नेट न्यूट्रेलिटी ना छोड़े ट्राईः सत्पथी
आपने टेलीकॉम अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के चेयरमैन राहुल खुल्लर को पत्र लिखा है जिसमें आपने इंटरनेट सुविधा के लिए बिजली वितरण का उदाहरण दिया है। लेकिन इंटरनेट की तुलना बिजली से कैसे हो सकती है, जबकि घरेलू, व्यावसायिक और औद्योगिक बिजली की दरें अलग-अलग हैं
यह ठीक है, लेकिन जब आप बिजली लेते हैं तो कौन सी मशीन चलाएंगे यह तय नहीं होता। घरेलू बिजली लेने पर सरकार नहीं कहती कि फ्रिज के लिए अलग लो और कूलर के लिए अलग। व्यावसायिक और औद्योगिक में भी यदि आप की दर अलग है तो मशीन का प्रकार तो सरकार निर्धारित नहीं करती न। तो फिर इंटरनेट के साथ ऐसा भेदभाव क्यों।
लेकिन टेलीकॉम कंपनियां फोन पर बातचीत की सुविधा देने के लिए भारी भरकम लाइसेंस शुल्क सरकार को अदा करती हैं? तो क्या सरकार को यह सेवा मुफ्त में कर देनी चाहिए?
मैंने ऐसा नहीं कहा। मैंने कहीं भी मुफ्त की बात नहीं की है। मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि इंटरनेट पर हर सुविधा का अलग-अलग पैसा न लगे। अगर टेलीकॉम कंपनियां लाइसेंस राशि के रूप में बड़ी रकम देती हैं तो क्या उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय, अंतरर्राष्ट्रीय और शहर से बाहर की कॉल दरों को अलग-अलग नहीं रखा है। मैं मानता हूं कि इंटरनेट सुविधा सस्ती नहीं है। यह महंगी है। दुनिया में कहीं भी यह मुफ्त भी नहीं है। लेकिन हर एप्लीकेशन के लिए आप ग्राहकों से अलग कीमत वसूल नहीं कर सकते। अगर आपको बीता जमाना याद हो तो दूरदर्शन ही एक चैनल हुआ करता था। लेकिन अब देखिए क्या है, आपको हर चैनल की अलग-अलग कीमत चुकानी पड़ती है। यह इस बहस से अलग बात है लेकिन कुछ इसी तरह का काम टेलीकॉम कंपनियां करना चाहती हैं।
रही बात टेलीकॉम कंपनियों की तो एक वक्त था जब मोबाइल पर फोन सुनने का पैसा लगता था। परंपरागत फोन मोबाइल फोन के मुकाबले सस्ते थे। लोग एक-दूसरे से कहते थे, 'मुझे मिस कॉल देना।’ फिर लोग लैंडलाइन से उस व्यक्ति को फोन करते थे।
आपकी कंपनियों या ट्राई से क्या अपेक्षा है?
मेरी अपेक्षा नहीं है। जो सही है वह होना चाहिए। ट्राइ पार्टी क्यों बन रही है। वह रेगुलेटरी अथॉरिटी है उसे वही काम करना चाहिए। भारत में कभी भी कंपनियों ने अपने हित से ऊपर उठ कर नहीं सोचा। जब मौका मिले ग्राहकों का खून चूस लो। मुनाफा कमाना ठीक है पर खून चूसना नहीं। कुछ लोगों के प्रभाव में ट्राई को नहीं आना चाहिए। एक ओर तो सरकार चाहती है कि देशभर में स्मार्ट शहर बनें। उन स्मार्ट शहरों के लिए स्मार्ट लोग कहां से आएंगे। आप तो उनके स्मार्ट बनने का साधन ही छीन ले रहे हैं। स्मार्ट फोन हाथ में देकर उसे चलाने के साधन से वंचित कर रहे हैं। यह लोगों को निरुत्साहित करना है।