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30 September 2019

आनुवांशिक बीमारियों से पीड़ित हैं सात करोड़ भारतीय, ज्यादातर रोग लाइलाज

बेंगलूरू में एक प्रयोगशाला में अभी अलग-अलग रंगों से कोड की हुई शीशियां बस लाई ही गई हैं। वहां उनकी छंटाई कर उन्हें सवालों की खोज में अनंत यात्रा पर भेजा जा रहा है। मशीनों के वर्गीकरण मात्र से अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि इसकी प्रक्रिया कितनी जटिल है क्योंकि ये ऑटोमेटिक मशीनें हैं।

शीशियों यानी ट्यूब में डीएनए के नमूने हैं। जानकारी से भरे इन सूक्ष्म अणुओं को पहले छांटना जरूरी है। फिर डीएनए के तारों को काटकर उन्हें इतना छोटा कर दिया जाता है कि मशीन उन्हें आसानी से पढ़ सके। सोचकर देखिए, लाखों अज्ञात, कॉपी किए हुए, अनुक्रमित किए गए डीएनए का ढेर। और सिर्फ चार अक्षरों-एटीजीसी के साथ डीएनए को जमाने का उलझाऊ दिमागी खेल। कुछ घंटों बाद ही देश में कहीं एक इंसान को परिभाषित करने वाला कोड तैयार है। इसके बाद शुरू होती है एक गहन खोज। एक विशाल ग्रंथ में वर्तनी की त्रुटियों, जिसने एक इंसान को बीमारी की गहराई में ला पटका।

कुछ के लिए कहानी यहां से शुरू होती है। चूंकि भारत में वास्तविक संख्या पता करना मुश्किल है, इसलिए हमें वैश्विक घटनाओं की दर के अनुमान पर लौटना होगा। अनुमान के मुताबिक करीब सात करोड़ भारतीयों के दुर्लभ आनुवंशिक रोगों से पीड़ित होने की संभावना है। इनमें से ज्यादातर का अभी तक कोई इलाज नहीं है। आमतौर पर, निदान का मार्ग लंबा और उबाऊ होता है क्योंकि जब तक इसका इलाज खोजने वाला जेनेसिस्ट यानी आनुवंशिकविद वास्तव में उनकी बीमारी को आनुवंशिक उत्परिवर्तन से जोड़ता है, उसे कई भ्रामक जानकारियों से जूझना पड़ता है जो इलाज के रास्ते में यहां-वहां बिखरी हुई हैं। कई मामलों में सही निदान के लिए सालों लग जाते हैं, कुछ में तो दशक भी। हां, लेकिन एक अच्छी बात यह है कि अब जीनोम सीक्वेंसिंग यानी जीनोम के क्रम को जमाने की लागत कम हो रही है। ज्यादातर किसी को आनुवंशिक विकार के कारण जीन उत्परिवर्तन का पता लगाने के लिए अपनी सभी वंशानुगत जानकारी के साथ पूरे जीनोम को अनुक्रमित करने की जरूरत नहीं होती है। केवल एक्सोम का क्रम दोबारा निर्धारित करने से काम चल जाता है। प्रोटीन कोडिंग जीन के साथ जीनोम के हिस्से इसमें पर्याप्त होते हैं। पांच साल पहले इस प्रक्रिया की लागत 80,000 रुपये थी। लेकिन आज यह 30,000 रुपये में हो जाती है। लेकिन इसके बाद एक सवाल देश के हजारों परिवार को परेशान करता है, अब क्या?

