आजादी की ओर कुर्दिस्तान के बढ़ते कदम, लेकिन लंबा संघर्ष बाकी
तुर्की के पहाड़ी क्षेत्रों और सरहदी इलाकों के साथ इराक, सीरिया और ईरान में रहने वाले कुर्द आजाद कुर्दिस्तान की मांग कर रहे हैं। 25 सितंबर को हुए विवादित जनमत संग्रह में लोगों ने आजाद कुर्दिस्तान क्षेत्र के समर्थन में बड़ी तादाद में वोट डाले। लिहाजा मतदान करने वाले 33 लाख लोगों में से 92 प्रतिशत ने अलगाव का समर्थन किया। हालांकि, इराक की सरकार इसे अवैध बता रही है, जबकि कुर्द नेताओं का मानना है कि जनमत संग्रह के नतीजों से उन्हें इराक सरकार और पड़ोसी देशों से ‘आजादी’ को लेकर बातचीत करने की ताकत मिली है।
माने मकर्तच्यान
इस पूरे मसले पर आर्मेनिया की रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माने मकर्तच्यान से अक्षय दुबे ‘साथी’ ने बातचीत की। फिलहाल माने मकर्तच्यान नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'तुलनात्मक साहित्य' विषय पर शोधरत हैं। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश:
आजाद कुर्दिस्तान क्यों?
देखिए, इसको समझने के लिए हमें इतिहास में झांकना होगा। ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद तुर्की में रहने वाले कुर्द हो रहे अत्याचारों से मुक्त होने की और अपनी स्वायत्ता मांगने की कोशिश करते रहे हैं। हालांकि आजाद कुर्दिस्तान का ख्याल नया नहीं है परन्तु मध्य पूर्व में बदलती परिस्थितियों से इनकी मांगें और रणनीतियां भी कई बार बदली हैं और आज अनेक मायनों में अव्यवहारिक भी नजर आ रही हैं। बीते कुछ वर्षों से मध्य पूर्व में इस्लामिक स्टेट द्वारा कुर्दों का संहार होता रहा है। लगातार हमलों में बड़े तादाद में कुर्दिश लोग मारे गए हैं पर आइसिस के खिलाफ जंग में कुर्दों की असाधारण जीत ने इन्हें कई अवसर प्रदान किए हैं।
आज इन्हें ‘आजाद कुर्दिस्तान’ का नक्शा पहले से अधिक साफ दिख रहा है लेकिन कुर्दिस्तान का मसला बहुत पेचीदा है। इसे समझने के लिए हमें पहले यह समझना होगा कि इस क्षेत्र में अनेक शक्तियां अपनी-अपनी रोटियां सेंक रही हैं। यहां कई तरह के दोहरे खेल चल रहे हैं। यथा, आइसिस की रीढ़ तोड़ने में सफल सीरिया की सरकार व रूस के सामूहिक प्रयासों को तथा मध्य पूर्व में रूस के बढ़ते प्रभाव को देख अमेरिका आईसिस के खिलाफ जंग में कुर्दों का साथ देने लगा है। चूंकि अपने सहयोगी देश तुर्की के प्रति भी जिम्मेदारियां है तो तुर्की सरकार के ‘दुश्मन’ कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) को एक तरफ टेररिस्ट संगठन का दर्जा भी दिया गया है तो दूसरी तरफ़ सीरिया में वाईपीजी जो कि पीकेके का हिस्सा है, को ‘लोकल पार्टनर’ भी बना लिया गया है। ऐसे दोहरे खेलों के अनेक उदारहण दिए जा सकते हैं। बहरहाल, एक बात निश्चित है कि मध्य पूर्व से आइसिस के पांव काटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए कुर्दों के हौसले बढ़ते नजर आ रहे हैं।
लेकिन यूएनओ से लेकर तुर्की, इरान और इराक तक को इससे गहरी आपत्ति क्यों?
