जिंदगी ही नहीं सरकारें भी बदल डाली
वर्ष 2013 में भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम ने फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर उनके पक्ष में प्रचार अभियान की बमबारी शुरू की तो कांग्रेस के एक पुराने नेता ने खिल्ली उड़ाने वाले भाव में अपने करीबियों के बीच टिप्पणी की कि भारत में चुनाव कंप्यूटर और मोबाइल पर नहीं गांवों की गलियों में लड़े जाते हैं, मोदी किसी हाल में इन तरीकों से चुनाव नहीं जीत सकते। हालांकि यह टिप्पणी करते वक्त वह शायद यह बात भूल गए थे कि भारत के 80 करोड़ मतदाताओं का 60 फीसदी हिस्सा 40 साल से कम उम्र का है और उसका एक बड़ा हिस्सा धड़ल्ले से स्मार्ट मोबाइल फोन का इस्तेमाल करता है। खुद फेसबुक के आंकड़ों के अनुसार भारत में 10 करोड़ से अधिक लोग उसका इस्तेमाल करते हैं। इसमें से भी 80 फीसदी से अधिक संख्या युवाओं की है। करीब 7 करोड़ से अधिक लोग व्हाट्सएप का इस्तेमाल करते हैं। जाहिर है कि भारत में सोशल मीडिया की जिस ताकत को नरेंद्र मोदी बहुत पहले भांप चुके थे उसे उनके विरोधी शायद अब तक नहीं समझ पाए हैं। मोदी जिस समय देश के करोड़ों युवाओं के बीच सोशल मीडिया के जरिये प्रचार युद्ध शुरू कर चुके थे उस समय बाकी के दल मोदी के अतीत में ही उलझे हुए थे। सिर्फ फेसबुक ही नहीं मोदी खुद एक अन्य सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट ट्विटर के जरिये देश की जनता से सीधे जुड़ चुके थे। महज 140 शब्दों में अपनी बात कहने की सुविधा देने वाली यह वेबसाइट मोदी के लिए इतनी मुफीद साबित हुई कि ट्विटर पर किसी भी मुद्दे पर वह अपनी राय रखते और देश की मुख्यधारा का मीडिया उसे अपनी सुर्खियां बना डालता। दूसरे शब्दों में कहें तो मुख्यधारा की मीडिया के लिए भी सोशल साइटें खबर का स्रोत बन गईं। नतीजा यह निकला कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार एक दक्षिणपंथी पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गई।
मिस्र, लीबिया, ट्यूनिशिया जैसे देशों में कई दशकों से जमे तानाशाहों को जनता के विद्रोह ने सत्ता से हटने पर मजबूर कर दिया और जनता के बीच संवाद पैदा करने में मुख्य भूमिका फेसबुक और ट्वीटर जैसी वेबसाइटों ने निभाई। सोशल मीडिया ने दुनिया के कई देशों में दशकों से जमी हुई सत्ता को इतनी सुगमता से उखाड़ फेंका है कि इससे डर कर कई देशों ने अपने यहां इंटरनेट पर कड़ी सेंसरशिप लागू कर दी है। चीन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जहां 20 लाख लोगों को इंटरनेट पर कड़ी निगाह रखने के लिए नियुक्त किया गया है जो वहां की वामपंथी सरकार के खिलाफ कोई भी टिप्पणी जनता तक नहीं पहुंचने देते। इसी तरह लोकतांत्रिक इस्लामिक देश तुर्की में भी इंटरनेट पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसियां तो जासूसी के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं। खास बात यह है कि पूरी दुनिया में मोबाइल के बाद संवाद और संपर्क की दूसरी क्रांति करने वाले सोशल मीडिया के लोकप्रिय वेबसाइटों की शुरुआत महज 10 साल के अंदर ही हुई है। दुनिया के विभिन्न देशों के छात्रों को कंप्यूटर से संबंधित प्रशिक्षण और कंप्यूटर समाधान मुहैया कराने वाली कंपनी कोयनिग सॉल्यूशंस के प्रमुख रोहित अग्रवाल के अनुसार सोशल मीडिया ने हमारी एक पूरी पीढ़ी के सोचने का नजरिया ही बदल डाला है। अग्रवाल के अनुसार आजकल के युवा अगर आत्मविश्वास से इतने लबरेज नजर आते हैं तो उसकी बड़ी वजह इंटरनेट का सर्व सुलभ हो जाना है।