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हालांकि, आनुवंशिक रोग विकारों के एक बड़े संग्रह को संदर्भित करते हैं। कुछ असाधारण रूप से दुर्लभ हैं, जहां एक करोड़ में एक अलग है और इनमें से हर कोई निष्क्रिय पीड़ितों का छोटा समूह है। लेकिन जैसे-जैसे जीनोम सीक्वेंसिंग सुलभ होती जा रही है, तब से यह पता चला है कि दुर्लभ बीमारियां वास्तव में उतनी दुर्लभ नहीं हैं।   

लेकिन स्पेक्ट्रम के दोनों सिरों को देखना होगा। दिल्ली में कानून की प्रोफेसर 36 वर्षीय शिल्पी भट्टाचार्य बचपन में भरतनाट्यम सीखती थीं। बाद में उनके माता-पिता आलोक और सुधा भट्टाचार्य ने महसूस किया कि उसकी चाल अलग है और वह तेजी से नहीं चल पातीं। पहली बार उन्हें चलते हुए देखने पर लगता था कि वह आलसी थीं। कॉलेज में वार्षिकोत्सव के दौरान डांस प्रोग्राम के बाद उनके दोस्तों ने मजाक में कहा कि वह ऐसी लड़की हैं जो नाच तो सकती हैं पर चल नहीं सकतीं। लेकिन, एक युवा वयस्क के रूप में, बीमारी के लक्षण दिखाई देने लगे। कई सालों और तमाम डॉक्टरों से परामर्श के बाद, परिवार को आखिरकार पता चला कि शिल्पी को जीएनई मायोपैथी है, जो जीन म्यूटेशन के कारण होने वाली दुर्लभतम आनुवंशिक विकार है, जो मांसपेशियों को बर्बाद कर देता है। मॉलिक्यूलर बायोलॉजिस्ट सुधा कहती हैं, “हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके जीन में ऐसा कुछ था।” जीएनई मायोपैथी का न कोई बचाव है न कोई इलाज। सुधा कहती हैं, इसको पहचान सकते हैं, लेकिन इसका इलाज करने के लिए कोई डॉक्टर नहीं है।

अब डुशेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (डीएमडी) को ही लीजिए। जीन म्यूटेशन के कारण मांसपेशियों से संबंधित यह एक और विकार है जो, प्रोटीन डिस्ट्रोफिन का उत्पादन करने की शरीर की क्षमता को बदल देता है। चूंकि डिस्ट्रोफिन जीन एक्स गुणसूत्र के साथ जुड़ता है, इसलिए यह ज्यादातर केवल लड़कों को प्रभावित करता है। बैंगलुरु में रहने वाले रवदीप सिंह आनंद, जिनकी डीएमडी के साथ संघर्ष की शुरुआत 2003 में हुई, जब उनके 18 साल के बेटे करणवीर को यह बीमारी होने का पता चला था। आनंद कहते हैं, “हम मानकर चलते हैं कि दुनिया भर में भारत में ऐसे मामलों की संख्या सबसे ज्यादा है।” वह फिर दुनिया भर के आंकड़ों पर जाते हैं, डीएमडी 3,500 लड़कों में से एक को प्रभावित करता है। उनकी नजर में इसका कोई इलाज नहीं हैं, इस निराशा में भी आनंद दुर्लभ माता-पिता हैं। इलाज की दवा विकसित करने के लिए उन्होंने एक प्रयोगशाला शुरू की जो उनके बेटे की बीमारी के साथ जीने में मदद कर सकती है।

दूसरी तरह की जेनेटिक बीमारियां, खासकर रक्त संबंधी विकार जैसे, हिमोफीलिया और थेलेसेमिया आम हैं। अच्छी खबर है कि जीन थेरेपी में अनुसंधान की पहल परिणाम दिखा रही है। उदाहरण के लिए, हिमोफीलिया के लिए जीन थेरेपी के कई क्लिनिकल परीक्षण विश्व स्तर पर बहुत आगे के चरण में हैं। अगले एक-दो साल में इनकी स्वीकृत दवा आने की संभावना है। थेलेसीमिया के लिए एक जीन थेरेपी दवा को हाल ही में यूरोप में अनुमोदित किया गया है। भारत में स्टेम सेल रिसर्च (सीएससीआर) के केंद्र में हिमोफिलिया और थेलेसीमिया दोनों के लिए जीन थेरेपी विकसित करने के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया गया है। यह बेंगलूरू स्थित अनुसंधान संस्थान की एक इकाई है जो वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में स्थित है। देश में पहली बार हिमोफीलिया के लिए क्लिनिकल ट्रायल का प्रस्ताव रखा गया है और इसे नियामक संस्थान की हरी झंडी का इंतजार है। जबकि दूसरे तरह के क्लिनिकल ट्रायल्स दवाओं के विकास की प्रगति के रूप में पालन करेंगे।   

