Advertisement
14 January 2016

चिकित्सा का पवित्र पेशा और डर का धंधा

‌त्रिभुवन तिवारी

बीते सितंबर महीने की बात है, इस संवाददाता को अपने 84 वर्षीय बुजुर्ग पिता को हृदय संबंधी कुछ परेशानियों के कारण दिल्ली के शालीमार बाग स्थित एक चिकित्सक के पास ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने शुरुआती जांच की और पहले की एक जांच रिपोर्ट देखी और कहा कि तत्काल एंजियोप्लास्टी करनी पड़ेगी और एक स्टेंट से काम चल जाएगा। यही नहीं तीन महीने पुरानी एक रिपोर्ट देखकर उन्होंने संवाददाता से कहा, इन्हें तो एक बार दिल का दौरा पड़ भी चुका है, देर करने से खतरा बढ़ जाएगा। स्वाभाविक ही था कि ऐसी स्थिति में कोई भी डर जाएगा मगर इस संवाददाता ने दूसरे डॉक्टर की सलाह लेने का फैसला किया। दूसरे डॉक्टर वर्षों के परिचित थे। सारी रिपोर्ट देखने के बाद उन्होंने कुछ दवाएं दीं और 15 दिन बाद फिर बुलाया। 15 दिन बाद उन्होंने कहा, यह तो सही है कि हृदय की स्थिति खराब है मगर एंजियोप्लास्टी की जरूरत नहीं है।

ये एक छोटा सा उदाहरण है कि चिकित्सा के पेशे में मरीजों को डराकर खर्चीला इलाज और अनावश्यक जांच करवाने के लिए किस तरह मजबूर किया जाता है। पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने डॉक्टर नरेश त्रेहन जैसे ख्यातिप्राप्त हृदय रोग सर्जन द्वारा जारी की गई फेफड़ों की दो तस्वीरों के सहारे एक विज्ञापन जारी किया और यह दर्शाने की कोशिश की कि अधेड़ उम्र के आम हिमाचली के मुकाबले दिल्ली के अधेड़ों का फेफड़ा काला पड़ चुका है। इसे भी डर के इसी धंधे का विस्तार माना गया। हालांकि यह विज्ञापन दिल्ली में प्रदूषण की खराब स्थिति को बताने के लिए जारी किया गया था मगर यह सवाल लाजिमी है कि क्या दिल्ली में हर व्यक्ति का फेफड़ा उतना ही काला पड़ चुका है? स्वाभाविक रूप से इसका जवाब ना में है और आउटलुक से बातचीत में खुद डॉक्टर त्रेहन भी मानते हैं कि सभी का फेफड़ा उतना खराब नहीं हो सकता मगर वह इस विज्ञापन का यह कहते हुए बचाव करते हैं कि एक बड़े उद्देश्य के लिए इसे जारी किया गया है और अगर इससे डर कर भी लोग गाड़ियों से तौबा करते हैं और कार पूलिंग जैसे उपाय अपनाते हैं तो इससे समाज का दोहरा भला होगा। एक तो प्रदूषण कम होगा और गाड़ियां कम निकलेंगी, दूसरा लोगों में आपसी संबंध मजबूत होगा। डॉक्टर त्रेहन अपनी जगह ठीक हो सकते हैं मगर इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि देश में चिकित्सा के पेशे में डर का एक अनावश्यक माहौल बनाया जा रहा है। कॉरपोरेट अस्पताल अपने डॉक्टरों को मोटा वेतन देते हैं मगर लोगों को यह नहीं पता होता कि इस वेतन की भरपाई कैसे की जाती है।

दिल्ली स्थित नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट के सीईओ और प्रसिद्ध हृदय रोग सर्जन डॉ. ओ.पी. यादव आउटलुक को बताते हैं कि कई कॉरपोरेट अस्पतालों में डॉक्टरों को प्रतिदिन की कमाई का टार्गेट दिया जाता है। बाह्य रोगी विभाग के हर कमरे, हर ऑपरेशन थियेटर का टार्गेट तय होता है कि इनसे रोजाना कम से कम कितना पैसा अस्पताल के खाते में आना ही चाहिए। सारे नहीं तो अधिकांश कॉरपोरेट अस्पतालों में ऐसा खुलकर होता है। अब किसी डॉक्टर के पास अगर दिन में दो या तीन गंभीर हालत वाले मरीज आ गए तब तो बिना बेईमानी किए उसका उस दिन का टार्गेट पूरा हो जाएगा मगर यदि ऐसे मरीज नहीं आए तो उसे सामान्य मरीजों को ही हालत गंभीर बताकर उससे मोटा पैसा खर्च करवाने का प्रयास करना होगा और यहीं से शुरू होता है चिकित्सा में डर का धंधा।

Advertisement

डॉक्टर यादव के बात की पुष्टि ऐसे ही एक नेत्र अस्पताल में काम करने वाले सर्जन भी करते हैं। नाम नहीं छापने के आग्रह पर वे बताते हैं कि वेतन के दस गुना कमाई का लक्ष्य अस्पताल द्वारा तय करना आम बात है। एक और डॉक्टर नाम न छापने की शर्त पर आउटलुक को बताते हैं कि कई अस्पतालों में मरीजों को डॉक्टर तात्कालिक इलाज के नाम पर एक ऐसा इंजेक्‍शन लगा देते हैं जिससे वह तत्काल जोर से छटपटाने लगता है। इस इंजेक्‍शन का कोई खास नुकसान नहीं होता और थोड़ी देर के बाद मरीज शांत हो जाता है मगर तत्काल उसके परिजन उसकी हालत देखकर डर जाते हैं और डॉक्टर के कहे अनुसार इलाज करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं। दरअसल पूरे देश में अधिकांश निजी अस्पतालों में ऐसा होना आम है।

दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मेडिसीन विभाग के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में फोर्टिस-सी डॉक अस्पताल के डायरेक्टर प्रोफेसर डॉक्टर अनूप मिश्रा भी मानते हैं कि चिकित्सा के पेशे में मरीजों को डराने का काम हो रहा है। सर्जरी के फील्ड में ऐसा करने के लिए निजी अस्पतालों द्वारा दिया जाने वाला टार्गेट एक वजह हो सकती है जबकि मेडिसीन के क्षेत्र में अलग वजहों से यह ट्रेंड देखने को मिल रहा है। मेडिसीन के डॉक्टर कई बार खुद को सुरक्षित रखने के लिए कई सारी जांच करवाते हैं। दरअसल शारीरिक जांच करने के बावजूद इन डॉक्टरों को कई बार यह बात समझ नहीं आती कि मरीज को समस्या क्या है, ऐसे में वे एक के बाद दूसरी जांच करवाते चले जाते हैं। इसके लिए पूरी तरह देश में मेडिकल शिक्षा की गिरती स्थिति जिम्मेदार है जो उत्कृष्ट श्रेणी के डॉक्टर तैयार नहीं कर पा रही। डॉ. मिश्रा यह भी कहते हैं कि पूरे देश में चिकित्सा क्षेत्र के लिए कैग की तर्ज पर एक ऑडिट सिस्टम बनाए जाने की सख्त जरूरत है। ऐसा सिस्टम जो यह देखे कि कौन सा अस्पताल अपने यहां आने वाले मरीजों को किस तरह का इलाज दे रहा है। जैसे कि किसी अस्पताल में यदि हृदय रोग के संदेह में 10 मरीज आए और अस्पताल ने सभी की सर्जरी या एंजियोप्लास्टी कर दी तो निश्चित रूप से उस अस्पताल में कुछ गड़बड़ है। स्वास्थ्य ऑडिट से यह गड़बड़ी पकड़ में आ जाएगी।

हालांकि डॉ. यादव इस बारे में दूसरी राय रखते हैं। डॉ. यादव कहते हैं कि देश में मेडिकल शिक्षा को सस्ता किए बिना इस संकट से नहीं निपटा जा सकता। वह साफ कहते हैं कि एमबीबीएस की सामान्य पढ़ाई के लिए 50 से 60 लाख रुपये और उसके बाद विशेषज्ञता हासिल करने के लिए आगे की पढ़ाई के लिए कम से कम 1 करोड़ और कुछ खास विभागों में 2 करोड़ रुपये तक लगते हैं। पढ़ाई के बाद अगर कॉरपोरेट अस्पतालों में मैनेजमेंट का टार्गेट और अगर अपना कोई केंद्र खोला तो उपकरण, स्टाफ का खर्च अलग। एक डॉक्टर इसकी भरपाई कैसे करेगा? ऐसे में उसके द्वारा अपनाए गए तरीकों को अनैतिक कैसे करार दे सकते हैं? स्थिति बदलने के लिए पहले सरकार और समाज को बदलना होगा। डॉ. यादव यह भी कहते हैं कि चिकित्सा के पेशे में बेईमानी कोई बाहर से आई चीज नहीं है। डॉक्टर भी हमारे समाज से ही आते हैं और वही करते हैं जो बचपन से अपने आस-पास घटता देखते हैं।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के मानद महासचिव और वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. के.के. अग्रवाल आउटलुक से कहते हैं कि समाज में एक तबका ऐसा होता है जो कॅरिअर में गलत तरीके अपनाता है और डॉक्टरी का पेशा अलग नहीं है। यहां भी कुछ लोग ऐसे हैं मगर खास बात यह है कि इस बारे में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम बेहद सख्त हैं। यदि किसी भी मरीज को लगता है कि डॉक्टर उसकी स्थिति के बारे में उसे सही जानकारी नहीं दे रहा है तो वह काउंसिल को शिकायत कर सकता है और शिकायत सही पाए जाने पर संबंधित डॉक्टर का रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा सकता है।

नियमों की दुहाई अपनी जगह, हकीकत तो यही है कि मरीज अब भी डॉक्टरों पर भरोसा रखते हैं। डॉक्टरों संग दुर्व्यवहार की कुछ घटनाएं अपवाद हो सकती हैं। मगर मरीजों को अब यह जानने की जरूरत है कि कॉरपोरेट अस्पतालों में डॉक्टरों के लिए पीएलपी यानी परफॉर्मेंस लिंक्ड पे (प्रदर्शन आधारित भुगतान) व्यवस्था लागू है और यहां प्रदर्शन का अर्थ यह नहीं है कि किसी डॉक्टर ने कितनी दक्षता से मरीज का इलाज किया है बल्कि अर्थ यह है कि डॉक्टर ने अपने वेतन के अनुरूप कितना पैसा कमाकर अस्पताल को दिया है। यह स्थिति निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: अस्पताल, डॉक्टर, डर का धंधा, कॉरपोरेट अस्पताल, डॉ. अनूप मिश्रा, डॉ. ओ.पी. यादव, डॉ. नरेश त्रेहन, दिल्ली सरकार, प्रदूषण
OUTLOOK 14 January, 2016
Advertisement