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16 February 2015

जंगल की राह और चट्टान का जिगर

उपेंद्र स्वामी

डांडेली टाइगर रिजर्व के प्रवेश स्थल पर जब मैं पहुंचा तो वहां मेरे और मेरी गाड़ी के ड्राइवर के अलावा और कोई न था। न कोई चौकीदार और न ही कोई अन्य सरकारी अमलेदार। दूसरे सैलानियों के पहुंचने से पहले जंगल में अलसुबह घुसकर जानवरों को देखने की चाह में मैं शायद कुछ ज्यादा ही जल्दी पहुंच गया था। वैसे ईमानदारी से कहूं तो मुझे दोनों ही चीजों की उम्मीद न थी - न तो किसी सैलानी के होने की और न ही किसी जानवर के दिखने की। जानवर से यहां मेरा आशय बाघ, तेंदुआ या भालू वगैरह से है- किसी हिरण, नीलगाय वगैरह से नहीं। उत्तर कर्नाटक के उत्तर कन्नडा जिले में डांडेली वन्यजीव अभयारण्य और डांडेली-अंशी टाइगर रिजर्व कर्नाटक का दूसरा सबसे बड़ा अभयारण्य है। लेकिन इस इलाके में सैलानियों की आवक ज्यादा नहीं है। कम से कम उत्तर व मध्य भारत के टाइगर रिजर्वों जैसी तो कतई नहीं। मौसम में नमी थी। बारिश तो नहीं थी लेकिन नमी के कारण कोहरा सा था। ऐसे में जंगल में जानवर दिखने की संभावना कम से कमतर हो जाती है। वैसे डांडेली-अंशी में चालीस से ज्यादा बाघ बताए जाते हैं।

मेरा डर सही साबित हुआ। कुछ हिरण और प्रवासी परिंदों के अलावा कुछ देखने को न मिला। जंगल के बीचों-बीच पहाड़ी की चोटी पर स्थित साइक्स प्वाइंट को कर्नाटक की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक कहा जाता है। यहां से नीचे घाटी में बहती काली नदी का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। मीलों दूर तक सब तरफ घने अछूते विशाल जंगल का अद्भुत नजारा। ऐसे में घाटी में पींगे भरते किसी रंगबिरंगे मालाबार हॉर्नबिल की झलक मिल जाए तो बात ही क्या। वह ऐसी जगह थी जहां जाकर तबियत खुश हो गई और कोई बड़ा जानवर न दिख पाने का गम हलका हो गया।

सिंथेरी रॉक के बारे में काफी सुना था। मेरा अगला पड़ाव वहीं था। वैसे तो यह चट्टान डांडेली रिजर्व के भीतर ही है लेकिन जंगल के भीतर से वहां जाने का रास्ता नहीं। वहां जाने के लिए बेस कैंप लौटकर बाहर उलावी के रास्ते जाना होता है। चट्टान से थोड़ी दूर तक आप जीप व छोटे वाहनों से जा सकते हैं। फिर बांस के घने जंगलों से होता हुआ थोड़ा लगभग पौन किलोमीटर का पैदल रास्ता और उसके बाद नीचे उतरने की लगभग दो सौ सीढ़ियां। सिंथेरी रॉक तीन सौ फुट ऊंची एक ही ग्रेनाइट पत्थर से बनी खड़ी चट्टान है जिन्हें अंग्रेजी में मोनलिथिक रॉक कहा जाता है। यह इस तरह की भारत की सबसे बड़ी चट्टानों में से है। अब भूवैज्ञानिक कहते हैं कि यह चट्टान अरबों सालों पहले किसी ज्वालामुखी के विस्फोट से बनी होगी।

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चट्टान के नीचे कानेरी नदी बहती है जो आगे काली नदी में जाकर मिल जाती है। यानी जब आप चट्टान देखने जाते हैं तो कानेरी नदी का प्रवाह आपके और चट्टान के बीच होता है। कानेरी का प्रवाह अक्सर इतना तेज होता है कि चट्टान की तरफ जाने की कोई गुंजाइश नहीं बचती, वैसे भी वह प्रतिबंधित है। हजारों-लाखों सालों से लगातार बहती नदी ने नीचे से चट्टान को काट दिया है, उससे चट्टान की तलहटी में कई गुफाएं-सी बन गई हैं। चट्टान में मधुमक्खी के पचासों विशालकाय छत्ते हैं। कबूतरों और कई अन्य परिंदों ने भी वहां शरणस्थली बना रखी है। कहा जाता है कि पिछली सदी में किसी अंग्रेज महिला ने इस जगह को खोजा था जिसके नाम पर ही इस चट्टान का नाम पड़ गया।