जीनोम प्रोफाइलिंग कंपनी स्ट्रेंड लाइफ साइंसेस के सह संस्थापक विजय चंद्रू कहते हैं, “मुझे लगता है कि हम आनुवंशिक विकारों के इलाज के लिए संभावनाओं के करीब पहुंच चुके हैं जो हाल तक मौजूद नहीं थे।” लेकिन आनुवंशिक रोगों की कहानी पीड़ितों की दुर्दशा, दुनिया की सबसे महंगी दवा, सरकार की नीति और नए उपचारों की आशा जैसे कई अध्यायों को एक साथ पिरोती है। चंद्रू कहते हैं, “अभी कई लड़ाइयां हैं जो लड़ी जानी है।”

बेंगलूरू के सरकारी इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ के दुर्लभ बीमारी वाले वॉर्ड में पांच मरीज आए हैं। 18 साल की उम्र से कम सभी लड़के एक निश्चित अंतराल के बाद ली जाने वाली दवा (इनफ्यूजन) के लिए आए हैं। उन्हें ये दवा ड्रिप चढ़ाकर दी जाएगी। इस वॉर्ड में रेयर डिसीजेज इंडिया (ओआरडीआई) संगठन ने बेंगलुरू में ह्यूमन जेनेटिक्स डे केयर खोला है, जिसमें औसतन हर महीने 112 बच्चों को इनफ्यूजन (कैथरेटर या ड्रिप की सहायता से दवा चढ़ाना) की जरूरत होती है। इस दौरान बच्चे या तो टीवी पर कार्टून देखते हैं या अपने फोन से चिपके रहते हैं। हफ्ते या पखवाड़े में दी जाने वाली दवा उन्हें सामान्य जीवन जीने में मदद करती है।   

यहां आने वाले नियमित मरीजों में से लगभग 25 मरीजो को लाइसोसोमल स्टोरेज विकार है। यह लगभग 50 विकारों का समूह है जिसके सात या आठ तरह के इलाज हैं। मरीज अलग-अलग तरीकों से इस इलाज का खर्च उठाते हैं। कुछ लोग दवा निर्माताओं द्वारा चलाए जा रहे परोपकारी कार्यक्रमों के अंतर्गत आते हैं। कुछ सरकार द्वारा वित्त पोषित या कर्मचारी राज्य बीमा निगम के माध्यम से मुआवजा पाते हैं। कुछ दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए पैसे देने वाले पहले राज्यों में से कर्नाटक एक था, लेकिन अक्सर यह अभी भी अदालती मामलों के माध्यम से आता है। लेकिन यह स्थायी यक्ष प्रश्न है कि हम उन रोगियों को कैसे बचा सकते हैं जिन्हें हर महीने लाखों की लागत वाली आजीवन सुरक्षा की आवश्यकता होती है?

