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18 July 2015

'पहल' का कोई गुट नहीं रहा - ज्ञानरंजन

साठ-सत्तर के दशक में जब हिंदी की इतनी पत्रिकाएं निकल रही थीं तब 'पहल' निकालने का खयाल क्यों आया?

'पहल' निकालने (1973) के आसपास हिंदी की सर्वाधिक शानदार साहित्यिक पत्रिकाएं या तो स्थगित हो गईं थीं या बंद। इसी पृष्ठभूमि में 'पहल' निकालने का मन बना। कल्पना, उर्दू साहित्य, वसुधा, आरंभ, निकष, संकेत, कृति, लहर, बिंदु, युग चेतना, माध्यम, कथा, वाम, कवि, चाणक्य, उत्कर्ष,  नई कविता, कहानी, नई कहानियां ऐसी कई पत्रिकाएं 'पहल' निकलने के पहले बंद होकर शून्य बना चुकी थीं। इनके संपादक धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही, मार्कण्डेय, परसाई, बद्री विशाल पित्ती, श्रीपत राय, बालकृष्ण राव, अमृत राय, भीष्म साहनी, डॉ. देवराज, शैलेश मटियानी जैसे बड़े लेखक रहे हैं। लोकप्रिय, बाजारू और व्यवसायिक धूल रेंगने लगी थी और मैंने इसे पहचाना क्योंकि मैं इलाहाबाद की घनघोर साहित्यिक पृष्ठभूमि और साहित्यिक आग्रहों के साथ जबलपुर आया था।

दूसरी तरफ  इसकी एक स्थानीय विश्वदृष्टि भी है। दुनिया की बड़ी दमदार साहित्यिक पत्रिकाएं  जैसे एनकाउंटर, पेरिस रिव्यू, विलेज वॉयस, एवरग्रीन रिव्यू, लंदन मैगजीन, चायनीज लिटरेचर, पोलिश रिव्यू भी इसी दौर में लड़खड़ा रही थीं। पोयट्री जैसी नामी पत्रिका को 5 साल पहले कई लाख डॉलर देकर एक वृद्ध काव्य प्रेमी अमेरिकी महिला ने बचाने की कोशिश की है। सवाल पत्रिकाओं के बंद या जारी होने का नहीं हैं, सवाल साहित्य के हाशिये पर होते जाने का है। दुनिया में जिस विकास के ढांचे को स्वीकार कर लिया गया है, उसी में कविता, कवि और साहित्यिक रचनाशीलता के लिए एक गंभीर संकट है। 'पहल' निकालते समय मेरे मन में ये सारी बातें थीं। उस समय जबलपुर जैसे शहर से 'पहल' की कल्पना करना बड़ा जोखिम था। पर उमंग थी। एक अंतिम बात उस समय जबलपुर या मध्यप्रदेश में मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई की छाया बहुत गहरी तथा प्रेरक थी।

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आपातकाल में आपकी गिरफ्तारी और 'पहल' पर प्रतबिंध लगाने का मामला उठा था? 

आपातकाल, 'पहल' और मेरे लिए आकस्मिक और ठेस पहुंचाने वाली घटना थी। अभी 'पहल' के 6 अंक ही निकले थे और सातवें अंक में शाकिर अली (छत्तीसगढ़ के युवा लेखक) के एक लेख में नेहरू को 'बुर्जुआ’ लिखे जाने पर आपातकालीन उपद्रव शुरू हुआ। 'पहल' बंद करने, ज्ञानरंजन को गिरफ्तार करने और नौकरी से निकालने के लिए बाकायदे गृह मंत्रालय को, हमारे महाविद्यालय के ट्रस्टी और प्राचार्य को पत्र लिखे गए। यह गतिविधियां 'उत्तरायण’ से संचालित थीं। ये सारी चीजें लिखित और प्रकाशित हैं। दिल्ली के एक प्रमुख समाचार पत्र समूह की पत्रिका और मुंबई में देश के एक विख्यात प्रकाशन संस्थान की साप्ताहिक पत्रिका में नियमित मुहिम चलाई गई। यह एक जबरदस्त लड़ाई थी जिससे अस्तित्वों और विचार की स्वतंत्रता से सवाल जुड़े थे। एक पुस्तिका प्रकाशित की गई जिसमें 'पहल' का संबंध कानू सान्याल और चारु मजूमदार से जोड़ दिया गया। गृह मंत्रालय, राज्य शासन के जासूस सक्रिय हो गए। कलेक्टर के पास मेरी पेशी होती थी। मुद्रक रवीन्द्र कालिया के इलाहाबाद प्रेस पर भी दबिश दी गई।