गौरतलब है कि ईरान इस पूरे मसले में एक अहम् भूमिका निभा रहा है। सीरियाई युद्ध में ईरान ने जमकर शिया कुर्दों को सहायता पहुंचाई, इन्हें ट्रेनिंग देता रहा और एकत्रित करने का भी प्रयास किया। कुर्दों ने अपनी रक्षा हेतु हथियार जरूर उठाए किन्तु जल्द ही पीकेके ने स्वायत्त राज्य की स्थापना को ‘हर कीमत पर’ हासिल करने के लिए संयुक्त राज्य- अमेरिका के साथ सौदा किया वह भी सीरिया की हितों के खिलाफ। पीकेके, वाशिंगटन और तेल अवीव द्वारा वांछित सीरिया का जातीय-सांप्रदायिक विभाजन न सिर्फ जियानिस्ट परियोजना के विरोध को कमजोर करने की उद्देश्य पूरा करता है बल्कि पश्चिमी एशिया में अमेरिकी वर्चस्व को बनाये रखने का भी काम करता है। इस लक्ष्य प्राप्ति में इरान हमेशा एक बाधक रहेगा। कुर्दिस्तान बनने से इरान और रूस की चिंताएं भी बढ़ेंगी। जहां तक तुर्की की बात है तो उसको गहरी आपत्ति होना स्वाभाविक है, पिछले आठ दशकों से तुर्कियों और कुर्दों में लड़ाई चल रही है।
कुर्दिस्तान को लेकर कुर्द लोगों को कितनी आशाएं हैं?
हाल ही में उत्तरी इराक के कुछ कुर्दों से मेरी मुलाकात आर्मेनिया में हुई थी। निश्चित ही वे कुर्दिस्तान को लेकर बहुत उम्मीद पाले हुए हैं।
कुर्दिस्तान की आजादी को लेकर आपका क्या अनुमान है?
कुर्दिस्तान बनेगा तो सीरिया, इराक़, तुर्की और ईरान की भूमि काट कर बनेगा इसलिए तो तुर्की हो या ईराक अपने देश का थोड़ा भी भू-भाग खो देने की बात कोई क्यों मानेगा? और ऐसे में किसी चमत्कारिक कदम की उम्मीद करना कहां तक व्यावहारिक है। कुर्दिस्तान के भूगोल की सीमा रेखाएं तय करने का अधिकार किसका होगा?
इन भू-भागों पर रह रहे अल्पसंख्यक जातियों यानी गैर-कुर्दों के भाग्य को कौन तय करेगा आदि सौ तरह के सवाल उठते हैं जो अनुत्तरित हैं।
जनमत संग्रह के नतीजों से क्या असर पड़ेगा?
कुर्दिस्तान बनेगा तो कुर्द अपनी स्वतंत्रता हासिल कर पाएंगे, उससे खुशी की बात और क्या हो सकती है। स्वतंत्रता सबको प्यारी है।
पर किस कीमत पर वह उन्हें मिलेगी इसका अभी ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। हर हाल में युद्ध होकर रहेगा। बहरहाल, आजादी की संभावनाएं मुझे निकट भविष्य में नहीं दिखती।
अब कुर्दों की सहायता कौन करेगा?
स्वयं कुर्द ही! जबतक स्वयं उनमें वैचारिक और धार्मिक मतभेद रहेगा, उस डिसॉरीएंटेशन की वजह से इनका खुद का फायदा उठाया जाएगा। हालांकि कुर्दों के साथ अत्याचार होता आया है, जिससे उनको आजादी मिलनी चाहिए पर बड़े देशों के हितों के टकराव में इनका कितना भला और कितना नुकसान, यह देखने की बात है। कुरदीश लोग नादानी में समझ रहे हैं कि विपरीत शक्तियों का हाथ थामने से वे सबसे बराबर का लाभ उठा लेंगे। अमूमन ऐसा नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय भूराजनीति में यूटोपिया की कोई जगह नहीं होती।