इन सब में, गाउचर भारत में जानी-पहचानी बीमारी है। इसलिए नहीं कि इसकी पहचान आसान है, लक्षण में यह ऐसी ही लगती है जैसे मलेरिया- विकृत प्लीहा, बड़ा पेट और एनीमिया। इसलिए केवल एक विशेषज्ञ ही पहली नजर में गाउचर को पहचान सकता है। इसके उपचार के लिए एक वॉयल (शीशी) की लागत एक लाख रुपये से ऊपर है। मरीज को आजीवन इसके लिए हर साल लाखों रुपये की जरूरत होती है। 2014 में रिक्शा चालक मोहम्मद सिराजुद्दीन ने अपने बेटे मोहम्मद अहमद को बचाने के लिए दायर एक याचिका पर दिल्ली हाइकोर्ट दिल्ली हाइकोर्ट के जस्टिस मनमोहन ने इस बीमारी के संदर्भ में ऐतिहासिक फैसला दिया। मार्टिन लूथर किंग को याद करते हुए न्यायाधीश ने कहा, “असमानता के सभी रूपों में, स्वास्थ्य सेवा में अन्याय सबसे शर्मनाक और अमानवीय है।” न्यायाधीश ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि बच्चे को अभी और जब भी जरूरत हो, निशुल्क एनजाइम रिप्लेसमेंट थेरेपी मुहैया कराई जाए। कोर्ट के निर्देश के बाद 2017 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए एक राष्ट्रीय नीति लेकर आया, जिसे उसने यू-टर्न लेते हुए इस फरवरी में वापस भी ले लिया। मंत्रालय ने नई नीति बनाने के लिए समय मांगा है।      

माता-पिता के एक संगठन रेयर डिसीज इंडिया संगठन के सह-संस्थापक प्रसन्ना शिरोल कहते हैं, “कुछ नहीं होने से कुछ होना अच्छा है। यह एक झटका है क्योंकि मदद लेने वाले रोगियों के आवेदन जमा हो रहे हैं। अब वे कह रहे हैं कि 100 करोड़ रुपये का बजट था ही नहीं, नीति अच्छी नहीं थी।”

शिरोल इस बहस में नहीं पड़ना चाहते कि राज्य बोर्ड पर नहीं थे। वह कहते हैं, “हमारा तर्क है, राज्यों ने जीएसटी या आयुष्मान भारत के लिए सहमति नहीं दी, फिर भी उन्होंने इसे लागू करने का एक तरीका खोज लिया। मुझे नहीं लगता कि नीति को सही अर्थों में लागू करने के लिए कोई प्रयास किया गया था। यह सिर्फ ढकोसला था।”

चूंकि बीमा कंपनियां आनुवंशिक रोगों को कवर नहीं करतीं, इसलिए स्वाभाविक रूप से चीजें उपचार के लिए सरकारी दिशा निर्देशों पर लौट आती हैं। कई सालों से ऐसे मरीजों के लिए बहस कर रहे दिल्ली के वकील अशोक अग्रवाल कहते हैं, “जब तक हमारे पास सार्वजनिक स्वास्थ्य का अधिकार नहीं होगा तब तक यह समस्या बनी रहेगी।” शिरोल कहते हैं, “इन बीमारियों के प्रबंधन का हर कदम एक चुनौती पेश करता है।” भारत में पोप्प बीमारी की पहचान पहली बार शिरोल की बेटी निधि में की गई थी। निधि को न्यूरोमस्क्यूलर बीमारी है जिसमें मांसपेशियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और धीरे-धीरे एंजाइम की कमी के कारण कमजोर पड़ जाती हैं। बीस साल की निधि आठ साल की उम्र से छोटे से वेंटीलेटर के सहारे हैं क्योंकि उसकी सांस लेने वाली मांसपेशियां भी कमजोर हो गई हैं। बगल में वेंटीलेटर रखे वह अपनी व्हीलचेयर पर ही स्कूल और फिर कॉलेज गईं। सौभाग्य से, शिरोल ने इलाज के लिए दवा निर्माता कंपनी सनोफी-जिनजाइम द्वारा चलाए जा रहे परमार्थ कार्यक्रम में बेटी का नामांकन करा रखा है। इस बीमारी के इलाज की लागत सालाना 1.2 करोड़ रुपये आती है। निधि को हर पखवाड़े इनफ्यूजन की जरूत होती है।