भारतीय भाषाओं के 200 से अधिक छोटे-बड़े लेखकों, पत्रकारों ने 'पहल' के रक्षार्थ लड़ाई लड़ी। गोवा जेल से अनेक बंदी 'पहल' के सदस्य बने। मराठी, बांग्ला, कन्नड़, पंजाबी के लेखकों ने पर्चे निकाले और आज मैं पहली बार इस सच्चाई को प्रकट कर रहा हूं कि प्रसिद्ध कवि और पूर्व नौकरशाह अशोक वाजपेयी, मध्यप्रदेश के तत्कालीन गृह सचिव बी के दुबे (जो मेरे प्रशंसक थे) ने 'पहल' की सहायता की। मायाराम सुरजन, एन के सिंह, राहुल बारपुते, कमलेश्वर ने अग्रलेख लिखकर 'पहल' की भूमिका का बचाव किया। इस तरह 'पहल' निखर कर  तप कर आज इस मुकाम पर पहुंची है। अभी अनगिनत सूचनाएं हैं। पर मुझे इस संबंध में वाचाल होने का खेद है क्योंकि यह सब बताना मेरा काम नहीं था।

 

आडवाणी की तरह आपको भी लगता है कि आज भी आपातकाल जैसे हालत हैं?

पुराने आपातकाल की हड़बडिय़ों के बावजूद आज देश की जनशक्ति बहुत मजबूत स्थितियों में नहीं है। पर शासन के विषदंत पहले से अधिक पैने और चतुर हो गए हैं। अब आपातकाल की समर्थक सत्ताएं बढ़ चुकी हैं। भारतीय समाज में संविधान सिकुड़ रहा है। कला दीर्घाओं, आईआईटी, आईआईएम, विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम, शैक्षिक, सांस्कृतिक संस्थानों से लेकर सिनेमा सबको घेरा जा रहा है। आने वाला समय संगीन है। लेखक संगठन कमजोर हैं। लड़ाइयां छुटपुट हैं पर जागरूकता बढ़ रही है। संख्या बल के आगे भारत का भविष्य खतरे में है। संभवत: भारत में आने वाले समय में घोषित आपातकाल कठिन है पर अघोषित आपात कलाएं नए सिरे से खिल रही हैं। 'पहल' की भूमिका जाहिर है कठिन है। उसे वे जारी भी रखने देंगे कि नहीं, नहीं जानता। भारतीय समाज में प्रतिरोध की नई रणनीतियां सिरे से गायब हैं। रक्तपात शुरू हो गया है और रक्तपात बढ़ते जाने के अनेक लक्षण हैं।

 

जिस तरह अखबारों की दुनिया में संपादक का अवमूल्यन हुआ क्या साहित्य में भी संपादक वही भूमिका नहीं निभा रहे?

जब पतनशीलता बहुआयामी होती है तो उससे कोई भी वर्ग अछूता नहीं रह जाता। वे पेशे जो काफी माननीय और विश्वसनीय थे अब संदिग्ध हैं। अध्यापक, डॉक्टर, संपादक इन पर कभी सवाल नहीं होते थे, अब ये नैतिक, आर्थिक यहां तक कि व्यावसायिक रूप से मटियामेट भी हो चुके हैं। हम अकेले चिरागों और एक बचे हुए बेलपत्र की अवस्था में पहुंच चुके हैं। अखबारों में तो संपादक संस्था काफी पहले से डूबने लगी थी। साहित्यिक पत्रिकाओं की दुनिया में भी यह शुरुआत हो गई है। भरपूर पत्रिकाएं हैं, उनकी अपनी सीमित भूमिकाएं भी हैं  पर उनकी पहचान, उनका स्पष्ट लक्ष्य, उनका व्यक्तित्व नहीं बन सका। नए संपादकों ने अपना लैंडस्केप छोटा बनाया है। वे स्थानीय और आंचलिक बन गए हैं। वे दूर-दराज के इलाके से नई रचनाशीलता की पहचान करने और उन्हें प्रोत्साहित करने, उन्हें खोजने में असमर्थ होते गए हैं। अखबारों में संपादकों पर कड़े दबाव होते हैं। बड़ी स्पर्धा और चुनौती होती है। साहित्यिक पत्रिका के संपादकों पर बाहरी दबाव उतने नहीं होते। वे स्वतंत्रता का लाभ उठाकर अपनी भूमिका निभा सकते हैं। हिंदी प्रदेश इतना बड़ा है, उसके इतने सुदूर छोर हैं कि प्रतिभाओं को समेटना कठिन है। असल में आज पूंजी जाग गई है, वह उपद्रवी है। वह मुग्ध कर रही है और इस तेजस्विता के बीच काम करने के लिए बौद्धिक रूप से लद्दड़, ऊंघते हुए और मासूम संपादक व्यक्तित्व विहीन हो गए हैं।

 

आप पर आरोप लगा कि आपने गैर वामपंथी लेखकों को 'पहल' में जगह नहीं दी। अज्ञेय, निर्मल वर्मा जैसे लेखकों को तरजीह नहीं दी। रघुवीर सहाय भी अपने जीवन काल में एक-दो बार ही छपे। इस तरह आपने साहित्य में राजनीति की। 'पहल' भी गुट विशेष की पत्रिका बन गई?

