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24 July 2016

क्या भारत में बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई !

फाइल फोटो

सभी लोग 2,226 के आंकड़े पर सहमत नहीं हैं। वन्यजीवन विशेषज्ञ बाघों की संख्या के आकलन के लिए अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। सरकार के भारतीय वन्यजीवन संस्थान डब्ल्यूआईआई, देहरादून के विशेषज्ञों का कहना है कि मध्य भारत में बाघों के आवास के लिहाज से सबसे मशहूर स्थान कान्हा नेशनल पार्क में कुछ आकलन 30 प्रतिशत तक अधिक हो सकते हैं। डब्ल्यूआईआई के जाने-माने बाघ शोधकर्ता यादवेंद्र देव झाला ने एक प्रकाशित शोधपत्र में लिखा है कि डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की तकनीक का इस्तेमाल करने वाले विशेषज्ञों ने यह आकलन किया है कि कान्हा में बाघों की संख्या 89 है। वहीं कैमरा ट्रैप पर निर्भर एक अन्य वैज्ञानिक तकनीक इससे कहीं कम 60 का आकलन देती है।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बाघ एकांत पसंद करने वाले जानवर हैं और उनकी गणना आसान नहीं है। लेकिन गणना में इतना अधिक अंतर दोनों ही तकनीकों के प्रति संदेह पैदा करता है। अप्रैल में बाघ सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, बाघों के संरक्षण के मामले में भारत का एक लंबा और सफल रिकॉर्ड रहा है। हमने 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया था। इसका दायरा शुरूआती नौ बाघ रिजर्वों से बढ़कर अब 49 तक पहुंच गया है। बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की एक साझा जिम्मेदारी है। संवेदना और सह-अस्तित्व के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत ने प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता में एक अहम भूमिका निभाई है। इन साझा प्रयासों के कारण बाघों की संख्या में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह संख्या वर्ष 2010 की 1,706 से बढ़कर 2014 में 2,226 तक पहुंच गई है। नई दिल्ली में हुई वैश्विक बाघ विशेषज्ञों की इसी बैठक में एक दशक से भी कम समय में बाघों की वैश्विक संख्या को दोगुना करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया। ग्लोबल टाइगर फोरम की अप्रैल में हुई बैठक में इस संख्या को दोगुना करने की घोषणा की गई। इसमें कहा गया, सौ साल पहले वैश्विक तौर पर एक लाख जंगली बाघ थे। वर्ष 2010 में यह संख्या सिर्फ 3200 थी। वर्ष 2010 में, टाइगर रेंज की सरकारों में वर्ष 2022 तक जंगली बाघों की संख्या को दोगुना करने पर सहमति बनी है। 

पिछली सदी में जब बाघों की संख्या वाकई गिर गई, तब मध्यप्रदेश के कान्हा नेशनल पार्क में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना की प्रणाली को शुरूआती मान्यता दी गई। ऐसा माना जाता था कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्र करके बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। तब लंबे समय से कान्हा नेशनल पार्क के फील्ड डायरेक्टर रहे मशहूर बाघ संरक्षणविद एच एस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तरीका बताया। यह तकनीक उस समय मुश्किलों में घिर गई, जब साइंस इन एशिया के मौजूदा निदेशक के.उल्लास कारंथ ने बेंगलूरू की वन्यजीवन संरक्षण सोसाइटी के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें फर्क करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागर हो गई और फिर इस तकनीक को त्याग दिया गया।

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इसके बाद कैमरा ट्रैप का एक नया तरीका लाया गया, जिसे कारंथ की टीम ने शुरूआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगल में बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। कुछ रिमोट कैमरों के इस्तेमाल से बाघ अपनी सेल्फी ले पाते थे। ऐसा माना गया कि हर जानवर के शरीर पर धारियों का प्रारूप ठीक उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान के उंगलियों के निशान अलग होते हैं। तब कई तस्वीरों की तुलना करके बाघों की संख्या का पता लगाया जा सकता है। यह एक महंगा तरीका था लेकिन निश्चित तौर पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने से ज्यादा मजबूत था। कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिष्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर  का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाया गया। इस तकनीक में दिखाया गया कि बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से गिर गई है। ऐसे में इस बात को लेकर खतरे की घंटी बज गई कि इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त हो सकते हैं।

