स्वच्छ भारत का ढिंढोरा पीटने से नहीं रुकेंगी मौतें
हाल में गुजरात, उसके पहले दिल्ली, तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में सफाई कर्मियों की सफाई के दौरान मौतें हुईं लेकिन शायद ही यह कोई मुद्दा बनता है। यही नहीं, यह काम आज भी एक खास जाति या तबके के जिम्मे ही है। पिछले 25 साल में उन्नीस सौ से ज्यादा कर्मचारी सफाई करते हुए मौत के मुंह में समा गए हैं। अरसे से इसके खिलाफ सक्रिय सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक और रैमन मैगसायसाय पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन से इस बेहद संगीन मसले पर संपादक हरवीर सिंह ने विस्तार से बातचीत की। प्रमुख अंशः
जहां हम बैठकर बात कर रहे हैं, यहां से कुछ ही दूरी पर वाल्मीकि मंदिर है, जहां महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए प्रवास किया था। लेकिन आज भी सेप्टीटैंक और सीवेज की सफाई का काम न केवल एक खास जाति-वर्ग के लोग कर रहे हैं, बल्कि अपनी जान भी गंवा रहे हैं।
भारतीय समाज को समझना बहुत मुश्किल है। एक चश्मे से देखिए तो लगता है कि समाज बदल रहा है लेकिन जमीनी हकीकत देखते हैं तो खास बदलाव नहीं दिखता। अभी भी सफाई का काम वही समुदाय कर रहा है जो सैकड़ों वर्षों से करता आ रहा है। वह केवल इसलिए कर रहा है क्योंकि वह एक खास जाति में पैदा हुआ है। लोग मानते हैं कि जो लोग सफाई का काम कर रहे हैं उन्हें उसके बदले वेतन मिलता है, तो गलत क्या है? मतलब कि बहुसंख्यक समाज इस समस्या को स्वीकारता ही नहीं है। ऐसे में, नीतियां बनाने वाले भी इससे आंख मूंद लेते हैं।
हाल ही में गुजरात, उसके पहले दिल्ली जैसे कई राज्यों में सफाई के दौरान मौतें हुईं। अभी तक, सीवेज सफाई और सेप्टिक टैंक में कितनी मौंते हुई हैं?
हम 1993 से ये आंकड़े जुटा रहे हैं। अब तक 1927 सफाई कर्मचारियों की सफाई करते हुए मौत हो चुकी है। इस मसले में हमारे हक में 2014 में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया था, जिसमें सफाई के दौरान मौत पर सफाई कर्मचारी के परिवार को 10 लाख रुपये का मुआवजा देने का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि आपात स्थिति में ही कर्मचारी को सीवेज लाइन के अंदर भेजा जाए। 2014 में आए फैसले के छह महीने के बाद जब हमने सरकार से पूछा कि कितने लोगों की मौत हुई है तो उसका कहना था कि कोई नहीं मरा है। ऐसे में, मुआवजा लेने में भी दिक्कतें आती हैं। इसके लिए मृतक के परिवार को मृत्यु प्रमाण पत्र, एफआइआर की कॉपी, अखबार की कॉपी देनी होती है, जबकि यह काम सरकार का होना चाहिए।
तो, क्या सफाई कर्मचारी की मौत देश में कोई मुद्दा नहीं है?
बिलकुल, आप बताइए देश के किसी भी नागरिक की जान जाए तो दुख नहीं होना चाहिए क्या? लेकिन हमारे देश में अजीब माहौल है। पुलवामा में सैनिक शहीद होते हैं तो पूरे देश में राष्ट्रभक्ति का माहौल बन जाता है लेकिन सैकड़ों सफाई कर्मचारी मर रहे हैं, उस पर कोई बात नहीं हो रही है। केवल स्वच्छ भारत का, विज्ञापन के जरिए ढिंढोरा पीटने से भारत स्वच्छ नहीं होगा। अब अगर आप इस पर सवाल उठाओ, तो लोग आपको देशद्रोही कहने लगते हैं। इस देश में पितृसत्ता और जातिवाद के कारण ऐसा हो गया है कि लोग अपने-अपने चश्मे से हर मौत को देखते हैं।
आप प्रधानमंत्री पर सवाल उठा रहे हैं, जबकि वे खुद स्वच्छता पर काफी जोर देते हैं?
देखिए, स्वच्छता बहुत बड़ा मुद्दा है। इसे प्रधानमंत्री के स्तर पर ही हल किया जकता है क्योंकि किसी नगर निगम में बैठे अधिकारी के बस की यह बात नहीं है। इसके लिए हमें एक समग्र नीति बनानी होगी। दुर्भाग्य से, ऐसा होता नहीं दिख रहा है। जब तक प्रधानमंत्री के स्तर से हस्तक्षेप नहीं होगा, कोई प्रभावी नीति नहीं बन पाएगी। एक बार वहां से तय होने पर फंड भी आएगा, मशीनें भी आएंगी और काम पूरा करने में कोई अड़चन नहीं आएगी। इसीलिए मैं बार-बार कह रहा हूं कि केवल स्वच्छ भारत का ढिंढोरा पीटने से यह काम नहीं होगा। आप इसी से समझिए कि अभी हाल में गुजरात के एक होटल में सात सफाई कर्मचारियों की मौत हुई है। इसके लिए दोषी कौन है। कभी होटल, अस्पताल, शॉपिंग मॉल या कचरा निकालने वाली दूसरी इकाइयों पर कोई कार्रवाई होती है क्या?
