नेट तटस्थताः वर्चुअल दुनिया में छिड़ी लड़ाई
इसमें ट्राई ने पूछा था, 'इंटरनेट के कारण टेलीकॉम कंपनियों के मुनाफे कम हो रहे हैं तो क्यों न उन्हें वेबसाइट्स और ऐप्स पर थोड़ी नकेल कसने और आम ग्राहकों की थोड़ी सी आजादी छीनने का अधिकार दे दिया जाए?’ इस शब्द से भारतीय ग्राहक भले ही अभी बावस्ता हो रहे हों लेकिन यह मामला फरवरी 2012 में बार्सिलोना में हुई विश्व मोबाइल कांग्रेस से चल रहा है जब भारती एयरटेल के सीईओ सुनील भारती मित्तल ने कहा था कि यूट्यूब को नेटवर्क से जोडऩे की सेवा देने के लिए उन्हें कुछ रकम दी जानी चाहिए। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया था कि टेलीकॉम ऑपरेटर्स डेटा के लिए रास्ता बनाते हैं और टैक्स देते हैं। इसके बाद मित्तल की कंपनी के नेटवर्क सर्विस के डायरेक्टर जसबीर सिंह ने कहा कि फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों को टेलीकॉम कंपनियों के साथ अपना राजस्व साझा करना चाहिए। उनके अनुसार, इंटरनेट कंपनियां कम निवेश कर ज्यादा मुनाफा कमाती हैं। जबकि टेलीकॉम कंपनियां दरअसल नेटवर्क को बनाने के लिए निवेश करती हैं। इसलिए टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी को डेटा सर्विस पर शुल्क लागू करना चाहिए और इसमें वायस कॉल (इंटरनेट के जरिये किए जाने वाले फोन) को भी शामिल करना चाहिए।
इस खींचतान में एयरटेल बराबर नए-नए विचार ट्राई को देता रहा जिन्हें सन 2014 में ट्राई ने खारिज कर दिया कि संदेश भेजने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एप्लीकेशन स्काइप, लाइन और व्हाट्स ऐप को टेलीकॉम कंपनियों या सरकार को किसी भी तरह अपने राजस्व के मुनाफे का हिस्सा देना चाहिए। अब बारी वोडाफोन की थी, जिसने यह कह कर बाजार में नया शिगुफा छोड़ा कि व्हाट्स ऐप पर टैक्स लगा देना चाहिए ताकि वह टेलीकॉम कंपनियों की बराबरी पर आकर इस क्षेत्र में काम करे। इन सब मसलों पर ट्राई के चेयरमैन राहुल खुल्लर ने माना था कि एयरटेल अपने नेट पैक में बदलाव कर गलत कर रहा है लेकिन यह गैरकानूनी नहीं है क्योंकि भारत में नेट न्यूट्रेलिटी के लिए कोई नियम नहीं है जो उसे लागू करा पाए। अब भारतीय ग्राहक इसी नियम के लिए लड़ रहे हैं। आम जनता के बीच मीडिया में इसकी खबरें चलने के बाद इंटरनेट उपभोक्ता नेट न्यूट्रेलिटी यानी इंटरनेट तटस्थता के बारे में जानना चाहते हैं। ओडिशा से बीजू जनता दल के सांसद तथागत सत्पथी ने ट्राई को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने नेट न्यूट्रेलिटी के महत्व और भारत में इसकी जरूरत पर विस्तार से प्रकाश डाला है। सत्पथी कहते हैं, 'जब दूसरे विकसित देश इंटरनेट की सुलभता को मूलभूत मानवीय अधिकार के रूप में देख रहे हैं, तब हम भारत के लोगों से इस सुविधा को छीनने की तैयारी कर रहे हैं।’ शहरों और महानगरों को छोडि़ए, गांव-देहात में भी स्मार्ट फोन का बोलबाला है और 'व्हाट्स ऐप कर देना’ जैसे जुमले हर जगह से सुनाई देते हैं तब इंटरनेट पर अलग ढंग का पहरा लगाने की कोशिश हो रही है। इसके बाद यह बहस बढ़ी और अब नेट न्यूट्रेलिटी का आलम यह है कि सभी इंटरनेट उपभोक्ताओं ने एकजुट होते हुए ट्राई को घेर लिया है। इसके लिए ट्राई को चौबीस घंटे के भीतर 27,000 ईमेल मिले हैं। इंटरनेट को बचाने के लिए कोई भी ईमेल savinternet.in पर भेज सकता है। इसकी अंतिम तारीख 24 अप्रैल 2015 है।
