इंटरव्यू : ओटीटी पर छोटी कहानियों को मिल रहा बड़ा आकाश, बोलीं अभिनेत्री सुनीता रजवार
सुनीता रजवार ओटीटी माध्यम पर रिलीज़ होने वाली वेब सीरीज का मकबूल और सफल नाम हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अभिनय की शिक्षा लेने वाली सुनीता रजवार को उनके द्वारा निभाए गए हास्य किरदारों के लिए इन दिनों खूब पसन्द किया जा रहा है। उनका अभिनय स्वाभाविक है और यही कारण है कि आज वह भारत के घर घर में लोकप्रिय हो चुकी हैं। उनका नया शो “ द ग्रेट वेडिंग्स ऑफ़ मुन्नेस” वूट सेलेक्ट एप पर 4 अगस्त को रिलीज़ हो चुका है। इसी सिलसिले में आउटलुक के मनीष पाण्डेय ने की अभिनेत्री सुनीता रजवार से बातचीत
साक्षात्कार के मुख्य अंश :
आपके नए वेब शो “ द ग्रेट वेडिंग्स ऑफ़ मुन्नेस” की बड़ी चर्चा है, क्या है इस शो में आपका किरदार ?
यह शो एक सामान्य मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार के युवक मुन्नेस के विवाह से जुड़े घटनाक्रम और उससे पैदा हुए हास्य को लेकर रचा गया है। मैं शो में मुन्नेस की बुआ का किरदार निभा रही हूं। मुन्नेस की बुआ एक सीधी साधी लेकिन बेवकूफ महिला है। उसे नहीं पता कि हालात, समय, परिस्थिति के अनुसार क्या बोलना है, क्या एक्शन लेना है। बुआ की यही बेवकूफी और भोलापन स्क्रीन पर हास्य पैदा करता है।
यह किरदार लोकप्रिय वेब शो “ गुल्लक “ और “ पंचायत” में आपके द्वारा निभाए गए किरदार से किस तरह भिन्न है ?
“ गुल्लक“ और “पंचायत“ के किरदारों से यह किरदार पूरी तरह भिन्न है। जहां एक तरफ “गुल्लक“ का किरदार “बिट्टू की मम्मी“कॉमिक, तेज तर्रार और तांक झांक करने वाली महिला का किरदार है, वहीं “पंचायत“ का किरदार “क्रांति देवी“ पति को समर्पित ग्रामीण महिला का किरदार है।यह दोनों किरदार चालक हैं, धूर्त हैं। इससे अलग मुन्नेस की बुआ सीधी, साधी, भोली और बेवकूफ है। उसे दुनिया भर की चिंता है लेकिन अपनी परवाह नहीं।यही बात मुन्नेस की बुआ को विशेष बनाती है।
बचपन से जुड़ी कोई विशेष घटना हो तो हमें बताइये ?
मेरा जन्म तो बरेली में हुआ लेकिन मेरा लालन पालन और प्रारंभिक शिक्षा काठगोदाम, हल्द्वानी में हुई। बचपन से जुड़ी कोई बात कहनी हो तो मैं बरसात के दिनों की बात करना चाहूंगी। हमारा घर जंगल के पास था। मुख्य सड़क, घर से काफ़ी दूर थी। हम लोग पैदल ही स्कूल जाया करते थे। बारिश के दिनों में स्कूल पहुंचने में बड़ी दिक्कत होती थी। इसलिए कि घर से थोड़ी दूर पर एक गधेरा था। आप समझने के लिए इसे नाला भी कह सकते हैं। बारिश के दिनों में यह गधेरा उफान पर बहता था। गधेरे में ऊंची ऊंची लहरें उठती थीं। तब इसे पार करना और स्कूल पहुंचना जोखिम भरा काम होता है। इसलिए जब जब तेज बारिश होती तो हम स्कूल नहीं जाते थे। हमारी छुट्टी हो जाती थी। और आप तो जानते ही हैं कि बचपन में छुट्टी का एहसास कितना सुखद एहसास होता है।
नाटक और अभिनय की दुनिया में आना किस तरह से हुआ ?
