आपबीतीः जिग्नेश मेवाणी/ “मेरा कष्ट तो कुछ भी नहीं"
“गिरफ्तारी के दौरान नियमों के पालन पर सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं। लेकिन असम पुलिस ने उन नियमों की जरा भी परवाह नहीं की”
वडगाम के विधायक और दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवाणी को 19 अप्रैल को असम पुलिस की एक टीम ने बनासकांठा में गिरफ्तार कर लिया। आरोप था कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपमान करते हुए एक ट्वीट किया। अगले दिन उन्हें गुवाहाटी ले जाया गया। 25 अप्रैल को कोकराझार की एक अदालत के जमानत दिए जाने से पहले उन्हें कई थानों में रखा गया। लेकिन इससे पहले कि मेवाणी वहां से निकलते, उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार आरोप लगा एक महिला पुलिस अधिकारी के साथ अभद्रता का। आखिरकार 29 अप्रैल को वे जमानत पर बाहर आए। उन्हें जमानत देते हुए बरपेटा की अदालत में मेवाणी के खिलाफ फर्जी मामला दायर करने के लिए असम पुलिस की तीखी आलोचना भी की। पुलिस ने निचली अदालत के जमानत के आदेश को गुवाहाटी हाईकोर्ट में चुनौती दी है। उनके असम से आने के बाद गुजरात के मेहसाणा की एक अदालत ने 5 मई को उन्हें तीन महीने की सजा सुना दी। मेवाणी पर जुलाई 2017 में मेहसाणा शहर में बिना अनुमति के रैली निकालने का आरोप था। बहरहाल, सईदा अंबिया जहां के साथ बातचीत में 41 वर्षीय मेवाणी ने असम पुलिस के साथ अपनी आपबीती बताई।
उन 9 दिनों से पहले
19 अप्रैल को मैं पालनपुर के धोता गांव में एक दलित की शादी में था। खाना खाने के बाद कुछ लोगों से बात कर रहा था। बातचीत का मुख्य विषय राजनीति ही थी। हम चर्चा कर रहे थे कि कैसे कठिन हालात में हम रह रहे हैं। मैं उनसे कह रहा था कि चुनाव जीत लेना ही सब कुछ नहीं है। मैं यह भी सोच रहा था कि हर महीने मैं अलग-अलग जगह जाऊं और समान विचारधारा वाले लोगों से मिलूं। मैं उस दिन वास्तव में काफी सकारात्मक महसूस कर रहा था। मैं वहां से रात 11 बजे निकला और आधे घंटे बाद पालनपुर सर्किट हाउस पहुंचा। कुछ देर बाद ही मेरी टीम ने सूचित किया कि कुछ पुलिस वाले मुझसे मिलना चाहते हैं। जब मैंने कहा कि सुबह मिलूंगा, तो उन्होंने कहा कि पुलिस वाले अभी मिलने की जिद कर रहे हैं। तभी पुलिसवाले अंदर आ गए और मुझे उनके साथ जाना पड़ा।
बिना कारण बताए गिरफ्तारी
पुलिस वालों ने मेरा मोबाइल फोन ले लिया और पालनपुर थाने चलने को कहा। मुझे एफआईआर की कॉपी भी नहीं दी गई जिससे पता चले कि किस आधार पर मुझे गिरफ्तार किया जा रहा था। अगर मुझे असम ले जाया जाना था तो मुझे अपने माता-पिता को इसकी जानकारी देनी थी। मुझे अपने वकील से, अपनी टीम से बात करनी थी। लेकिन पुलिस वालों ने मेरी कोई बात नहीं सुनी और कहा कि यह सब बाद में होता रहेगा। तीन-चार पुलिस वाले थे जो मुझे थाने लेकर गए। वहां मुझसे गिरफ्तारी मेमो पर दस्तखत करने को कहा गया। तब भी मुझे वकील से बात करने की इजाजत नहीं दी गई। पुलिस वाले काफी जल्दी में लग रहे थे। मैंने अपने पीए और अपने साथियों से कहा कि चिंता न करें, मैं जल्दी ही इस सबसे बाहर आ जाऊंगा। मैंने उनसे टीम के दूसरे सदस्यों को बुलाने, विरोध प्रदर्शन आयोजित करने और वकील से संपर्क करने को कहा। अहमदाबाद एयरपोर्ट जाते वक्त मैंने पुलिस अधिकारी से पूछा कि मुझे क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है, तब उन्होंने कहा कि मेरी ट्वीट की वजह से असम में कुछ जगहों पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उस ट्वीट में तो मैंने प्रधानमंत्री मोदी से गुजरात में शांति और समरसता बनाए रखने की अपील की थी।
पुलिस के संग लंबी यात्रा
गिरफ्तारी के दौरान किन नियमों का पालन किया जाना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने उसके दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं। लेकिन असम पुलिस ने उन नियमों की जरा भी परवाह नहीं की। मैं विधायक होने के साथ वकील भी हूं, इसलिए मुझे प्रक्रियाओं की जानकारी है। एयरपोर्ट पर मेरी टीम के लोग मुझसे मिले। गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष जगदीश ठाकोर और मेरे वकील परेश वाघेला भी थे। उनके बार-बार कहने के बाद मुझे एफआईआर की कॉपी दी गई। दो फ्लाइट बदलने के बाद मैं अगले दिन गुवाहाटी पहुंचा, जहां 20-25 सशस्त्र पुलिस वाले इंतजार कर रहे थे। ऐसा दिखाने की कोशिश की जा रही थी कि उन्होंने किसी बड़े अपराधी को गिरफ्तार किया है। मैं जानता हूं कि यह सब मनोवैज्ञानिक तौर-तरीके होते हैं, इसलिए मैं शांत रहा।
