तुम कहीं चहलकदमी पर निकले हो, नहीं?
आश्चर्य नहीं कि जब शो पर पर्दा गिरा तो राडिया टेपों के जरिये उजागर हुए लोगों की उड़नशील महत्वाकांक्षाओं के लिए यह प्रकरण सिर्फ थोड़ी झेंप पैदा करने वाली क्लिम साबित हुआ। लेकिन विनोद मेहता के लिए नतीजे गंभीर साबित हुए। मुझे कोई शक नहीं कि उनका अंत करीब लाने में इन टेपों की भूमिका थी।
बहरहाल, उनके जाने के साथ शायद अडिग, अबूझ और अहमक संपादक का युग भी चला गया। इसलिए नहीं कि अब आसपास अहमक लोग नहीं हैं बल्कि इसलिए कि आज के हमारे माहौल में उनका काम करना लगातार मुश्किल हो रहा है। विनोद मेहता के जाने पर तरह-तरह के लोगों की शोकाभिव्यक्ति, जिनमें पेशेवराना उनके बिलकुल उलटे लोग शामिल हैं, जितनी उनके लिए थी उतनी ही स्वतंत्र-चेता संपादक की अवधारणा के खत्म होने को लेकर भी थी। कुछ मायनों में आउटलुक के मालिकों को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने प्रतिष्ठान के निशाने पर होने और अपने कार्यालयों पर मारे गए तमाम छापों के बावजूद विनोद मेहता जैसे मनमौजी संपादक को जगह दी। जहां तक हम जैसे बाकी लोगों की बात है, विनोद के लिए शोक मनाते वक्त भी हम यह उम्मीद छोड़ नहीं सकते कि भविष्य में भी स्वतंत्र संपादक होंगे।
मुझे विनोद की कमी बहुत खलेगी। उन्होंने एक लेखक के रूप में मेरी जिंदगी में इतनी अहम भूमिका निभाई।
कई मसलों पर हमारे मतभेद थे - कांग्रेस पार्टी, कश्मीर (स्पष्ट है), जाति के पीछे की राजनीति और मीना कुमारी पर उनकी हाल में पुनर्संशोधित अजीबोगरीब जीवनी। लेकिन इस बार हमारा मतभेद स्थायी और अपरिवर्तनीय है। वह कुछ दिन और रह सकते थे। लेकिन वह नासपीटे तो चले ही गए। यह बेहूदगी है। मैं सहमत नहीं हूं।
वर्ष 1997 में द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग के प्रकाशन के बाद मुझे भान हुआ कि पश्चिमी मीडिया के लिए पूर्व की व्याख्याकार बन जाने का जोखिम मेरे सामने था। मैं कुछ भी लिखूं, कुछ भी तू-तू मैं-मैं करूं, किसी भी गुंडागर्दी में शरीक हूं, मैं यहां करना चाहती थी। इसलिए नहीं कि मैं कोई भारी राष्ट्रभक्त हूं इसलिए भी नहीं कि यह मेरा देश है बल्कि सिर्फ इसलिए कि मैं यहीं रहती हूं। विनोद मेहता इस उद्यम में मेरे पार्टनर हो लिए। मैंने जो कुछ भी 1998 से लेकर अब तक लिखा है वह सबसे पहले उन्होंने आउटलुक में प्रकाशित किया। हमारे गठजोड़ के बिलकुल शुरू में, किसी प्रतिकूल टिप्पणी (जिसकी बहुतायत थी) के बावजूद हम दोनों जानते थे कि हम एक-दूसरे पर कोई कृपा नहीं कर रहे। मेरा मानना है कि किसी भी रिश्ते में यह एक दुर्लभ और हैरतअंगेज चीज है। साथ काम करने के कई सालों के दौरान हमने कई बार फोन पर तो एक-दूसरे से बात की, लेकिन शायद ही कभी मिले। मैं उनके घर कभी नहीं गई हूं। वह मुझसे मिलने सिर्फ एक बार, हाल में, आए थे। लेकिन वह मिलने-जुलने से ज्यादा इंस्पेक्शन दौरे जैसा था। मेरे रहन-सहन के बारे में अपनी अवधारणा की पुष्टि के लिए मानो वह आए थे। यूं ही चहलकदमी करते हुए आए, चारों तरफ देखा और बाहर निकल लिए। मुझे लगता है कि मेहमान और मेजबान की भूमिका निभाना हम दोनों को सही-सही नहीं आता था। हमारा सामाजिक जीवन बस इतनी ही दूर तक गया।