क्या कोई ऐसा राज्य, शहर या नगर निगम है जो मैकेनाइज्ड सिस्टम का इस्तेमाल कर रहा है?
कोई भी शहर, नगर-निगम ऐसा नहीं है। कुछ शहरों में थोड़ा काम हुआ है, लेकिन वह भी बेहद मामूली है। मसलन, एक हजार मशीनों की जरूरत है लेकिन इस्तेमाल में 20 ही हैं। तेलंगाना में हैदराबाद मेट्रो ऐंड वॉटर सीवेज बोर्ड ने एक दिन में तीन लोगों की मौत के बाद मैकेनाइजेशन पर जोर दिया है। उसी मॉडल को दिल्ली में इस्तेमाल किया जा रहा है।
ड्राई लैट्रिन के बाद अब सेप्टिक टैंक और सीवेज मॉडल में मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है।
हमने 2003 में ड्राई लैट्रिन की स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट 12 साल तक राज्यों से हमारी रिपोर्ट के आधार पर जवाब मांगता रहा। हर बार हम रिपोर्ट में बताते कि इन जगहों पर अभी भी ड्राई लैट्रिन का प्रचलन है। लेकिन हमारी बताई जगहों पर बुलडोजर चलाकर राज्य यह दिखाने की कोशिश करते रहे कि अब कोई ड्राई लैट्रिन नहीं है। अभी भी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर में कुछ जगहों पर इसका इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन यह काम करने वालों को यह भी समझाना होगा कि इस काम के बिना भी जीवन जिया जा सकता है। इसके लिए हमारे 6,000 कार्यकर्ता और 22 राज्यों के संयोजक लगातार लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं। हम उन्हें समझाते हैं कि ड्राई लैट्रिन की सफाई के लिए उन्हें बमुश्किल 400 रुपये महीने मिलते हैं। इस पैसे से वे क्या कर सकते हैं? धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है। लोग अपने पुनर्वास के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। देश के 218 जिलों में लोगों ने अपने पुनर्वास की मांग के लिए धरना दिया। लेकिन हकीकत यह भी है कि उन्हें अभी तक पुनर्वास नहीं मिला है।
आज जब हम अंतरिक्ष में जाने की बात कर रहे हैं, तो सफाई के लिए कोई मैकेनाइज्ड सिस्टम क्यों नहीं विकसित किया जाता?
एक साल में कम से कम 230 सफाई कर्मचारी मर गए। यानी औसतन हर दूसरे दिन एक कर्मचारी की मौत सफाई करते वक्त हुई। इस पर प्रधानमंत्री कुछ क्यों नहीं बोलते हैं? हर वक्त स्वच्छ भारत अभियान की बात होती है, लेकिन मरने वालों पर क्यों नहीं कोई बात हो रही है? तमिलनाडु और गुजरात में सबसे ज्यादा मौंते हो रही हैं। मेरा तो मानना है कि हर सफाई कर्मचारी की मौत एक हत्या है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि इस समस्या से निपटने के लिए तकनीक नहीं है। दुनिया के कई देशों में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। बस अपनी जरूरत के हिसाब से तकनीक में बदलाव कर उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। मुझे यह समझ में नहीं आता है कि अगर अंतरिक्ष के लिए इसरो है, विमान निर्माण के लिए एचएएल है तो स्वच्छता के लिए कोई एजेंसी क्यों नहीं है?
2024 तक पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की बात सरकार कर रही है। ये आंकड़े सफाई कर्मचारियों के लिए कोई मायने रखते हैं क्या?
जिस देश में सफाई कर्मचारी के मरने पर दुख न हो, जहां लोग हाथ से मैला उठाते हों, वह पांच लाख करोड़ डॉलर की क्या, 10 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था भी बन जाए, तो उसके कोई मायने नहीं हैं। जरूरत यह है कि संविधान के अनुसार देश का हर आदमी जी सके। अगर ऐसा होता है तभी वास्तव में तरक्की होगी। आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है।
क्या सीवेज और सेप्टिक टैंक में होने वाली मौत से सुरक्षा के लिए नए कानून की जरूरत है?
