इंटरव्यू/नितिन गडकरी: “किसान देशद्रोही नहीं, न उन्हें बदनाम करने की कोशिश है”
नए कृषि कानूनों से नाराज किसानों ने करीब चार हफ्ते से राजधानी दिल्ली को घेर रखा है। सरकार के साथ कई दौर की बातचीत के बावजूद कोई हल निकलता नहीं दिख रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कई वरिष्ठ मंत्रियों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), ठेका खेती और जमीन के मालिकाना हक जैसे मुद्दों पर किसानों का भय दूर करने की कोशिश की है, लेकिन दूसरी तरफ किसानों को खालिस्तानी, माओवादी और टुकड़े-टुकड़े गैंग भी कहा गया। किसान तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करने से कम पर राजी नहीं हैं। सरकार इंतजार में है कि प्रदर्शनकारी किसान थक कर चले जाएं, तो दूसरी तरफ प्रदर्शन के बढ़ने के भी संकेत मिल रहे हैं। पंजाब और हरियाणा के किसानों का साथ देने के लिए राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के किसान दिल्ली की तरफ आ रहे हैं। भावना विज अरोड़ा के साथ बातचीत में परिवहन और एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि सरकार नए कानूनों में बदलाव के लिए तैयार है। हालांकि उन्होंने इस बात के भी संकेत दिए कि तीनों कानून रद्द नहीं होंगे। बातचीत के मुख्य अंश:
छह दौर की बातचीत के बाद भी कोई समाधान क्यों नहीं निकल सका है?
नए कानून किसानों के हित में हैं, यह बात उन्हें समझाने में जितना भी समय लगे हम उसके लिए तैयार हैं। देश के आर्थिक ढांचे में एकमात्र किसान ही हैं जो अपनी उपज की कीमत तय नहीं कर सकते। यह कीमत दलाल, बिचौलिए या व्यापारी तय करते हैं। किसान अपना टमाटर कभी दो रुपये किलो बेचते हैं तो कभी 10 रुपये किलो। चाहे कपड़ा व्यापारी हो, रेस्तरां का मालिक, यहां तक कि रेलवे और एयरलाइंस भी, सब अपने-अपने प्रोडक्ट की कीमत खुद तय करते हैं। मीडिया हाउस भी विज्ञापनों की कीमत तय करता है। किसानों को भी यह मौका मिलना चाहिए कि जहां उन्हें बेहतर कीमत मिले वहां अपनी उपज बेचें। क्या उन्हें अपनी उपज की कीमत तय करने का अधिकार नहीं है? क्या वे हमेशा शोषित होते रहें? नए कानून उनके फायदे के लिए हैं। उन्हें बरगलाया जा रहा है।
सिर्फ पंजाब और हरियाणा के किसान ही नए कानूनों के खिलाफ नहीं, विदर्भ के किसानों ने भी आपत्तियां जताई हैं।
विदर्भ के किसान नाखुश नहीं हैं। हर जगह के किसानों को नए कानूनों के फायदे समझने की जरूरत है। इन कानूनों का कोई भी प्रावधान अनिवार्य नहीं है। इनमें किसानों को विकल्प चुनने की आजादी दी गई है। वह चाहे तो राज्य सरकारों की एपीएमसी मंडियों में अपनी उपज बेचे या निजी मंडियों में। मैं आपको नागपुर का एक उदाहरण देता हूं। मैंने सब्जियों की ऑर्गेनिक खेती की। मैं उन्हें पहले एपीएमसी मंडी ले जाया करता था। अगर मैंने 1,000 रुपये का माल बेचा तो बिचौलिया आठ फीसदी कमीशन ले जाता था। अब मैं अपनी उपज प्रताप नगर चौक स्थित शेतकरी (किसान) बाजार