मैंने एम. ए की पढ़ाई के लिए नैनीताल के डिग्री कॉलेज में दाखिला लिया था। नैनीताल सांस्कृतिक रूप से काफ़ी समृद्ध जगह है। लोगों में कला की अच्छी समझ है। मुझे नैनीताल में कलात्मक माहौल मिला। एक बार मैंने कॉलेज के एक कार्यक्रम में डांस परफॉर्मेंस दी। जब यह परफॉर्मेंस, युगमंच, जो नैनीताल का एक थिएटर ग्रुप है, के सदस्यों ने देखी तो उन्होंने मुझसे सम्पर्क किया। उन्होंने बताया कि मरहूम अभिनेता निर्मल पाण्डेय, अपने एनएसडी फेलोशिप प्ले का मंचन करने जा रहे हैं, जिसके लिए उन्हें महिला कलाकारों की जरूरत है। अगर मेरी रुचि है तो मैं नाटक से जुड़ सकती हूं। मुझे यह प्रस्ताव पसंद आया। मैं अपने हॉस्टल की अन्य महिला मित्रों के साथ निर्मल दा से मिलने पहुंच गई। निर्मल दा ने हमें हमारे व्यक्तित्व के हिसाब से किरदार और डायलॉग्स दिए। इस तरह से नाटक और अभिनय की दुनिया में मेरा पदार्पण हुआ।
एनएसडी के दिनों को याद करते हुए आज क्या महसूस होता है, कैसे थे वे दिन ?
एनएसडी के दिन रोचक और रोमांचक थे। जीवन के कई बड़े रहस्य एनएसडी में खुले, सोच का विस्तार हुआ। एनएसडी की यात्रा सीख देने वाली रही। एनएसडी का माहौल आम शिक्षा संस्थानों जैसा नहीं था। एनएसडी में आपके पास पूर्ण स्वतंत्रता थी कि आप पढ़ें, सीखें, समझें और फिर अपनी बुद्धि, विवेक के आधार पर निर्णय लें। एनएसडी में पढ़ते हुए, यह भावना भीतर बैठ जाती है कि आपके अच्छे और बुरे के लिए आप स्वयं उत्तरदायी होंगे। एनएसडी में आपके आस पास किताबें हैं, देश के श्रेष्ठ शिक्षक हैं, श्रेष्ठ फ़िल्में हैं, नाटक हैं। अब यह आपके ऊपर है कि आप इनका भरपूर फ़ायदा उठाते हैं या यूं ही मस्ती में समय काट देते हैं।
भारतीय फ़िल्मों में महिलाओं को जिस तरह दर्शाया जाता है, उनके लिए जितना स्पेस उनके लिए रखा जाता है, उस बारे में आप क्या कहना चाहेंगी ?
हम सभी सुनते हुए आए हैं कि “ सिनेमा समाज का दर्पण होता है “ । यह बात हर तरह से सटीक है। कल समाज में औरतों को आज़ादी नहीं थी। उनके निर्णय परिवार के अन्य लोग लिया करते थे। उनकी कोई आवाज़ नहीं थी। स्त्रियों को घर की देखरेख की ज़िम्मेदारी दी गई थी। यही कारण है कि हमारी फ़िल्मों की नायिका शांत, कमज़ोर, चुप और घर गृहस्थी संभालने वाली होती थी। वह सिर्फ़ अपने परिवार के विषय में सोचती थी। पुरुष की हां में हां मिलाती थी। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं दिखता था। वह हर पहलु पर, नायक पर निर्भर दिखती थी।आज नया दौर है। स्त्रियां पढ़ी लिखी हैं, नौकरी कर रही हैं। हर क्षेत्र में आज उनकी हिस्सेदारी है। आज स्त्रियां स्वतंत्र हैं, मुखर हैं। उन्हें अपने अधिकार मालूम हैं। आर्थिक रूप से महिलाओं की अपने परिवार पर निर्भरता कम हुई है। यही कारण है कि आज हमारी फ़िल्मों में भी सशक्त महिला किरदार नज़र आ रहे हैं। इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। जैसी स्थिति समाज में औरत की होगी, वैसे ही किरदार आपको सिनेमा में दिखाई देंगे।
ओटीटी माध्यम आने के बाद आपको अचानक से बहुत काम और पहचान मिली है, इस बारे में क्या कहना चाहेंगी ?
मेरा मानना है कि टैलेंट की पहचान एक न एक दिन होती ही है। मैं 20 सालों से काम कर रही हूं और बहुत अच्छा काम कर रही हूं। लेकिन मेरी पहचान आज बनी है। क्योंकि मेरा समय अब आया है। आज मेरे काम को पसंद किया जा रहा है, लोग मुझे मेरे किरदार से जान और पहचान रहे हैं। इसलिए हम सभी को अपने ऊपर विश्वास होना चाहिए। आप मेहनत कीजिए, जब आपका समय आएगा, आपको पहचान और काम का मूल्य ज़रूर मिलेगा।
आज सिनेमा में विविधता और प्रयोग नज़र आ रहे हैं, अभिव्यक्ति के लिए समय भी अधिक मिल रहा है, इस पर आपके क्या अनुभव हैं ?
