोलती है। उनके इंस्टाग्राम पर 2.37 करोड़, ट्विटर पर करीब 3.3 करोड़ और फेसबुक पर 2.8 करोड़ फालोअर हैं। आज भी भारत रत्न 47 वर्षीय क्रिकेटर को दर्शकों की भीड़ और शोर-शराबे के बिना सब फीका लगता है। लेकिन कोरोनावायरस के दौर में वे बदस्तूर मानते हैं कि खिलाड़ियों को खाली स्टेडियम में खेलने की कला सीखनी होगी। उन्होंने सौमित्र बोस से बातचीत में विस्तार से बताया कि उनके 24 साल के इंटरनेशनल करिअर में प्रशंसकों की हौसलाअफजाई के क्या मायने रहे हैं। प्रमुख अंशः
पाकिस्तान और वेस्ट इंडीज की टीमें जुलाई में इंग्लैंड के दौरे पर जाने वाली हैं। बुंदेसलिगा और प्रीमियर लीग चल रहे हैं लेकिन दर्शक नहीं हैं। क्या यह अजीब नहीं लगता है?
हां, वास्तव में। हम हमेशा भीड़ से भरे स्टेडियमों में खेल का मजा लेते रहे हैं। समूचे खेल जगत में यह महत्वपूर्ण हिस्सा है। निश्चित ही इससे झटका लगता है कि आप चलकर पिच पर पहुंच गए और आसपास कोई दिखाई न दे।
आपके लिए दर्शकों के क्या मायने होते थे?
वे मेरे लिए अहम हिस्सा थे। मुझे उनसे बहुत ऊर्जा मिलती थी। चाहे घरेलू मैदान हो या फिर विदेशी पिच, भीड़ प्रतियोगिता को रोचक बना देती थी। जब पूरा स्टेडियम भरा हो और भीड़ आपके साथ हो तो उत्तेजना कहीं ज्यादा होती है। अगर भीड़ आपके खिलाफ है तो आपको यह साबित करने की ज्यादा चाहत होती है कि आप बेहतर टीम हैं।
कोई उपलब्धि हासिल करने के बाद बल्ला उठाकर स्टेडियम में खड़े दर्शकों का अभिवादन और भीड़ का उत्साह बढ़ाने वाला शोर, अब बीती बातें हो जाएंगी...
सही कहा। प्रशंसकों की तारीफ न सिर्फ आपको आनंद देता है, बल्कि आपको और अच्छा करने के लिए उत्साहित करता है। प्रोत्साहन प्रदर्शन सुधारता है। जब आप बाउंड्री के लिए कवर ड्राइव को हिट करते हैं और भीड़ इसे पसंद करती है तो आप अगली गेंद को और अच्छा खेलना चाहते हैं। गेंदबाज के लिए भी ऐसा ही होता है। भीड़ जब आपके साथ होती है, तो आप हमेशा कुछ ज्यादा प्रयास करते हैं। प्रशंसकों के बिना खिलाड़ियों को मानसिक स्तर पर काफी कुछ एडजस्ट करना होगा।
क्या आपको कोई घटना याद है, जिसमें प्रशंसकों ने किसी खिलाड़ी का प्रदर्शन सुधार दिया हो?
हां, 2001 में चेन्नै में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ तीसरे टेस्ट में ऐसा दिखाई दिया। मार्च की भीषण गर्मी में चेपक में राहुल (द्रविड़) और मेरी अच्छी भागीदारी थी। ऑस्ट्रेलियाइयों को मौके की तलाश थी। वहां सिर्फ चार-पांच ऑस्ट्रेलियाई प्रशंसक थे जो जेसन गिलेस्पी का जोर-शोर से उत्साह बढ़ा रहे थे। वे शानदार खेल रहे थे। गिलेस्पी (जिसने तेंडुलकर और द्रविड़ दोनों को आउट किया) ने इतनी तेज गेंद फेंकी कि हमें पीछे हटना पड़ा। हमने ऑस्ट्रेलिया के लगातार जीत का रिकॉर्ड तोड़ते हुए टेस्ट मैच जीत लिया लेकिन प्रशंसक वास्तव में बड़ा अंतर लाते हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं, कि महान खिलाड़ियों में अपने प्रशंसकों से ध्यान हटाने की क्षमता होती है?
खेल पूरी तरह दिमाग से जुड़ा है। अप्रैल 1998 में शरजाह में डेजर्ट स्टॉर्म सीरीज थी। ‘स्टॉर्म’ डरावना था। हमें बेहद कड़ा संशोधित लक्ष्य (46 ओवर में 277) मिला था और मेरा लक्ष्य ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मैच जीतने का था। मैं जीत पर ध्यान दिए हुए था, उससे हमें फाइनल्स के लिए क्वालीफाई करने में (तेंडुलकर ने 131 गेंदों पर 143 रन बनाए थे) मदद मिलती। हमने क्वालीफाई किया। उस दिन मैंने सिर्फ गेंद की ओर देखा। मैं प्रशंसकों से खुद को अलग कर सका, क्योंकि मैं पूरी तरह अपने पर केंद्रित था। ये पल भी आते हैं।
भविष्य के बारे में क्या कहेंगे?
मैं मानता हूं कि गति से कहीं ज्यादा अहम है आपकी दिशा। सुरक्षित रहने के लिए गाइडलाइन का पालन महत्वपूर्ण है। खिलाड़ी निश्चित ही खाली स्टेडियम में खेलने के अभ्यस्त हो जाएंगे।