चट्टान वाकई एक अलग ही विराटता का अनुभव कराती है। प्रकृति की विशालता का अनुभव भी यहां आकर होता है। चूंकि लोग यहां एक चट्टान को देखने आते हैं इसलिए यहां नीचे नदी तक उतरने के रास्ते पर दोनों तरफ तमाम तरह की चट्टानों के नमूने और उनके बारे में जानकारियां भी पत्थरों के स्तंभ पर लगाकर रखी गई है। आम दिनों में यहां कम ही लोग आते हैं लेकिन उलावी शहर में बासवेश्वर मंदिर में आने वाले श्रद्धालु कभी-कभी यहां जुट जाते हैं। मंदिर के सालाना मेले के समय में तो मजमा सा लग जाता है। हालांकि अगर वाहनों को बाहर मुख्य सड़क पर ही रोक दिया जाए तो शायद जंगल की बेहतरी होगी और लोगों को भी थोड़ा ज्यादा प्राकृतिक सुकून मिलेगा।

 

और क्या

डांडेली का जंगल उन जगहों में से है जहां जाकर बाघ या बड़े जानवर न दिखें तो भी निराश नहीं होना पड़ता क्योंकि अनुभव के लिए कई और खूबसूरत व दुर्लभ चीजें हैं। जैसे मुझे सिंथेरी जाते समय मालाबार जाइंट स्क्वीरल (विशाल गिलहरी) देखने का इकलौता अनुभव मिला। वैसे डांडेली के भीतर व आसपास के इलाके में दो सौ से ज्यादा प्रजातियों के पक्षी देखने को मिल जाते हैं। अभयारण्य के भीतर ही डांडेली के बेस कैंप से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर कावला गुफाएं हैं। घने जंगल के भीतर इन गुफाओं तक पहुंचने के लिए पहले 375 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं और फिर चालीस फुट रेंगना पड़ता है। लाइमस्टोन की इन स्टैलेगमाइट गुफाओं में कई आकृतियां प्रकृति ने निर्मित कर रखी हैं। कुछ को तो लोग शिवलिंग के तौर पर पूजते भी हैं। इसी के चलते गुफा के बाहर एक छोटा सा मंदिर भी खड़ा हो गया है। 

इसी तरह डांडेली के उत्तर-पश्चिमी छोर पर कैसल रॉक है। यह घाट सेक्शन में एक खूबसूरत रेलवे स्टेशन है जो बेलगाम से वास्को जाने वाली रेल लाइन पर है। इस स्टेशन से ही कर्नाटक की तरफ ब्रैगेंजा घाट की शुरुआत होती है। पहले यहां मीटरगेज की लाइन थी। कोंकण रेलवे बनने से पहले दिल्ली से गोवा आने के लिए मिरज तक ब्रॉडगेज और फिर मिरज से बेलगाम, लोंडा होते हुए मड़गाव व वास्को तक छोटी लाइन थी। इसी लाइन पर कैसल रॉक से गोवा के कुलेम स्टेशन के बीच के सफर में मशहूर दूधसागर फॉल्स भी है। डांडेली अभयारण्य का पश्चिमी सिरा गोवा की भगवान महावीर वाइल्डलाइफ सेंक्चुरी को भी लगभग छूता सा है। दूधसागर फॉल्स उसी भगवान महावीर वाइल्डलाइफ सेंक्चुरी में आता है। जब गोवा पर पुर्तगालियों का शासन था तो कैसल रॉक स्टेशन पुर्तगाली गोवा और अंग्रेजी हुकूमत वाले भारत के बीच संपर्क स्टेशन का भी काम करता था। तब यहां बड़ी चहल-पहल हुआ करती थी। अब यह प्रकृति की गोद में, जंगल से घिरा एक खूबसूरत छोटा सा स्टेशन है।

इसके अलावा काली नदी के किनारे बांस के जंगलों के बीच मौलंगी में कैंपिंग की भी कई शानदार जगहें हैं। यहां काली नदी राफ्टिंग के शौकीनों के बीच भी बहुत लोकप्रिय है। यानी आप रोमांच के लिए भी डांडेली जा सकते हैं।

 

कैसे पहुंचे

डांडेली-अंशी टाइगर रिजर्व और सिंथेरी रॉक कर्नाटक के उत्तरी कन्नडा जिले में है। निकट का सबसे बड़ा शहर कर्नाटक का हुबली है जो लगभग 75 किलोमीटर दूर है। बेलगाम यहां से लगभग 110 किलोमीटर है। गोवा भी यहां से ज्यादा दूर नहीं। वास्को या मड़गाव यहां से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर होंगे। बेलगाम व हुबली में हवाईअड्डे भी हैं और बड़े रेल स्टेशन भी। लिहाजा डांडेली तीनों ही तरफ से आया जा सकता है। डांडेली आने के लिए बसों और टैक्सियों की भी अच्छी व्यवस्था है। यहां साल में कभी भी जाया जा सकता है लेकिन अक्टूबर से लेकर मार्च का समय बेहतरीन है। यहां उत्तर भारत जैसी ठंड भी नहीं पड़ती। रुकने के लिए डांडेली बेस कैंप में रेस्ट हाउस भी है। या फिर आसपास के किसी बड़े शहर में रुककर दिनभर के लिए यहां आ सकते हैं।

 

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TAGS: पर्यटन, डांडेली, जंगल, चट्टान, टाइगर रिजर्व
OUTLOOK 16 February, 2015
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