पीएम ने कुपोषण को सामूहिक समस्या के रूप में उभारकर पोषण को जन आंदोलन बना दियाः प्रो. के. 'विश' विश्वनाथ
भारत को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए मोदी सरकार के फ्लैगशिप प्रोग्राम की बदलाव लाने की क्षमता के बारे में प्रो. के. 'विश' विश्वनाथ जैसी हस्ती बात करती है तो पोषण अभियान की सफलता में एक और सितारा जड़ जाता है। स्वास्थ्य प्रोत्साहन, असमानता और आपदा में संचार की भूमिका पर अनुसंधान में लंबा ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाले हार्वर्ड टी. एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ इंडिया रिसर्च सेंटर के डायरेक्टर बदलाव लाने वाले संचार, पब्लिक हेल्थ पॉलिसी में अहम भूमिका, अनुसंधान, अध्यापन और पद्धतियों में अपनी विशेषज्ञता के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। आउटलुक पोषण की दमयंती दत्ता को दिए इंटरव्यू में वह बताते हैं कि पिछले दौर से अंतर क्या है और पहली बार भारत कैसे फैसलों में आम लोगों की भागीदारी की धारणा को अपना रहा है। इंटरव्यू का पूरा वीडियो भी उपलब्ध है।
प्रश्न- कुपोषण और भुखमरी से निपटने के लिए भारत में अनेक नीतियां रही हैं। फिर भी कुपोषण से प्रभावित दुनिया की एक तिहाई आबादी भारत में ही है। पिछली स्कीमों के मुकाबले पोषण अभियान कैसे अलग है।
आमतौर पर हम जब भी सामाजिक समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं, सरकारें हमेशा स्कीमें, नीतियां और कार्यक्रम लेकर आती हैं। लेकिन उन्होंने कभी भी डिमांड साइड की समस्याएं सुलझाने का प्रयास नहीं किया, या कहें तो ऐसी नीतियां नहीं अपनाई गईं जिससे फैसलों में जागरूक लोगों की भागीदारी बढ़ाई जा सके। पोषण अभियान के मामले में अनूठी बात इसे जन आंदोलन बताना है। इसमें उल्लेख है कि यह जन आंदोलन बनना चाहिए। पोषण पिछले स्कीमों से इसी मामले में अलग हो जाता है। इसमें शुरू से ही लोगों को भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है ताकि कुपोषण को खत्म किया जा सके।
इस दृष्टिकोण से कुपोषण को महज एक स्थिति के तौर पर नहीं देखा जाता है, बल्कि यह ऐसी स्थिति है जो अन्याय, अनुचित और एक समस्या है जिसे दूर किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए न सिर्फ सरकार और उसकी नीतियां जरूरी हैं, बल्कि आम लोगों की भागीदारी अनिवार्य है। यह एक उत्कृष्ट आंदोलन बनेगा। अब कहा जा रहा है कि क्या शीर्ष से एक सामाजिक आंदोलन पैदा हो रहा है। नहीं, यह कोई सामाजिक आंदोलन नहीं है। अगर यह ऊपर से आ रहा है तो यह न तो यह सामाजिक है और न ही आंदोलन है। हालांकि सामाजिक आंदोलन इसका मुख्य विचार है। यह एक सांस्कृतिक चेतना है अगर यह किसी भरोसेमंद स्रोत से आती है। यही अंतर है जो इस समय चारों ओर दिखाई दे रहा है। समस्या के समाधान के लिए आंदोलन में लोगों को भागीदारी करने और उन्हें एकजुट करने को प्रोत्साहन शीर्ष स्तर के स्रोत से किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने अभियान को जन आंदोलन या लोगों के अभियान के रूप में तैयार किया है जिसमें कहा गया है कि कुपोषण एक सामूहिक समस्या है जिससे सिर्फ सरकार या लोग परेशान नहीं हैं।
दूसरे, हमारे देश में सामाजिक आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। देश की आजादी से पहले ही आंदोलन की शुरूआत हो गई थी, जो अभी तक चल रहे हैं। हम कई तरह से एकजुट हुए हैं। इसका जुड़ाव सांस्कृतिक संदर्भ में भी है। लोगों में चेतना आने से आंदोलन सफल हो जाता है। इस बात की काफी संभावना है कि लोग इसे गंभीरता से लें और इस अन्याय के खिलाफ एकजुट हों। इसका आशय है कि अन्याय के खिलाफ आंदोलन सिर्फ एक खास तरह के समूह से नहीं लड़ा जाना चाहिए, बल्कि इन स्थितियों के खिलाफ लड़ने और समाधान निकालने के लिए समूचे समाज को खड़े होना चाहिए।
प्रश्न- आप जब कहते हैं लोग, तो क्या आपका आशय कुपोषण से सर्वाधिक प्रभावित व्यक्तियों से है, जैसे आदिवासी, महिला या दलित? क्या उनके पास जन आंदोलन शुरू करने के लिए साधन उपलब्ध हैं? अगर इस तरह का आंदोलन उच्च जातियों और उच्च वर्ग के द्वारा शुरू किया जाता है तो यह समाज के निचले वर्ग तक कैसे पहुंचेगा?