फिर भी इस अजीबोगरीब, संक्षिप्त, न्यूनतम रिश्ते से पांच खंडों में निबंधों और साक्षात्कारों के संकलन का एक पूरा वांग्मय सामने आया। ये निबंध और साक्षात्कार बाद में भारत और विदेश में कई भाषाओं के समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। विनोद मेहता का इन सब से ञ्चया लेना-देना? वाकई, बहुत कुछ। मैंने निबंध लिखे, हां, लेकिन जिस तीव्रता और आजादी से लिखा, उसके पीछे यह बोध था कि विनोद मेहता उन्हें प्रकाशित करेंगे। वह भी पत्रिका के अनुरूप किसी पूर्व निर्धारित आकार के सांचे में जबरदस्ती ठूसे बिना। यह कोई मजाक नहीं था। आउटलुक एक बड़ी, व्यावसायिक, बहुप्रसारित समाचार पत्रिका है। यह उसकी ताकत है। फिर भी विनोद में लीक से हटकर और लगभग हमेशा तूफान पैदा करने वाले लंबे अलोकप्रिय निबंधों को समय-समय पर प्रकाशित करने का आत्मविश्वास और लचीलापन था।
नियम बिल्कुल शुरू में ही तय कर दिए गए। जब 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद मैंने 'दि एंड ऑफ इमैजिनेशन’ (कल्पना का अंत) निबंध लिखा तब फोन करके उन्होंने मुझसे पूछा, '‘क्या तुम वाकई कहना चाहती हो, 'नासपीटा प्रधानमंत्री कौन होता है कि परमाणु बटन पर उंगली रखे?’ क्या मैं बदलकर यह कर दूं, 'प्रधानमंत्री कौन होता है ?’ ’’ मैंने कहा नहीं। सो मूल वाक्य ज्यों का त्यों रह गया। फिर उनसे कुछ मांगने की मेरी बारी आई। बारूदी सुरंगों भरे जिस मैदान में, मैं घुस रही थी उसे गहरे ताड़ते हुए मैंने उनसे कहा कि आवरण पृष्ठ पर मेरी तस्वीर न हो तो अच्छा। उन्होंने कहा कि वह देखेंगे कि क्या कर सकते हैं। चलो, फूट लो, यह कहने का उनका यह नाजुक तरीका था। अंक निकला, आवरण पृष्ठ पर मेरी तस्वीर और निबंध के सबसे विवादास्पद वाक्य के साथ: 'मैं देश से अलग होती हूं।’ आसमान टूट पड़ा। यही हमारे लेन-देन के अघोषित नियम थे। बिना मेरी रजामंदी के विनोद मेरे आलेख में कोई बदलाव नहीं करेंगे। बदले में, अगर मेरा आलेख आवरण कथा भी बने तो मैं आवरण के कथ्य और डिजाइन को लेकर कोई चर्चा नहीं करूंगी। यह 15 साल तक चलता रहा।
उनकी अंत्येष्टि के दौरान एक अजीब मार्मिक क्षण आया और मैं नहीं जानती हूं कि उसके क्या मायने निकालूं। मैंने विनोद के पुष्प सज्जित शव के आरपार खुद को लालकृष्ण आडवाणी से रू-ब-रू पाया। आडवाणी उनके चरणों पर पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे। मैं खड़ी-खड़ी अपने मन में विनोद को अलविदा (या नहीं) कहने की कोशिश कर रही थी। मुझे एकमात्र क्षण याद आया जब उन्होंने मुझे सावधान किया था साल 2006 में। अखबारों ने घोषणा की थी कि 13 दिसंबर, 2001 में संसद पर हमले में दोषी करार अफजल गुरु को कुछ ही दिनों में फांसी दी जाएगी। मुझे निराशा हुई क्योंकि मैंने मुकदमे को करीब से परखने और कानूनी दस्तावेजों के अध्ययन में कई साल लगाए थे। मैं जानती थी कि ज्यादातर साक्ष्य कमजोर और फर्जी थे (कुछ यह इशारा करने वाले सुराग भी थे कि शायद ये मंचित हमला रहा हो।) अफजल की फांसी कई असहज प्रश्नों के उत्तर मिलने की संभावना सदा के लिए खत्म कर देती। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह और भी हतप्रभ करने वाला था कि अफजल के खिलाफ प्रत्यक्ष साक्ष्य के अभाव में भी 'देश के सामूहिक अंत:करण की संतुष्टि’ के लिए उसे मृत्युदंड दिया जा रहा है। आडवाणी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने एक शोर भरा अभियान शुरू किया: 'देश अभी शर्मिंदा है, अफजल अब भी जिंदा है।’ अब अपनी जानकारी साझा किए बिना मैं रह नहीं सकती थी। मैंने विनोद के लिए कुछ लिखना चाहा। उन्होंने पहली (और मात्र एक) बार कहा, 'नहीं अरुंधती मूड खराब है। वे हमारे पीछे पड़ जाएंगे। वे तुम्हें नुकसान पहुंचाएंगे।’ अंतत: मैं उन्हें मनाने में सफल हो गई। मैंने एक लंबा निबंध इस शीर्षक से लिखा: 'और उसका जीवन बुझा दिया जाए’ यह वाक्य सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उठाया गया था। आउटलुक ने आवरण पर बोल्ड अक्षरों में लिखा अफजल को फांसी मत दो। (बाद में भाजपा सरकार ने नहीं, कांग्रेस सरकार ने ही 2013 में उसे फांसी दी। वह भी कायराना और गैर कानूनी तरीके से)।
अंक निकलने के बाद आउटलुक के लिए हफ्तों तक अपशब्दों की बाढ़ आ गई। लेकिन हमारे करार के नियमों में यह भी था कि विनोद मेरा लिखा छापेंगे लेकिन संपादक के नाम पत्रों को गालियों के लिए हफ्तों तक खुला छोड़ देंगे। (सन 2008 के मुंबई हमलों के बाद विनोद के 25 साल पुराने सचिव शशि ने संपादक के नाम कुछ क्रोध भरे पत्र दिखाए जो मेरे कुछ भी लिखने के पहले ही आने शुरू हो गए थे।) मेरी जानकारी में कोई अन्य पत्रिका अपने लेखकों और अपने संपादक के खिलाफ खुशी-खुशी अपशब्द छापती है। कुछ अपमानजनक पत्र विनोद को इतने प्रिय थे कि फोन पर बताते-बताते मानो वह बल्लियों उछलते। उनका सबसे प्रिय पत्र यह था, 'अफजल गुरु को छोड़ो, अरुंधती को फांसी दो।’ उन्होंने यह बखूबी प्रकाशित किया।
और अब अचानक आडवाणी और मैं उनकी अंत्येष्टि में एकसाथ शोक मना रहे थे। मैं घबरा गई। शायद यह आडवाणी की शिष्टता थी जो मुझमें नदारद है। मैं नहीं जानती। मैं कल्पना नहीं कर सकती कि विनोद क्या सोचते। आउटलुक की संपादकी से रिटायर करने से पहले विनोद ने जो मेरा अंतिम लेख छापा वह था 'वाकिंग विद द कॉमरेड्स’। बस्तर के जंगलों में माओवादी छापामारों के साथ मेरे हफ्तों के प्रवास का विवरण था। हाल ही में दिवंगत हुए बीजी वर्गीज ने इस पर प्रतिक्रिया लिखी थी। और असाधारणता देखिए, विनोद ने उनके जवाब में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य चेरुकुरी राजकुमार उर्फ कॉमरेड आजाद का आलेख छापा। उनका उत्तर (ए लास्ट नोट टू ए नियो-कॉलोनियलिस्ट) छपने के पहले ही उनका नागपुर से अपहरण कर आंध्र-छत्तीसगढ़ सीमा पर दंडकारण्य में पुलिस वालों ने फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी। विनोद के बीमार पड़ने के ठीक पहले मुझे उनका अंतिम फोन कॉल आया। उन्होंने कहा, 'अरुंधती सुनो, मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा, पर अब मांग रहा हूं। दरअसल मैं मांग नहीं रहा, तुम्हें बोल रहा हूं। तुम्हें मेरी किताब एडिटर अनप्लग्ड जारी करनी है। मैं जानता हूं कि तुम ये चीजें नहीं करतीं। लेकिन तुम्हें बस करना है।’ मैं हंसी और कहा, करूंगी। कुछ दिन बाद उन्होंने फिर फोन किया, शरारत से, और बोले, 'ओह, मैंने बताया नहीं अर्णव गोस्वामी स्टेज पर दूसरा व्यक्ति होगा।’ मुझे नहीं लगता कि उन्होंने अर्णव को अपनी योजना बताई होगी। चतुर बूढ़ा लोमड़ हमसे खेल रहा था!
मंच पर हम तीनों। हास्यास्पद। फिर भी मैं विनोद मेहता के लिए खुशी से यह करती पर अब वह पता नहीं कहां चहलकदमी करने निकल लिए। उन्हें जाना नहीं चाहिए था। मुझे उनसे बात करनी ही पड़ेगी।