हमने अज्ञेय का व्याख्यान छापा। कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय को छापा। केवल अशोक वाजपेयी 'पहल' में आज तक नहीं छपे। उन्होंने भी रचनाएं नहीं भेजी, हमने भी आज तक नहीं मांगी। लेकिन 'पहल' के बंद होने पर उन्होंने अपने स्तंभ कभी कभार में इसकी सकारात्मक चर्चा की। उनके और मेरे दृष्टिकोण में शुरू से अंतर रहा। यद्यपि मेरे उनसे व्यक्तिगत संबंध अच्छे हैं। 'पहल' ने कोई गुट नहीं बनाया। आप बताएं कौन सा गुट है, कौन लोग उसमे शामिल हैं।

 

राजेंद्र यादव ने जब लिखना छोड़ दिया तो 'हंस' निकला। रवीन्द्र कालिया ने 'वागर्थ' और 'ज्ञानोदय', उसी तरह जब आपका लेखन बंद हुआ तो 'पहल' निकली। हंस और ज्ञानोदय ने नए लेखक पैदा किए। क्या 'पहल' ने भी ऐसा किया या उनके लेखक खींचे?

जिस तरह हंस, ज्ञानोदय तथा वागर्थ के संपादकों ने यह दावा किया कि यह लेखक उनकी उपज हैं, उनकी खोज हैं, उस तरह 'पहल' ने कभी ये हमारे-वे तुम्हारे नहीं किया। लेखक, संपादक, पाठक समूह ही मिलकर एक सामूहिक संपादन कला को समृद्ध करते हैं यह हम मानते थे और मानते हैं। यही हमारी पगडंडी है। 'पहल' को यह सुख प्राप्त है कि उसका कोई खेमा नहीं है। लेखकों को पट्टे नहीं पहनाए जा सकते। मैं उदाहरण से अपनी बात साफ  करूंगा। हमने अपनी यात्रा में असुविधाजनक रास्तों और व्यक्तित्वों को चुना। वहां केवल विविधा ही नहीं थी उनका महात्म भी था। 'पहल' ने एजाज अहमद का व्याख्यान दिल्ली में कराया। इसकी तैयारी में शहीद चंद्रशेखर की सक्रिय भूमिका थी जो हमसे पर्याप्त असहमत थे। हमने उदय प्रकाश, कुमार विकल, हृदयेश, मंजूर एहतेशाम, ज्ञानेन्द्रपति को 'पहल' सम्मान दिया जो कभी साथ नहीं रहे। हमने वरवर राव, असगर अली इंजीनियर के व्याख्यान कराए जो कभी भी हमारी भूमिका के खुले समर्थक नहीं थे। हमारे आयोजनों में मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा अपने खर्चे पर शामिल हुईं। 'पहल' का कोई गुट नहीं रहा और सभी गुट हमें दिलोजान से चाहते थे।

दूसरा उदाहरण देखें। जिस मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ से मेरा लंबा संबंध था, 'पहल' को उसकी मुख पत्रिका बनाने का दबाव या प्रस्ताव मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। इसलिए कि स्वतंत्र मिजाज बना रहे। सभी वामपंथी समुदाय के सदस्य 'पहल' के प्रिय रहे हैं। सारे रेडिकल 'पहल' के मूर्त-अमूर्त सहयोगी रहे हैं। 'पहल' को गुटबाजी से कोई लाभ नहीं था, हमारा आकाश ही बड़ा था। गैर वामपंथी लेखक भी 'पहल' में सदा छपे, हां दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक, तीसरे दर्जे के और फासिस्ट रचनाकारों के लिए 'पहल' में जगह नहीं थी। 'पहल' का लक्ष्य स्पष्ट है। 'पहल' की विचारधारा गोपनीय नहीं है।

 

 

 

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TAGS: pahal, jabalpur, gyanranjan, vimal kumar, पहल, जबलपुर, ज्ञानरंजन, विमल कुमार
OUTLOOK 18 July, 2015
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