जब आप कुछ विशेष वर्गों की बात करती हैं तो देश की आबादी में महिलाओं की संख्या काफी बड़ी हो जाती है। यहां तक की गरीब लोगों की भी देश में विशाल आबादी है। जब भी को सामाजिक आंदोलन शुरू होता है, हमें तीन प्रकार के लोग दिखाई देते हैं। इनमें पहला समूह उन लोगों का होता है जो प्रभावित हैं और इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। दूसरे प्रकार के वे लोग हैं जो किसी समस्या के प्रति उदासीन होते हैं। इन लोगों की बड़ी संख्या होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि जब उनकी जिंदगी ठीक से चल रही है तो उन्हें परेशन क्यों होना चाहिए। तीसरे प्रकार के लोग वे होते हैं तो इसका विरोध करते हैं। हमारा उद्देश्य न सिर्फ विरोध को कम करना होना चाहिए, बल्कि पहले से परेशान लोगों को एकजुट भी करना चाहिए। वे समस्या की गंभीरता को अच्छी तरह समझते हैं। ऐसे लोगों का भी विशाल समूह होता है जो समस्या के बारे में नहीं जानते हैं, उन्हें जागरूक बनाने की आवश्यकता है। उन्हें समझाया जाना चाहिए कि कुपोषण और भुखमरी अन्यायपूर्ण और अनुचित है। इसे दूर किया जा सकता है। इसलिए सामाजिक आंदोलन के पीछे विचार उद्देश्य बहुसंख्य लोगों को जोड़ने का होता है। उन लोगों को जोड़ना चाहिए जो समस्या के प्रति उदासीन हैं।
हार्वर्ड टी. एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ इंडिया रिसर्च सेंटर किस तरह के कार्यों में संलग्न है?
हम महाराष्ट्र में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, यूनीसेफ और कुछ अन्य संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। हम कुछ अन्य लोगों के साथ भागीदारी में काम कर रहे हैं। पहले, हम अहम पक्षकारों जैसे कार्यकर्ताओं को कुपोषण और पोषण अभियान के मामले में जागरूकता बढ़ाने के लिए रणनीतिक संवाद सिद्धांतों के इस्तेमाल के बारे में प्रशिक्षण देते हैं। इसके बाद हम सोचते हैं कि समस्या से कैसे निपटा जाए। हम इस पर हम कार्यकर्ताओं को सघन प्रशिक्षण देते हैं।
दूसरे, भारत एक विविधता से भरपूर देश है। यहां हर क्षेत्र में सांस्कृतिक विविधता है और खानपान में भी बहुत अंतर है। सवाल है कि हम कैसे सीखते हैं कि कौन सी पद्धति काम कर रही हैं और कौन सी नहीं। यह भी अहम है कि आप दूसरे लोगों को कैसे बताते हैं। इसलिए हम कार्यशालाओं के माध्यम से यह काम करने का प्रयास कर रहे हैं। लोगों को सक्रिय करने और जागरूकता बढ़ाने के लिए रणनीतिक संवाद पर हम न सिर्फ कार्यकर्ताओं और दूसरे पक्षकारों को प्रशिक्षण देते हैं, बल्कि उत्कृष्ट पद्धतियों को साझा करते हैं और एक-दूसरे से सीखते हैं।