दरअसल, एक नियम है जो उन सभी कंपनियों पर लागू होता है जो उपभोक्ताओं को इंटरनेट सेवा प्रदान करती हैं (इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर -आईएसपी)। इसके अनुसार आईएसपी का यह दायित्व है कि उपभोक्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जा रही कानून के दायरे में आनेवाली सभी वेबसाइटों और एप्लीकेशंस को सामान दृष्टि से देखे। कंपनी आखिर किसी वेबसाइट या एप्लीकेशन के साथ भेदभाव क्यों करेगी? क्योंकि सभी बड़े आईएसपी के पास ऐसी तकनीक होती है जिससे वे जान सकते हैं कि इंटरनेट पर कौन सी वेबसाइट या एप्लीकेशन ग्राहक सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। वे चाहें तो किसी एक वेबसाइट के खुलने की रफ्तार को धीमी और दूसरी को तेज कर सकते हैं यानी यदि कोई इंटरनेट उपभोक्ता अपने स्मार्टफोन पर यूट्यूब और व्हाट्स ऐप पर एक साथ एक ही वीडियो देख रहा है तो आईएसपी चाहे तो व्हाट्स ऐप की बैंडविड्थ को घटा कर यूट्यूब को फायदा पहुंचा सकता है। आईएसपी किसी भी एक वेबसाइट या एप्लीकेशन को महंगा, सस्ता या मुफ्त कर सकता है।
आईएसपी के ऐसा भेदभाव का कोई कारण नहीं है लेकिन मुनाफा ऐसा शब्द है जो कारोबारियों को अलग ढंग से सोचने पर मजबूर करता है। इसमें उपभोक्ताओं की जगह नहीं होती। इसके प्रमुख कारणों में है - टेलीकॉम कंपनियों के मुनाफे का बड़ा हिस्सा वायस कॉल और एसएमएस से आता है। दोनों ही सेवाएं बिना किसी एप्लीकेशन के चलती हैं। दोनों ने टेलीकॉम कंपनियों को एक दशक तक अच्छा मुनाफा दिया। पर अब ग्राहक इन सुविधाओं से बाहर जाकर स्काइप, व्हाट्स ऐप, वाइबर, हैंगआउट आदि एप्लीकेशंस ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। दूसरे कारण पर गौर करें तो टेलीकॉम कंपनियों को ईर्ष्या होने लगी है कि गूगल, याहू, व्हाट्सऐप जैसी कंपनियां टेलीकॉम कंपनियों की मार्फत ही ग्राहकों तक पहुंचती हैं और पूरी कमाई खुद रख लेती हैं। तीसरा कारण है, मौका। टेलीकॉम कंपनियों के पास इंटरनेट कंपनियों की आपसी स्पर्धा का फायदा उठा कर पैसा कमाने का बढिय़ा मौका है। टेलीकॉम कंपनियों की सबसे बड़ी संपत्ति हैं उसके ग्राहकों का समूह। इतने बड़े समूह को इकट्ठा कर अपने पाले में ले आने का लालच वेबसाइट्स और एप्लीकेशन चलाने वाली कंपनियों को हमेशा रहता है।
इन्हीं कारणों से हाल ही में एयरटेल ने अपने ग्राहकों के लिए स्काइप से बात करना महंगा कर दिया। फेसबुक ने रिलायंस से हाथ मिला कर इंटरनेटडॉटओआराजी स्कीम शुरू की जिसमे कुछ 'चुनिंदा’ वेबसाइट्स और ऐप्स के फ्री पैक से ग्राहकों को लुभाया गया और गूगल से दूर किया। इसके जवाब में एयरटेल ने 'एयरटेल जीरो’ स्कीम लॉन्च की। इसमें भी कुछ 'चुनिंदा’ वेबसाइट्स और ऐप्स को फ्री 'परोसा’ गया। एमटीएस, यूनिनॉर और टाटा डोकोमो भी पहले ऐसा कर चुके हैं। सन 2013 में वोडाफोन ने ग्राहकों को ट्विटर मुक्रत बांटा और ट्विटर की फीड्स में अपने विज्ञापन दिखाए। मुनाफे की चाह अन्य देशों की टेलीकॉम कंपनियों में भी भरपूर है। इसलिए 'सभी वेबसाइट्स और ऐप्स को सामान अधिकार’ की बहस भारत से पहले अमेरिका, यूरोप और जापान आदि विकसित देशों में शुरू चुकी है। सभी जगह यह त्रिपक्षीय संघर्ष है - टेलीकॉम कंपनियों, वेबसाइट्स-ऐप्स और आम उपभोक्ताओं के बीच। अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा खुद नेट न्यूट्रेलिटी के समर्थन में आगे आए हैं। भारत में 'डिजिटल इंडिया’ का महत्वाकांक्षी नजरिया देने वाले मोदी जी के विचार अभी आना बाकी हैं।
(रघु पांडेय डिजिटल सिटीजनशिप पर भारत की पहली किताब बिकम एन आइमैच्योर स्टूडेंट के लेखक और इंटरनेट स्टार्टअप आईब्रांचडॉटइन के संस्थापक हैं)