अग्रवाल का कथन गलत नहीं है। साल 2003 के अक्टूबर महीने में अमेरिका के प्रतिष्ठित हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक छात्र ने जब विश्वविद्यालय के प्रतिबंधित कंप्यूटर नेटवर्क में सेंध लगाकर वहां से कई फोटो चोरी कर अपने द्वारा बनाए गए वेबसाइट फेसमाश पर डाल दी और महज 4 घंटों में 450 से अधिक छात्रों ने इस वेबसाइट पर 22 हजार बार फोटोज को देख लिया तब हैकिंग और सुरक्षा से खिलवाड़ के आरोप में हार्वर्ड से निलंबित होने वाले उस छात्र ने सोचा भी नहीं होगा कि उसकी अगली कोशिश पूरी दुनिया को बदलकर रख देगी। मार्क जुकरबर्ग नाम के उस छात्र की यह वेबसाइट तो हार्वर्ड प्रबंधन ने बंद करवा दी मगर इसके चंद महीने बाद ही जनवरी, 2004 में मार्क ने दफेसबुक डॉट कॉम नाम से नेटवर्किंग साइट बना डाली और आज पूरी दुनिया में 13 वर्ष से अधिक उम्र के एक अरब 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं और तुर्रा यह कि दुनिया की कई सरकारें फेसबुक की वजह से पलट चुकी हैं।
आपसी संवाद बढ़ाने की दूसरी सबसे बड़ी पहल 2006 में ट्विटर के रूप में सामने आई जब जैक डोरसी, इवान विलियम्स, बिज स्टोन और नोआह ग्लास ने मिलकर इस वेबसाइट की शुरुआत की। जुलाई 2006 में शुरू होने के महज चार वर्ष के अंदर 10 करोड़ लोग इसका इस्तेमाल करने लगे थे और रोजाना 34 करोड़ ट्वीट लोगों के सामने आने लगे थे। मिस्र, ट्यूनिशिया और लीबिया की क्रांति में इसका भी बड़ा हाथ रहा है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए 2009 में याहू के दो पूर्व कर्मचारियों ब्रायन एक्टम और जन कोम ने इंटरनेट के जरिये मोबाइल से मुफ्त में संदेश, फोटो, वीडियो आदि भेजने के लिए जब व्हाट्सएप मैसेंजर बनाया तो लगा कि सोशल मीडिया की क्रांति का यह दौर अब अपने अंजाम तक पहुंच चुका है क्योंकि व्हाट्सएप ने संदेशों के आदान-प्रदान की क्रांतिकारी सुविधा लोगों को दी है। पूरी दुनिया में व्हाट्सएप के 60 करोड़ से अधिक इस्तेमालकर्ता हैं। हाथ में थमे सस्ते से सस्ते स्मार्टफोन के जरिये भी आपके हाथ में संचार की एक पूरी दुनिया सिमट गई है। व्हाट्स एप की सफलता ने कई दूसरी मैसेंजर सुविधाओं की शुरुआत की प्रेरक का काम किया।