गुवाहाटी एयरपोर्ट से कोकराझार जाते समय एक महिला पुलिस अफसर मेरे बगल में बैठ गई। तभी मुझे एहसास हुआ कि कुछ न कुछ षड्यंत्र रचा जा रहा है। गुजरात गई टीम का नेतृत्व करने वाला पुलिस अधिकारी सामने की सीट पर ड्राइवर के साथ बैठा था। करीब आधे घंटे बाद गाड़ी रुकी। महिला कांस्टेबल ने उस अधिकारी से कुछ बात की और उसके बाद दोनों ने सीट बदल ली। चार घंटे में 182 किलोमीटर का सफर करने के बाद मुझे कोकराझार थाने ले जाया गया। उसी शाम मुझे कोकराझार कोर्ट में पेश किया गया जिसने मुझे पुलिस हिरासत में भेज दिया। बाद में कोर्ट ने जमानत दे दी तो मुझे एक अन्य मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरा मामला तो पहले से भी अधिक चौंकाने वाला था। मुझ पर एक महिला पुलिस अफसर के साथ अभद्रता का आरोप लगाया गया। उन नौ दिनों के दौरान मैंने आठ दिन दो थानों में और एक दिन जेल में बिताए थे।
जेल के भीतर
मेरा दिन काफी जल्दी शुरू हुआ। मैं सुबह 5:30 बजे उठ गया। स्नान और प्रार्थना के बाद दूसरे कैदियों के साथ नाश्ते के लिए कतार में लग गया। नाश्ते में कुछ रोटियां और सब्जी थी। मुझे वह पसंद नहीं आया तो मैंने चाय और बिस्किट लिया। मुझे पढ़ने के लिए अखबार मिला। असम में मौसम खुशगवार था। मैं आश्वस्त था कि मैं इस लड़ाई को जीत लूंगा। पुलिस वाले भी मेरे साथ भद्र व्यवहार कर रहे थे। जेल के गेट के बाहर मैं अपने समर्थन में नारे सुन सकता था। वहां काफी लोग जमा हो गए थे। जब मैं पुलिस हिरासत में था, उन दिनों कांग्रेस के अनेक नेता, एक निर्दलीय और एक लेफ्ट विधायक और वकील मुझसे मिलने आए। यह सब समर्थन चाहे जितना हो, जेल में इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं की कमी से तो कैदियों को अकेले ही जूझना पड़ता है। मुझे वहां जेल की हालत देखकर चिंता हुई। मैं लंबे समय से जेल में बंद कैदियों के बारे में यही सोचता रहा कि उनके अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए।
राजनीतिक कैदी
जब आप हफ्ते-दो हफ्ते के लिए हिरासत में होते हैं, तो कोई राजनीतिक पार्टी आपका समर्थन करती है, लोगों का ध्यान आपकी तरफ जाता है, हर दिन आप मीडिया की सुर्खियों में होते हैं और लोग आपके लिए धरना-प्रदर्शन करते हैं। इससे साहस मिलता है। लेकिन उनका क्या जो महीनों-सालों से जेल में हैं। जब आपकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता, जब मीडिया भी चुप हो जाता है और आप अकेले रह जाते हैं तब क्या? तब आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मैं लगातार उमर खालिद, सुधा भारद्वाज और अन्य सभी राजनीतिक कैदियों के बारे में सोच रहा था। हार्दिक पटेल नौ महीने तक जेल में रहे। अखिल गोगोई को भी एक साल से अधिक समय तक जेल में रखा गया। उमर भी एक साल से ज्यादा समय से जेल में हैं। इन सब राजनीतिक कैदियों ने मेरी तुलना में बहुत अधिक कष्ट झेला है। शरजील इमाम लंबे समय से जेल में बंद हैं। ये सब बातें आपके दिमाग में आती हैं। उनकी तुलना में मेरी परेशानी तो कुछ भी नहीं। यह तो कुछ कहने योग्य भी नहीं। देश में अनेक कैदी हैं जो ट्रायल की लंबी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। उनमें से ज्यादातर अल्पसंख्यक और दलित समुदाय के हैं जिनका शोषण किया जाता है। आर्थिक मदद न मिलने पर वे जमानत के लिए अर्जी भी नहीं दे सकते।
हिरासत से मुक्ति
आखिरकार 29 अप्रैल को मैं रिहा हुआ। बरपेटा कोर्ट ने 13 पन्ने के जमानत के आदेश में जो कहा उससे मेरे खिलाफ संदेह के सभी बादल छंट गए। उस आदेश में फर्जी एफआईआर दर्ज करने और कानून का दुरुपयोग करने के लिए असम पुलिस की तीखी भर्त्सना की गई। वे नौ दिन और कुछ नहीं बस षड्यंत्र के थे। मुझे लगता है कि मैंने पुलिस, असम के लोग और कांग्रेस की सद्भावना हासिल की है। मुझे पहले अहमदाबाद की जेल में साढ़े चार दिन रहने का अनुभव है। लेकिन इस बार मैं यह सोचकर थोड़ा भावुक हो जाता था कि मेरी छोटी भतीजी मुझे फोन नहीं कर पाती थी। वह रोज मुझे कई बार वीडियो कॉल करती है। मैं यह सोचकर भी भावुक हो जाता था कि उन दिनों मेरे माता-पिता मुझसे संपर्क नहीं कर पा रहे थे। बाकी तो मैं हमेशा अच्छे मूड में रहा।