मेरे अनुभव बेहद सकारात्मक रहे हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद कई ऐसी कहानियों को मंच मिला है, जो बाज़ार और बॉक्स ऑफिस के समीकरण के कारण,सिनेमाघर की दौड़ में पीछे रह जाती थीं। आज इन फ़िल्मों को मंच मिलने के कारण विविधता आई है। अलग अलग रंग की फ़िल्में बन रही हैं, जिसमें हर रंग के कलाकार काम कर रहे हैं। इससे सुंदर बात क्या हो सकती है कि आज ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद हर तरह का काम हो रहा है, जिससे हर तरह के कलाकार को काम मिल रहा है, उसकी रोटी चल रही है। यह कलाकारों के लिए गोल्डन पीरियड है।
मुम्बई और फ़िल्मों का अनुभव कैसा रहा ?
मैं जब नाटक कर रही थी, तब मेरे भीतर फ़िल्मों में काम करने का कोई विचार नहीं था। यह तो जीवन में कुछ ऐसे मोड़ आए और अवसर बनें, जिस कारण मैं फ़िल्मों की दुनिया में आ गई। मुझे किसी को कुछ साबित नहीं करना था। न मैं किसी से कोई उम्मीद लेकर आई थी। मैं सिर्फ़ अच्छा काम करना चाहती थी। मुझे ऐसा लगता है कि सारा दबाव ही तब पैदा होता है, जब आप ज़माने को प्रूफ़ करना चाहते हैं। मैं इस दबाव से मुक्त थी। मेरे कई दोस्त मुम्बई में थे। उन्होंने मेरा साथ दिया। मुझे काम मिलने में भी कोई विशेष दिक्कत नहीं हुई। इसलिए मुम्बई और सिनेमा का मेरा अनुभव अच्छा रहा। मेरा ऐसा मानना है कि अगर आपके अंदर प्रतिभा है, आपका समय सही चल रहा है तो आप सही रास्ते से होते हुए अपनी मंज़िल पर पहुंच जाते हो। इसलिए खुद पर विश्वास करना सीखें। यही सबसे ज़रूरी है।
जो लोग मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में शामिल होना चाहते हैं, काम करना चाहते हैं, उन्हें अपने अनुभव से क्या सलाह देना चाहेंगी?
मुम्बई और सिनेमा का जो मेरा सफर है, उसके अलग संघर्ष रहे हैं। अलग चुनौतियां रहीं हैं। इसलिए कोई अगर मेरे अनुभव के आधार पर अपनी रणनीति बनाता है तो यह ज़्यादा कारगर साबित नहीं होगी। सबके सामने अलग चैलेंज रहते हैं। आपको अपनी सूझबूझ से ही उनका सामना करना पड़ता है। युवाओं से तो मैं यही कहना चाहूंगी कि आज काम की कोई कमी नहीं है। टीवी, सिनेमा, ओटीटी, म्यूज़िक वीडियो, यूटयूब चैनल आदि पर खूब काम हो रहा है। अगर आपके पास टैलेंट है तो मेहनत कीजिए और काम पाने के निकल जाइए। और मुम्बई ही क्यों, आप अपने राज्य और शहर में काम कीजिए। आज यूट्यूब और ओटीटी प्लेटफॉर्म के माध्यम से आपको पूरी दुनिया देख सकती है। आपको पहचान मिल सकती है। इसलिए मुम्बई की तरफ़ दौड़ लगाना उचित नहीं है। हर शहर की एक क्षमता होती है, मुम्बई की भी अपनी क्षमता है। देशभर से लोग मुम्बई आते हैं और सबको काम मिलना संभव नहीं है। यह बात युवाओं को समझनी चाहिए। अच्छा काम करना ज़रूरी है। मुम्बई में ही काम करना कतई आवश्यक नहीं है।
भविष्य में किन प्रोजेक्ट्स में आप नज़र आने वाली हैं ?
" द ग्रेट वेडिंग्स ऑफ़ मुन्नेस“ 4 अगस्त को रिलीज़ हो रही है। इसके बाद इस साल मेरे 2 वेब शो आने वाले हैं। वेब शो के साथ साथ तीन फ़िल्मों में भी अहम भूमिका निभाने का मौक़ा मिला है। यह प्रोजेक्ट्स इस वर्ष के अंत तक रिलीज़ हो जाने चाहिए।