नया कानून जरूर बनाया जाना चाहिए। इसके लिए फिलहाल सरकार में कोई चर्चा नहीं है। केवल नीति आयोग से बातचीत शुरू हुई है। लेकिन एक बात साफ है कि सफाई कर्मचारियों को अपने हक के लिए आंदोलन करना होगा। और उन्हें नेताओं को बताना होगा कि हमें कैसा कानून चाहिए। जब वे मांग करेंगे तभी कुछ होगा। देश नेता से नहीं, लोगों से बनेगा, बशर्ते लोगों की बात सुनने के लिए नेता तैयार हो जाएं।
आप खुद भी सफाई-कर्मी परिवार से आते हैं। आपको कैसे संघर्ष करना पड़ा?
यह लंबी लड़ाई है। बचपन से दिल पर चोट लगती आई है। लोग सीधे भंगी बोलते थे। तब मन विद्रोह कर उठता था कि मैं तो यह काम नहीं करता हूं, फिर भी लोग भंगी क्यों कहते हैं? बहुत गुस्सा आता था लेकिन बोलने वाले भी कोई गैर नहीं बल्कि अपने ही दोस्त-साथी थे। इसका हल मैंने पहले यह ढूंढ़ा कि यह न बताया जाए कि मेरे मां-बाप क्या करते हैं। लेकिन उससे कुछ नहीं हुआ। फिर, मैंने अपना पूरा नाम लोगों को बताना छोड़ दिया। लेकिन वे कयास लगाने लगे। कुल मिलाकर अछूत होने का संघर्ष चलता रहा। फिर 1990 में बाबा साहेब आंबेडकर के 100वें जन्म दिवस के अवसर पर मैंने यह स्वीकार कर लिया कि मैं भंगी हूं और यह स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। फिर लोगों से कहना शुरू किया कि हां, मैं भंगी हूं, बताओ तो क्या? इससे लोगों के सवाल खत्म हो गए। साफ है कि पहले हमें जाति व्यवस्था की हकीकत को स्वीकारना होगा और फिर उससे निकलने के लिए संघर्ष करना होगा। एक बात और यह है कि यह संघर्ष केवल अछूत का नहीं है, जो उसे अछूत मानते हैं उनका भी है। ऐसे में इससे निजात पाने के लिए दोनों को लड़ना होगा।
‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ संगठन बनाने का ख्याल कैसे आया?
मेरे अंदर ज्वालामुखी फूट रहा था। आखिर, 1982-92 के दौर में मैंने अपना गुस्सा निकालना शुरू किया। लोगों से लड़कर कहना शुरू किया कि आप कैसे एक इंसान से ऐसा निकृष्ट काम करा सकते हैं? मेरे इस संघर्ष को देखकर बिरादरी के लोगों को लगा कि यह आदमी हमारे लिए लड़ सकता है, तो वे जुड़ने लगे। संघर्ष करने का माद्दा जन्मस्थली कोलार की पृष्ठिभूमि से भी मिला, जो वामपंथी आंदोलन का गढ़ रहा है। हालांकि यह भी सच है कि मैं कभी किसी दल या विचारधारा से नहीं जुड़ा। 1992 के बाद मैंने अपने आपको आंबेडकर विचारधारा से जोड़ लिया। इसका फायदा यह हुआ कि इस वर्ग के लोगों को यह एहसास होने लगा कि भारतीय संविधान के अनुसार हर कोई समान है। दूसरा कोई आपको नीचा समझ रहा है तो यह उसकी समस्या है। इससे आत्मसम्मान की भावना भी जगी। इसके बाद आंध्र प्रदेश के सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी एस.आर.शंकरन का साथ मिला और फिर सफाई कर्मचारी आंदोलन की शुरुआत हुई। उसके बाद अगले दस वर्षों में महाराष्ट्र, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब और हरियाणा में आंदोलन फैला।
1992-93 में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने लाल किले से ऐलान किया था कि मैला ढोने की प्रथा खत्म होगी। कानून भी बना, लेकिन मैला ढोने की प्रथा पूरी तरह खत्म क्यों नहीं हुई?
कानून से सबसे बड़ी ताकत यह मिली कि हमें अब लोगों को यह बताने की जरूत नहीं थी कि आप इंसान से जो मैला उठवा रहे हो, वह सामाजिक अपराध है। हम सीधे कहने लगे कि ऐसा किया तो सजा मिलेगी। लेकिन हमारे अंदर अभी भी गुलामी की मानसिकता बनी हुई है। इसी वजह से ब्यूरोक्रेसी इस कानून को जमीन पर लागू नहीं करती है। देश में 650 के करीब जिलाधिकारी हैं, जिनका काम अपने जिले में कानून का पालन करवाना है। आपको आश्चर्य होगा कि आज तक एक जिलाधिकारी ने भी नहीं सोचा कि कानून को लागू कराया जाए। एक बात और समझना जरूरी है कि इस देश में दलित, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक और गरीब लोगों के लिए बने कानून को लागू करने की बात आती है तो कानून बहुत कमजोर हो जाता है। हम 2,000 से कई राज्यों में मौजूद ड्राई लैट्रिन की सूची सरकार को दे रहे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की जाती है।