लेकिन शुक्र है, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के प्रमुख राजेश गोपाल जैसे बाघ विशेषज्ञों की सक्रिय निगरानी का, जिसके चलते बाघ को विलुप्तीकरण के कगार से वापस लाने में मदद मिल गई। तब कैमरा टैप का यह तरीका डब्ल्यूआईआई ने अपना लिया था और सभी बाघ आवासों में इसे लागू कर दिया गया। भारत में बाघों की हालिया संख्या 2,226 का आकलन कैमरा ट्रैप के इस्तेमाल से ही किया गया। फिर भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जिनमें कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल असंभव है। इनमें वे इलाके हैं, जहां कैमरे तोड़-फोड़ दिए जाते हैं या जहां नक्सल हिंसा हावी है। 21वीं सदी में डीएनए तकनीक में महारथ हासिल कर ली गई है। विशेषज्ञों ने डीएनए तकनीकों के इस्तेमाल से बाघों की संख्या का आकलन शुरू कर दिया है। इसके लिए बाघों के बाल या उनके मल आदि एकत्र किए जाते हैं। इसके बाद इनके जैव रासायनिक विश्लेषण होते हैं। यह काम हैदराबाद और बेंग्लूरू की प्रयोगशालाओं में होता है। हालांकि डब्ल्यूआईआई के एक समूह ने डीएनए आधारित आकलन की सच्चाई पर भी सवाल उठाए हैं।

इस शोध पत्र में झाला ने कहा है कि शोधकर्ता तेंदुओं की बाघों के रूप में गलत पहचान कर रहे हैं। यह एक बड़ी गलती है, जिसके कारण बाघों की संख्या असलियत से कहीं ज्यादा दिखाई दे सकती है क्योंकि तेंदुए कहीं अधिक हैं। विभिन्न बाघ विशेषज्ञों के बीच संख्याओं की यह लड़ाई यहां खत्म नहीं होती। कारंथ के नेतृत्व में चार श्रेष्ठ बाघ संरक्षणविदों ने बाघों की संख्या दोगुनी करने की परियोजना की आलोचना करते हुए कहा कि यह वैज्ञानिक तौर पर विश्वसनीय नहीं है। कारंथ और उनकी टीम का कहना है, वास्तविकता से दूर ले जाने वाले, बाघों की संख्या के इस खेल में उलझने के बजाय संरक्षणविदों को अब बाघों की मूल संख्या को बढ़ाने और इसकी निगरानी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उनके बचे हुए आवासों का संरक्षण करना चाहिए। यह सब विज्ञान पर आधारित होना चाहिए।

अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने बाघों के आवासों में भारी कमी आने की बात उठाई थी। बाघों के शरीर के हिस्सों की तस्करी के कारण स्थिति और बिगड़ जाती है। भारत में बाघ संरक्षण की स्थिति को सुधारने के बारे में उन्होंने कहा था, इस साल हमने बाघ संरक्षण के लिए अपना आवंटन दोगुना किया है। हमने इसे 185 करोड़ रूपए से बढ़ाकर 380 करोड़ रूपए किया है। लेकिन क्या पैसा काफी है? देहरादून और बेंगलूरू के वैज्ञानिकों के दो समूहों के बीच मैत्री होनी चाहिए क्योंकि बाघ के अस्तित्व को बचाने के लिए उसके आवास का वैज्ञानिक प्रबंधन जरूरी है। 

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TAGS: बाघ संरक्षण, आकलन, वैज्ञानिक आधार, प्रोजेक्ट टाइगर, कान्हा टाइगर रिजर्व, भारतीय वन्यजीवन संस्थान, डब्ल्यूआईआई, देहरादून, शोधकर्ता, यादवेंद्र देव झाला, डीएनए फिंगरप्रिंटिंग, Tiger Preservation, Estimation, Project Tiger, Tiger populations, Wildlife Institute of Indi
OUTLOOK 24 July, 2016
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