और भी कई आनुवंशिक बीमारियां हैं जिनके बारे में आसानी से कुछ किया जा सकता है। बेंगलुरू में सेंटर फॉर ह्यूमन जेनेटिक्स की डॉ.  मीनाक्षी भट कहती हैं, “कुछ प्रभाव जरूरी नहीं कि उसे बचाव ही हो।” जैसे बीटा थेलेसेमिया वाले बच्चे को जिसे जीने के लिए हर महीने रक्त चढ़ाने की जरूतत होती है, का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के साथ उपचार किया जा सकता है। चयापचय की जन्मजात त्रुटियां जिनमें विकारों का बड़ा दायरा होता है, जहां महत्वपूर्ण पाचन कार्य करने वाले एंजाइम गायब होते हैं जो नवजातों में पहले दुग्धपान के बाद दिखाई पड़ने लगते हैं और तेजी से बढ़ते हैं। लेकिन ऐसे एक दर्जन से अधिक घातक चयापचय विकारों को विशेष आहार के साथ नियंत्रित किया जा सकता है, जिनमें से अब कुछ स्थानीय स्तर पर निर्मित होते हैं। भट कहती हैं, “यह जाना माना तथ्य है कि जहां शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 पर 30 हो जाती है, वहां आनुवंशिक रोग और मृत्यु दर और ज्यादा होती है।” वह सुझाव देती हैं कि कई भारतीय राज्यों ने आइएमआर का वह स्तर हासिल कर लिया है इसलिए नवजातों के जांच कार्यक्रम को तैयार किया जाना चाहिए। वह कहती है, “हमें इन विकारों को देखना ही चाहिए।”  

ओआरडीआई के शिरोल का कहना है कि भारत या दुनिया भर में आनुवंशिक विकार के पहचान के लिए औसत अवधि लगभग सात साल है। लेकिन इससे भी बड़ी समस्या यह है कि भारत में पर्याप्त प्रशिक्षित आनुवंशिकीविद नहीं हैं। भट का मानना है कि देश में 30 केंद्रों में इलाज करने वाले लगभग 100 आनुवंशिकीविद हो सकते हैं। वह कहती हैं, “इनकी संख्या आवश्यकता के मुकाबले सौ गुना कम है।” देश में लगभग आधा दर्जन प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं, जिसमें उनका संस्थान भी शामिल है, जो मेडिकल जेनेटिक्स के निदान के लिए विशेष फेलोशिप प्रशिक्षण प्रदान करता है।

सुधा भट्टाचार्य कहती हैं, “हम चाहते हैं कि चिकित्सक यह समझें कि यह रोगियों का कोई छोटा समूह नहीं है।” वह इसे कैंसर की उपमा देती हैं। वह कहती हैं, “यदि आप हर एक प्रकार के कैंसर के बारे में बात करते हैं, तो हो सकता है रोगियों की संख्या कम लगे। लेकिन यदि आप इन सभी को एक साथ रख दें तो यह संख्या बड़ी हो जाती है। यहां भी ठीक ऐसा ही है।”

बहुत सारे हो रहे प्रयासों की वजह से धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है। 2013 में स्थापित जीनोमिक्स रिसर्च एंड डायग्नोस्टिक्स कंपनी मेडजीनोम लैब्स का कहना है कि पिछले दो सालों में उनकी लैब में नमूनों की संख्या में बड़ा इजाफा हुआ है। कंपनी के सीओओ डॉ. वी. एल. रामप्रसाद का कहना है, “आज भी हमारे यहां 95 फीसदी नमूने बड़े शहरों से आते हैं।” वह कहते हैं, उदाहरण के लिए हमारी लैब में सिस्टिक फाइब्रोसिस की जांच के मामले नियमित रूप से हर दिन आते हैं। बाहर कहीं जो बीमारी दुर्लभ वैसा भारत में नहीं है। हमारा पैमाना बिलकुल अलग है।

