मेरा कोई धर्म नहीं-सईद मिर्जा
आज के मुंबईया सिनेमा के बारे में आपकी क्या राय है?
आज की फिल्मों से सामाजिक सरोकार ग़ायब होते जा रहे हैं, फिल्में सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाने के लिए बनाई जा रही हैं। ये फ़िक्र की बात है। हमारी राजनीति और समाज का असर ही हमारे सिनेमा में भी दिखाई दे रहा है। कविता, संगीत, नृत्य या फिल्मों को देश के परिप्रेक्ष्य में ही समझना चाहिए। क्या हमने यह तय कर लिया है कि समाजवाद का अंत हो गया है। अब फ्री ट्रेड और स्टॉक एक्सचेंज की तरफ ध्यान दीजिए और सोचिए कि उससे क्या फायदा हो सकता है देश को? उनके मुताबिक लोकतंत्र का मतलब मुक्त व्यापार, स्टॉक एक्सचेंज और पूंजीवाद हो गया है। सिर्फ ग्रोथ रेट में तरक्की की बात कर रहे हैं। क्या इससे ही गरीबी हटेगी ?
आपके लिए सिनेमा क्या है?
सिनेमा मेरे लिए जनता के साथ संवाद करने का एक माध्यम है। इसलिए मेरी फिल्में समाधान नहीं देतीं बल्कि वो समाज की समस्याओं के बारे में सवाल उठाती हैं। मैं फिल्मों के माध्यम से दर्शकों की सोच को झिंझोड़ने का काम करना चाहता हूं।
मुंबइया फिल्मों के समानांतर फिल्म निर्माण की प्रक्रिया के लिए आप क्या-क्या चीज़ें ज़रूरी समझते हैं?
तीन चीज़ें हो सकती हैं। या तो आप फॉर्म बदल दें, डिज़ीटल पर आ जाइये। इंटरनेट का इस्तेमाल कीजिए। जैसे जन संस्कृति मंच के फिल्म महोत्सव हैं, और भी बहुत सारी संस्थाएं हैं देश में आप वहां दिखाइये सिनेमा को। लेकिन अगर आप मल्टीप्लेक्सेज में घुसना चाहते हैं, जिस पर लोगों का कब्जा है, तो प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है।
आपने मुस्लिम चरित्रों पर केंद्रित कई फिल्में बनाई हैं। इस बारे में आप क्या कहना चाहते हैं?
मैं एक भारतीय नागरिक हूं। मेरा कोई धर्म नहीं हैं। मैं समाज के हाशिये के लोगों के बारे में फिल्म बनाता हूं। पहले हमारी फिल्मों में मुस्लिम सिर्फ़ आइटम नंबर होते थे। मेरी इस बात से नाराज़गी थी। उनमें या तो वे कव्वाल हैं या कसाई है। इसलिए मैंने समील लंगड़े पे मत रो और नसीम में कुछ सवाल उठाने की कोशिश की।
आप आजकल क्या कर रहे हैं?
मैं आजकल ढेर सारी यात्राएं और पढ़ाई कर रहा हूं। अम्मी: अ लेटर टू अ डेमोक्रेटिक मदर नाम से एक उपन्यास लिख चुका हूं।