में बेचता हूं। वहां मुझे बाजार दर से 10 रुपया अधिक मिलता है। मुझे बिचौलिए को आठ फीसदी कमीशन भी नहीं देना पड़ता। इस तरह मुझे अपनी उपज की अधिक कीमत मिलती है। मैं आपको एक और उदाहरण बताता हूं। नागपुर के संतरे पूरे देश में मशहूर हैं। हाल ही हमने किसानों को छह कंटेनर संतरे दुबई निर्यात करने में मदद की। जो किसान यहां 12 रुपये किलो के भाव पर संतरे बेचते हैं, उन्हें दुबई में 32 रुपये का भाव मिला।
अगर ये कानून किसानों के लिए इतने अच्छे हैं तो वे मान क्यों नहीं रहे? प्रधानमंत्री से लेकर वरिष्ठ मंत्रियों तक, सबने नए कानूनों के फायदे बताने की कोशिश की है।
सरकार ने एमएसपी पर किसानों की उपज खरीदने का लिखित आश्वासन दिया है। ठेका खेती को लेकर किसानों का भय भी दूर करने की कोशिश की गई है। इसे ठीक तरह से समझने की जरूरत है। उदाहरण के लिए विदर्भ में, जहां से अक्सर किसान आत्महत्या की खबरें आती हैं, वहां उनकी कामकाजी पूंजी खत्म हो रही है। नई फसल की बुवाई से पहले खेत को ट्रैक्टर से तैयार करना पड़ता है। उसके बाद बीज, खाद और सिंचाई की जरूरत पड़ती है। अगर किसान के पास पैसे नहीं हैं तो उसकी जमीन बेकार पड़ी रहेगी। अगर कोई दूसरा पैसे वाला किसान उसकी जमीन पर खेती करने करना चाहे और सारे खर्च भी वही दे, तो वह जमीन के मालिक किसान को नियमित रूप से कुछ पैसे दे सकता है, या दोनों के बीच मुनाफे में हिस्सेदारी का समझौता भी हो सकता है। आप देखिएगा इससे सफलता की अनेक कहानियां सामने आएंगी। इसमें अडाणी या अंबानी तस्वीर में कैसे आते हैं?
कागजों पर तो यह अच्छा लगता है, लेकिन किसानों को डर है कि वास्तविकता कुछ और होगी।
यह डर निराधार है। कोई भी कॉन्ट्रैक्ट स्थायी नहीं। जमीन का मालिकाना हक नहीं बदलेगा। किसान अपनी जमीन नहीं खोएगा। जब लोग किसी बात से सहमत नहीं होते तब उन्हें भरमाने का प्रयास किया जाता है।
अब सभी मंत्री कृषि कानूनों की बात कर रहे हैं, इसके प्रावधान बता रहे हैं। क्या इन कानूनों के विधेयक लाने से पहले किसानों को राजी नहीं किया जाना चाहिए था? क्या पहले और चर्चा नहीं होनी चाहिए थी?
संसद के दोनों सदनों में इन विधायकों पर चर्चा हुई। सभी दलों ने अपने सुझाव दिए। सबकी सहमति के बाद ही विधेयक पारित हुए। ऐसे भी नेता हैं जिन्होंने इन कानूनों की मांग की थी और अब वे इसका विरोध कर रहे हैं। मैं अभी उनके नाम नहीं लूंगा। हम आज भी कह रहे हैं कि इन कानूनों के हर प्रावधान पर हम खुले मन से विचार करने के लिए तैयार हैं। किसान हित में जो भी सुझाव आएंगे हम उन्हें स्वीकार करेंगे। कृषि मंत्री यह बात कह चुके हैं।
आप की पृष्ठभूमि को देखते हुए क्या यह माना जा सकता है कि आप भी प्रदर्शनकारी किसानों के साथ बातचीत करेंगे?
अभी तो कृषि और वाणिज्य मंत्री किसानों के साथ बातचीत कर रहे हैं। अगर मुझसे कहा गया तो निश्चय ही उनसे बात करूंगा।
पहले किसानों की मुख्य मांग एमएसपी को लेकर थी। क्या इसे कानून में शामिल किया जाएगा?