इस बीच, सेमीकंडक्टर्स के लिए मूर के नियम की तुलना में जीनोम अनुक्रमण लागत तेजी से गिर रही है। 2014 तक, पहला मानव जीनोम अनुक्रमित होने के 15 साल से भी कम समय के बाद, मरीज 1,000 डॉलर (अंदाजन 70,000 रुपये) में जीनोम सीक्वेसिंग करा सकता है। स्ट्रैंड के विजय चंद्रू कहते हैं, “पूरे जीनोम के लिए सौ डॉलर काफी हैं। अगर दो साल में नहीं, तो तीन या चार सालों में हम ऐसी स्थिति में होंगे जहां पूरे मानव जीनोम को 100 डॉलर (लगभग 7,000 रुपये) में अनुक्रमित किया जा सकेगा। जीनोमिक मेडिसिन रिसर्च भी फ्रंटर्स को आगे बढ़ा रही है जो, आनुवंशिक विकारों के लिए एक ही बार के इलाज के वादे को पूरा करना चाहते हैं। अब तक नियमित इन्फ्यूजन से इस बीमारी का इलाज किया जा रहा है।

कैंसर में ये तकनीकें अग्रणी रहीं

लेकिन हाल ही दिनों में दो आनुवंशिक रोगों के लिए पहले जीन उपचारों को मंजूरी मिल गई है। यूरोपियन यूनियन ने अमेरिकी फर्म ‘ब्लूबर्ड बायो’ को बीटा थेलेसेमिया के उन मरीजों (12 वर्ष या उससे ऊपर) में जीनथेरेपी की सशर्त अनुमति दी है जो अब तक ब्लड ट्रांसफ्यूजन (खून चढ़ाना) पर निर्भर थे। जबकि नोवार्टिस कंपनी एवेक्सिस को हाल ही में स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी (दो साल से कम के बाल रोगी) के इलाज के लिए यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से इलाज की अनुमति मिली है।   

वैश्विक स्तर पर इन पहेलियों को सुलझाने के लिए कई प्रयास हो रहे हैं। गोल्डमैन सैक्श की 2018 की रिपोर्ट में आनुवांशिक बीमारियों के लिए जीन थेरेपी पर काम करने वाली कम से कम 42 कंपनियों को सूचीबद्ध किया है। जीन थेरेपी दो दृष्टिकोणों पर निर्भर करती है - शरीर में एक अच्छे जीन को पेश करने का विचार। पहला है- ‘जीन इंट्रोडक्शन’ इसका मतलब है हानिरहित वायरस के माध्यम से ‘सामान्य’ जीन को शरीर में भेजना जो अंदर जाकर अपने लिए सही स्थान खोज लेगा। दूसरी विधि, ‘जीन करेक्शन’ है। यानी अलग-अलग तरीकों से खराब जीन में सुधार लाना।  

भारत में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्त पोषित वेल्लोर का स्टेम सेल रिसर्च सेंटर दोनों वेक्टर-आधारित और सीआरआईएसपीआर/सीएएस 9 जीन रिप्लेसमेंट और हिमोफिलिया के उपचार के लिए सुधार दृष्टिकोण और थैलेसीमिया और सिकल सेल रोग जैसे प्रमुख हीमोग्लोबिन विकारों की जांच करते हैं।

कुछ जीन सुधार अभी प्रारंभिक अवस्था में है। जैसे, जो लोग कैंची की एक जोड़ी की तरह प्रोटीन के एक प्रकार, सीआरआईएसपीआर सीएएस 9 का इस्तेमाल कर, डीएनए अणु को चीर सकते हैं ताकि चीरा लगी हुई जगह पर मनचाहा सुधार किया जा सके। इसे ऐसे समझिए जैसे किसी वाक्य में बीच में एक शब्द गलत हो और आप इसे सुधार दें। सिकल सेल एनीमिया के लिए जीन सुधार पर काम कर रहे सीएसआईआर के जीनोमिक्स और इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक देबज्योति चक्रवर्ती कहते हैं, “यह बिलकुल वैसा ही है जैसे आप वर्ड फाइल में गलत शब्द पर कर्सर रखे, उसे मिटाएं, उसकी जगह नया शब्द लिखे और फाइल  सेव कर दें। बस ठीक यह ऐसे ही काम करता है। यह भी डीएनए में वर्तनी की गलती की तरह है। हम सीएएस 9 को कर्सर की तरह इस्तेमाल करते हैं। हम एक डबल स्ट्रैंड बनाते हैं और नए न्यूक्लियोटाइड में डालते हैं और फिर कोशिका टूटफूट की मरम्मत करती है उसकी प्रतिकृति बनाती है। इसलिए जानकारी सहेज ली जाती है।”