सोशल मीडिया की बात बिना गूगल की चर्चा के अधूरी रह जाएगी। अगर कहा जाए कि इंटरनेट क्रांति का दूसरा चरण पूरी तरह गूगल को समर्पित है तो गलत नहीं होगा। वर्ष 1998 के बाद पैदा हुई पूरी एक पीढ़ी अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए गूगल पर आश्रित हो गई है। आज की दुनिया किस कदर गूगल पर आश्रित हो गई है इसका अनुमान इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रति दिन इस वेबसाइट पर पूरी दुनिया में एक अरब से अधिक बार किसी न किसी जानकारी की खोज की जाती है। कंपनी पूरी दुनिया में 10 लाख से अधिक सर्वरों की मदद से लोगों को उनकी मनचाही जानकारी मुहैया कराने का प्रयास करती है और वर्ष 2011 में मासिक रूप से 1 अरब लोग गूगल का इस्तेमाल करने लगे थे। स्वाभाविक रूप से यह दुनिया में रोजाना सबसे अधिक बार देखी जाने वाली वेबसाइट तो है ही, इसकी यू-ट्यूब, गूगल मैप, गूगल इमेज, गूगल लोकेशन जैसी सेवाएं आने वाले समय में लोगों को खुद पर अधिक से अधिक आश्रित बनाने में पूरी तरह सक्षम हैं।
लेकिन इस क्रांति का नकारात्मक पक्ष भी है। भारत के हालिया अनुभव बताते हैं कि अफवाहें फैलाने में सोशल मीडिया एक बहुत सशक्त माध्यम है। देश के उत्तर-पूर्व के छात्रों के खिलाफ बेंगलुरू में जो अफवाह फैली और जिसके कारण वहां से बड़ी संख्या में इन छात्रों का पलायन हुआ उसके पीछे सोशल मीडिया की ताकत ही थी जिसका गलत फायदा अपराधी तत्वों ने उठाया। यूपी में मुजफ्फरनगर के दंगों के समय पाकिस्तान का वीडियो फेसबुक पर अपलोड करके दंगों को और भडक़ाने का उदाहरण भी हमारे सामने हैं। दुनिया भर में आतंकी विचारधारा को बढ़ावा देने और युवाओं को अपने साथ जोडऩे के लिए आतंकी संगठनों द्वारा इंटरनेट का इस्तेमाल लगातार हो ही रहा है। मुंबई हमलों के समय भी आतंकियों द्वारा इंटरनेट के जरिये जानकारी जुटाने और पाकिस्तान में बैठे आकाओं से संपर्क साधने की सूचनाएं अब सामने आ रही हैं। फेसबुक के जरिये बच्चों को जाल में फंसाकर उनका यौन उत्पीडऩ करने, इंटरनेट के जरिये वेश्यावृत्ति का धंधा चलाने जैसी खबरें भी आम हैं। मगर जैसा कि दुनिया में किसी भी बदलाव के साथ होता है, धीरे-धीरे उसकी अच्छाइयां लोगों को ज्यादा भाती हैं। जरा गूगल की इस क्षमता को पहचानें। भारत में बैठा कोई शख्स अफ्रीका, अमेरिका या मैक्सिको का खाना बनाना सीखना चाहता है तो गूगल के जरिये आसानी से सीख सकता है। चिकित्सा के बारे में नई से नई खोजें लोगों को एक क्लिक के जरिये मिल जाती हैं। पूरी दुनिया के डॉक्टर फेसबुक, व्हाट्स अप या यू ट्यूब के जरिये एक दूसरे के संपर्क में होते हैं। इस मीडिया ने लोगों के बीच संस्कृति की दीवार गिरानी शुरू कर दी है। पुरातनपंथियों को भले ही इससे खतरा दिखे मगर युवाओं को तो इसमें अपने लिए अवसर ही दिखता है और यह गलत भी नहीं है।
तलवारों से ज्यादा प्रभावी है हैशटैग
रोहित अग्रवाल
पिछले दस सालों में, दुनिया ने एक नए तकनीकी दौर में कदम रखा है और शायद इस दौर का सबसे चहेता एवं लाभदायक आविष्कार सोशल मीडिया ही है। जब 2004 में मार्क जुकेरबर्ग ने फेसबुक की स्थापना की, तब उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि मात्र 6 वर्ष बाद टाइम मैगजीन, फोब्र्स मैगजीन एवं पृथ्वी पर बसे 500 करोड़ लोग, इसे इस दशक का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली आविष्कार करार देंगे।
फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन, इंस्टाग्राम, व्हाट्सअप, यू-ट्यूब आदि सोशल नेटवर्किंग साइट्स आज जीवन का अविभाज्य अंग बन चुके है। हमारे करीबी जो भौतिक रूप से हमसे हजारों मील दूर बैठे हैं अब वास्तव में हमसे कुछ ही मिनटों की दूरी पर हैं। लोगों को करीब लाने के उद्देश्य से हुई पहल को अब केवल इसी आशय हेतु नहीं इस्तेमाल किया जाता, बल्कि पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया समाज को सुधारने एवं विश्व में क्रांति लाने का बेहद शक्तिशाली और महत्वूर्ण माध्यम बन चुका है। भारत में भ्रष्टाचार हटाने का अभियान हो या अरब देशों की क्रांति, सोशल मीडिया का हैश टैग अब तलवारों से ज्यादा प्रभावशाली है।
परंतु हमारे समाज में ऐसे तत्व भी हैं जो किसी भी पाक आविष्कार के नापाक इस्तेमाल का प्रयास करते हैं। एक चाकू मां के हाथों में स्वादिष्ट भोजन बनाने का यंत्र है, डॉक्टर के हाथों में मरीजों को सुधारने का साधन जबकि एक खूनी के हाथों में कत्ल का औजार। हर सिक्के की तरह सोशल मीडिया के भी दो पहलू हैं, किंतु इसकी अच्छाइयां इसकी बुराइयों को व्यापक रूप से परास्त कर देती हैं।
पृथ्वी के हर देश में बसी संस्थाएं एवं संगठन सोशल मीडिया के माध्यम से अपने उत्पादों एवं विचारधाराओं का बखूबी प्रचार करते हैं। अब तो एक संस्था की सफलता प्रत्यक्ष रूप से उसके सोशल मीडिया की पहुंच से ही नापी जाती है। आप अपने ग्राहकों के जितना करीब रहेंगे, उतनी ही तरक्की करेंगे। वैश्वीकरण के कारण आज हर कंपनी के ग्राहक विश्व के कोने-कोने में हैं। भौतिक रूप से हम सब तक नहीं पहुंच सकते, किंतु सोशल मीडिया के जरिये अमेरिका, अरब देश, अफ्रीका या जहां भी हमारे ग्राहक मौजूद हों, हम उनके संपर्क में रह सकते हैं, उनकी आवश्यक्ताएं जान सकते हैं, उन्हें पूरा कर सकते हैं। केवल व्यापार अथवा विचारधारा ही नहीं शिक्षा और स्वास्थ्य में भी इस आविष्कार की पहुंच बढ़ती जा रही है।
ब्रिक्स सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एमओओसी (मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्सेंज) का समर्थन किया। एमओओसी की बदौलत भारत अथवा किसी दूसरे देश का व्यक्ति किसी तीसरे देश की यूनिवर्सिटी या ट्रेनिंग सेंटर से इंटरनेट एवं सोशल मीडिया के द्वारा शिक्षा ग्रहण कर सकता है। उदाहरण देखें, हिमाचल प्रदेश के नाहन नामक एक छोटे से गांव में बैठे कोएनिग के एक शिक्षक ने अमेरिका में स्थित छात्रों को इंटरनेट के माध्यम से प्रशिक्षण दिया। शिक्षक एवं छात्र दोनों ने अपने-अपने घरों की सुख सुविधाओं के बीच शिक्षा देने और पाने का लाभ उठाया। पिछले वर्ष इस शिक्षा विधि के द्वारा अनेक छात्रों को प्रतिष्ठित तकनीकी विषयों पर ट्रेनिंग प्रदान करने के फलस्वरूप कोएनिग सोलूशन्स ने 12 लाख डॉलर का कारोबार किया। ये महज एक उदाहरण है। हमने भारत में बैठे-बैठे अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, रोमानिया, अल्जीरिया एवं 70 अन्य देशों के 45 हजार छात्रों को प्रशिक्षण दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में इस क्रांति का अधिकांश श्रेय सोशल मीडिया को जाता है।
(लेखक कोयनिग सॉल्यूसंश के संस्थापक एवं सीईओ हैं)