एमएसपी कैसे तय होता है? हर साल कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी पर कैबिनेट नोट तैयार किया जाता है। एमएसपी कितना बढ़ना चाहिए, यह भी उसी में होता है। नीति आयोग समेत सबकी राय उसमें शामिल होती है। हमने बीते छह वर्षों में हर साल एमएसपी बढ़ाया है। हम किसानों के खिलाफ नहीं हैं।
लेकिन क्या इसे कानून में शामिल नहीं किया जा सकता?
मौजूदा तरीका भी तो कानूनी ही है। नीति आयोग से लेकर कृषि मंत्रालय तक, सभी संबंधित विभाग इस पर चर्चा करते हैं और कैबिनेट को नोट भेजते हैं। कैबिनेट सर्वोपरि है। यही नियम है, यही तरीका है। एमएसपी सरकार की जिम्मेदारी है और सरकार ने आश्वासन दिया है कि वह एमएसपी से कम पर बिक्री की अनुमति नहीं देगी।
क्या आपको लगता है कि भाजपा नेताओं के खालिस्तानी, माओवादी और टुकड़े-टुकड़े गैंग कहने के बाद किसान नेताओं का रुख और कड़ा हुआ है?
मुझे लगता है कि ये टिप्पणियां किसानों या उनके संगठनों के लिए नहीं थीं। वे बयान उन तत्वों के लिए थे जो इस आंदोलन का दुरुपयोग करना चाहते थे। मैंने प्रदर्शन स्थल पर उन लोगों की तस्वीरें देखीं जिन्हें नक्सलियों का समर्थन करने की वजह से गडचिरौली में गिरफ्तार किया गया था। कोर्ट ने उन्हें जमानत नहीं दी है। देश विरोधी बयान देने वाले, जो किसानों के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े नहीं हैं, जिनका किसान आंदोलन से कोई वास्ता नहीं है उनकी फोटो वहां कैसे लग जाती है?
किसानों को लगता है कि सरकार उनके आंदोलन को बदनाम करने और उन्हें देशद्रोही विरोधी बताने के लिए ऐसा कर रही है।
किसान देशद्रोही नहीं हैं और न ही उन्हें बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। लोकतंत्र में सबको प्रदर्शन करने का अधिकार है। हम किसानों के प्रदर्शन करने के अधिकार का सम्मान करते करते हैं, लेकिन उन्हें उन तत्वों से सावधान रहना पड़ेगा जो उनके आंदोलन से फायदा उठाना चाहते हैं।
जब किसानों के साथ बातचीत हो रही थी तब क्या वरिष्ठ नेताओं ने उनसे यह सब बातें कहीं?
मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि भारत सरकार किसान हितों को लेकर संवेदनशील है। हमें उनसे सहानुभूति है। हम उनकी बात सुनना चाहते हैं और उनकी समस्याओं का समाधान निकालना चाहते हैं। सरकार चाहती है कि उनके साथ कोई अन्याय न हो। जिस तरह हम गरीबों और श्रमिकों के साथ हैं, उसी तरह किसानों के भी साथ हैं। किसान हित से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा करने में हमें कोई समस्या नहीं। हम सिर्फ वही करेंगे जो किसानों के लिए सबसे अच्छा होगा।
क्या आपको लगता है कि यह गतिरोध खत्म होगा और आपसी सहमति से समाधान निकलेगा?
मुझे पूरी उम्मीद है कि हम किसानों को मनाने में कामयाब होंगे। हमने कुछ मुद्दों पर उन्हें स्पष्टीकरण दिया है और मुझे पूरा भरोसा है कि किसान हमारी बात समझेंगे और आंदोलन को वापस लेंगे।
तो कानून रद्द नहीं किए जाएंगे?
हमने हर-एक प्रावधान पर बातचीत की पेशकश की है। उन्हें अगर लगता है कि जो प्रावधान उनके हित में नहीं हैं, उनके बारे में वे हमसे बात कर सकते हैं और हम उसमें बदलाव करेंगे।
क्या कृषि क्षेत्र में सब्सिडी खत्म करना इन कानूनों की आखिरी मंशा है?
बिल्कुल नहीं। हम सब्सिडी खत्म नहीं कर रहे हैं।