चक्रवर्ती का कहना है कि सभी सिद्धांतों के सबूतों का अध्ययन लगभग पूरा कर लिया गया है और अब लैब चूहों पर प्री-क्लीनिकल अध्ययन करने के लिए तैयार हैं। वह कहते हैं, “हम जिस चीज में भारी निवेश कर रहे हैं वह इस प्रक्रिया को बहुत सुरक्षित, बहुत सटीक बनाने की कोशिश कर रही है क्योंकि सीएएस 9 एक प्रोटीन है जो गलतियां भी कर सकता है। गलती का मतलब है, जहां म्यूटेशन हो रहा है उस जगह न जाकर प्रोटीन किसी और जगह चला जाए और डीएनए ब्रेक कर दे। वह कहते हैं, “इस तरीके को एकदम सटीक बनाने के लिए पूरी दुनिया में बहुत से शोध हो रहे हैं।”

अन्य जगहों की तरह, भारत में भी अब तेजी से बढ़ रही गुमनाम या अवैध दवाओं पर नजर रखने के लिए दिशा निर्देश हैं। लेकिन, अपने आप में, जैसा कि विजय चंद्रू कहते हैं, इन दवाओं पर काम शुरू करने के लिए इनोवेटरों को जो समस्या आती है, उसे हल नहीं किया जाता। वह कहते हैं, “हमें यहां सही वित्तीय साधनों के साथ आने की जरूरत है। इस बीच आपको इन मरीजों के लिए कुछ चाहिए।”  

यह माता-पिता का ही समूह है जो हर दिशा में मेहनत कर रहा है। सुधा भट्टाचार्य कहती हैं, “भारत के लिए अब समय आ गया है कि वह इसमें अपना योगदान दे क्योंकि पहले यहां तकनीक नहीं थी। लेकिन अब यहां भी जीन थेरेपी हो रही है।” दस साल पहले जब उनकी बेटी शिल्पी को जीएनई मायोपैथी का पता चला था, तो आनुवंशिकीविद सुधा और आलोक इसके इलाज को लेकर आशान्वित थे, क्योंकि दुनिया की कम से कम तीन प्रयोगशालाएं इस पर काम कर रही थीं। लेकिन समय बीत रहा है और केवल तत्काल मदद की जरूरत में इजाफा हुआ है। शिल्पी के माता-पिता कहते हैं, “हमें इसे रोगियों के पास जाने के तार्किक निष्कर्ष पर ले जाना चाहिए। इसके लिए आपको ज्यादा मदद की जरूरत है। दुनिया में अन्य जगहों पर, केवल जीन थेरेपी करने वाले कई स्टार्टअप्स हैं। यही कुछ वजहें हैं जो हमें परेशान करती हैं।”   

पिछले कुछ सालों में, उन्होंने जीएनई मायोपैथी के बारे में देश में चिकित्सा बिरादरी और वैज्ञानिकों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए एक संगठन की स्थापना की है। सुधा कहती हैं, “आप यह जानकर हैरान होंगे, इनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन लगभग हर महीने इस सूची में नए मरीज जुड़ रहे हैं। यदि हम भारत में इसके लिए कुछ नहीं करेंगे तो फिर यह कौन करेगा?”

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TAGS: genetic diseases, Genome, incurable diseases, rare diseases, health, patients
OUTLOOK 30 September, 2019
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