इंटरव्यू : ज़मीन से जुड़ी कहानियों को दर्शक आज भी प्यार देते हैं, बोले "गुड लक जेरी" के निर्देशक सिद्धार्थ सेन
ओटीटी माध्यम आने के बाद सार्थक कहानियों को मौक़ा मिला है। इन फ़िल्मों को दर्शकों और समीक्षकों का प्यार मिल रहा है। एक ऐसी ही फ़िल्म “ गुड लक जेरी” डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई है, जिसने दर्शकों और आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है। इस फ़िल्म में अभिनेत्री जाहन्वी कपूर की प्रस्तुति को, उनके करियर की सबसे मजबूत परफोर्मेंस की तरह देखा जा रहा है। फ़िल्म की सफलता के बीच फ़िल्म के निर्देशक सिद्धार्थ सेन बहुत उत्साहित हैं। यह उनकी पहली फ़िल्म है। इससे पहले लम्बे समय तक उन्होंने विज्ञापन फ़िल्में बनाईं और हिंदी सिनेमा के कुछ बेहद कामायाब फ़िल्म निर्देशकों के असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में काम किया। पढ़िए फ़िल्म की कामयाबी के बाद आउटलुक के मनीष पाण्डेय की निर्देशक सिद्धार्थ सेन से ख़ास बातचीत।
साक्षात्कार के मुख्य अंश :
जिस दौर में बड़ी हिंदी फ़िल्में संघर्ष कर रही हैं, आपकी पहली ही फ़िल्म को प्यार और समर्थन मिल रहा है, कैसा महसूस हो रहा है ?
मैं इस समय बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूं और सभी तरह की प्रतिक्रियाओं का स्वागत कर रहा हूं। मेरी फ़िल्म की कहानी बिल्कुल साधारण है। एक लड़की, जो अपनी मां के संघर्ष में सहयोग करना चाहती है और इस कोशिश में उसे तकलीफों का सामना करना पड़ता है। इस साधारण कहानी को मैंने अपनी पूरी टीम के साथ पूरे विश्वास और ईमानदारी से बनाया है। और मेरा मानना है कि जब आप कोई चीज़ दिल से बनाते हैं तो उसमें जादू होता है। इस जादू को सभी महसूस कर पाते हैं। जिस रोज़ यह फ़िल्म बनकर तैयार हुई, उसी क्षण से मैं महसूस कर सकता था कि यह ज़रूर लोगों को पसंद आएगी। आज अपने विश्वास को सफल होता देखकर खुशी होती है।
फ़िल्म में जान्हवी कपूर के अभिनय की हर तरफ़ तारीफ़ हो रही है, चूंकि सिनेमा निर्देशक का माध्यम है, हमें बताइए कि आपने जान्हवी को अपना विज़न किस तरह समझाया और किस तरह उनमें किरदार की समझ पैदा की ?
कच्ची मिट्टी को आकार देना आसान होता है। जब मैं पहली बार जान्हवी कपूर से मिला तो मेरे मन में उनकी एक छवि थी। मेरे लिए वह महान अभिनेत्री श्रीदेवी की बेटी थीं। इस बात का दबाव तो मुझ पर था। लेकिन जैसे ही मैं उनसे मिला और मैंने उन्हें कहानी सुनाई, हम दोनों एक स्तर पर आ गए। फिर सब आसान हो गया। मैंने जान्हवी को कहानी सुनाने के बाद कुछ समय उन जगहों पर बिताने के लिए कहा, जहां से कहानी पैदा हुई है। मैंने उन्हें उस भाषा, समाज, उस जीवन, उस खानपान और रहन सहन को करीब से महसूस करने के लिए कहा, जिसे वह पर्दे पर जीने वाली थीं। सच्चाई का कोई विकल्प नहीं होता। आप अगर यथार्थ को जिएंगे, तभी वह सिनेमा की स्क्रीन पर दिखाई देगा। अन्यथा दो मिनट में कोई भी आपका झूठ पकड़ लेगा। जान्हवी कपूर अपने अभिनय को लेकर संजीदा हैं। उन्होंने मेरी हर बात मानी और यही कारण कि आज फ़िल्म में उनके किरदार में सच्चाई दिख रही है। इसलिए उनकी तारीफ़ हो रही है।
वो क्या कारण रहे होंगे, जिन्होंने आपके भीतर सिनेमाऔर कला का आकर्षण पैदा किया ?
मेरा जन्म और लालन पालन झारखंड के ऐसे परिवेश में हुआ, जहां दूर दूर तक कला, साहित्य, सिनेमा का कोई ख़ास वातावरण नहीं था। मैं अपनी यात्रा को नियति मानता हूं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी फ़िल्मों में काम करूंगा। बचपन में एक सिनेमाघर था, जहां फ़िल्म अपनी रिलीज़ के दो महीने बाद लगती थी। वहीं मैंने फ़िल्में देखना शूरू किया। मुझे हमेशा से एक शौक़ था। मैं फ़िल्मों के ट्रेलर देखकर उसकी पूरी कहानी का अनुमान लगाता था। जब फ़िल्म रिलीज़ होती तो सिनेमाघर में जाकर फ़िल्म देखता। यदि 30 से 40 चालीस प्रतिशत भी मेरा अनुमान सही होता तो मुझे बहुत खुशी होती। यह मुझे प्रेरित करता था। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने दिल्ली से मास कम्युनिकेशन किया और फिर मुम्बई में कई निर्देशकों के असिस्टेंट के रूप में काम किया। 15 साल के इस सफर में धीमी आंच पर मेरे भीतर कला पकती रही और मेरे अंदर सिनेमा के प्रति आकर्षण और अलग दृष्टिकोण पैदा हुआ।
मौजूदा समय को हिंदी सिनेमा के बुरे दौर की तरह देखा जा रहा है, आपको क्या लगता है कि हिन्दी फ़िल्में क्यों असफल हो रही हैं ?
मुझे इसके दो बड़े कारण दिखते हैं। पहला कारण यह है कि हिन्दी फ़िल्में अपनी जड़ें छोड़ चुकी हैं। हिन्दी फ़िल्मों का निर्माण वह लोग कर रहे हैं, जिन्हें हिन्दी पट्टी की समझ नहीं है। फ़िल्म के सेट्स पर सब तरफ़ अंग्रेज़ी भाषा का प्रभुत्व है। जब कोई जुड़ाव नहीं है तो फिर सिनेमा में आत्मा की उम्मीद करना बेईमानी है। दूसरा कारण जो मुझे दिखाई देता है, वह यह है कि कोरोना महामारी के कारण लोगों ने खाली समय में ओटीटी माध्यम पर शानदार कॉन्टेंट देख लिया है। लोग दुनियाभर में बन रही शानदार फ़िल्में देख रहे हैं। उनके पास विकल्प हैं। ऐसे में वह क्यों ऐसी हिन्दी फ़िल्मों को देखेंगे, जिनका मूल उद्देश्य किसी भी कीमत पर कारोबार करना, पैसा कमाना है। आप देखिए कि जो फ़िल्में ज़मीन से जुड़ी हुई हैं, उनमें आज भी आत्मा महसूस होती है और वह कामयाब होती हैं।
ओटीटी माध्यम आने के बाद ऐसी कहानियों और कलाकारों को मंच मिल रहा है, जिन्हें पहले सिनेमा की मुख्यधारा में सिवाय संघर्ष के कुछ नहीं मिलता था, इस बदलाव को कैसे देखते हैं आप ?
मुझे बहुत खुशी होती है यह देखकर कि आज प्रतिभावान कलाकारों के पास विकल्प की कोई कमी नहीं है। ओटीटी माध्यम आने के बाद नई कहानियों को मंच मिल रहा है। प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। दर्शक नई चीज़ों को अच्छी तरह से स्वीकार कर रहे हैं। अब ज़रूरी नहीं कि आप मुम्बई में संघर्ष करते रहें और उम्र बीत जाए। आप अपने शहर, गांव, कस्बे में रहकर एक अच्छी कहानी कह सकते हैं। अगर कहानी में बात है तो उसे कोई न कोई डिजिटल प्लेटफॉर्म ज़रूर मिलेगा। सिनेमा को दर्शक तक पहुंचाना इतना आसान कभी नहीं था। यह सबसे क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। लेकिन जैसे कि हर बात के दो पहलु होते हैं, इस बदलाव का दूसरा पहलु भी है। ओटीटी माध्यम के कारण इतना अधिक काम आ रहा है कि दर्शकों में सिनेमा के प्रति जो जुनून था, जो उत्साह था, जो इंतज़ार था, वह गायब होता जा रहा है। दर्शक अब थियेटर तक नहीं आ रहे हैं। वह ओटीटी माध्यम पर फ़िल्म आने का इंतज़ार करते हैं। सिनेमाघरों में फ़िल्म देखने का जो जादू था, जो तिलिस्म था, वह सम्मोहन कम हो गया है ओटीटी माध्यम के कारण।
संघर्ष के दिनों में ख़ुद को किस तरह से मजबूत रखते हैं आप ?
मेरा एक ही मंत्र है। संघर्ष से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। जीवन में आपको संघर्ष तो करना ही पड़ेगा। इससे बच नहीं सकते आप। कुछ ही पल सुख के होंगे। संघर्ष और आपका साथ ज़रा लंबा रहेगा। इसलिए यदि संघर्ष का लुत्फ लेना सीख जाएं तो फिर सब कुछ आसान हो जाता है। मेरे कुछ दोस्त हैं, जिन्होंने हर पल मेरा साथ दिया। उन्होंने मेरे इर्द गिर्द ऐसा माहौल बनाए रखा कि कभी भी संघर्ष को दिल से नहीं लगाया मैंने। मैं इसे जीवन का हिस्सा मानकर चलता रहा और धीरे धीरे मंज़िल के क़रीब पहुंचता रहा।