वोटकटवा बने ओवैसी, बिहार के बाद बंगाल में भी बिगाड़ सकते हैं खेल
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के तीन दिन बाद 13 नवंबर को कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र बोस हवाई अड्डे पर फोन से बात करते समय इमरान सोलंकी काफी उत्साहित थे। उन्हें हैदराबाद जाना था, जहां उनकी और उनके सहयोगी सैयद दिलावर हुसैन की मुलाकात ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) के केंद्रीय नेतृत्व के साथ होनी थी। सोलंकी पश्चिम बंगाल में एआइएमआइएम के प्रमुख संयोजकों में एक है। हालांकि पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने अभी तक राज्य में पार्टी को औपचारिक तौर पर लॉन्च नहीं किया है। सोलंकी कहते हैं, “हमें उम्मीद है कि पार्टी लॉन्च किए जाने की घोषणा जल्द कर दी जाएगी। पश्चिम बंगाल में हमारा अगला कदम क्या होगा, हैदराबाद की मुलाकात में यह स्पष्ट होने की भी उम्मीद है।” ओवैसी ने हाल ही कहा था कि हम बंगाल में पूरी ताकत के साथ लड़ेंगे।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के छह महीने भी बाकी नहीं रह गए हैं। प्रदेश की भौगोलिक स्थिति और एक ‘राजनीतिक शून्यता’ के कारण सोलंकी को काफी उम्मीदें हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल की 27.01 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। प्रदेश की 70 विधानसभा सीटों के नतीजे तय करने में उनकी भूमिका अहम होती है।
सोलंकी ने बताया कि ज्यादातर जिलों में पार्टी नेताओं की पहचान कर ली गई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार में पार्टी को जिन पांच सीटों पर जीत मिली है, उनमें चार पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों से सटे पूर्णिया और किशनगंज जिलों में हैं।
पूर्वी भारत में ओवैसी का फोकस बंगाल, बिहार और झारखंड के मुस्लिम बहुल त्रिकोण पर है। इनमें उत्तर पूर्वी झारखंड के पाकुड़ और साहिबगंज जिले, उत्तर पूर्वी बिहार के पूर्णिया, अररिया और किशनगंज जिले तथा उत्तर और मध्य बंगाल के उत्तर दिनाजपुर, मालदा, मुर्शिदाबाद और बीरभूम जिले हैं। समस्त पूर्वी भारत में इन जिलों में मुस्लिम आबादी सबसे सघन है। इन नौ जिलों की आबादी दो करोड़ 74 लाख है, जिनमें 50.63 फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में एआइएमआइएम के एक नेता बताते हैं कि पार्टी ने इस त्रिकोण में 2014 से ही काम शुरू कर दिया था।
पहला कदम बिहार में उठाया गया, जब 2015 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने छह उम्मीदवार उतारे, लेकिन तब कहीं सफलता नहीं मिली। 2019 में किशनगंज विधानसभा के लिए हुए उपचुनाव में उसे जीत मिली, लेकिन उसी साल झारखंड विधानसभा चुनाव में पार्टी एक बार फिर खाली हाथ रह गई। 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी किशनगंज में तो हार गई लेकिन पांच नई जगहों पर उसे जीत मिली। इनमें से चार सीटें कोचाधामन, अमौर, बैसी और बहादुरगंज हैं जो पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिला स्थित गोआलपोखर, करनदिघी, चाकुलिया और इस्लामपुर विधानसभा क्षेत्रों से सटी हैं।
पश्चिम बंगाल के जो चार जिले बिहार और झारखंड की सीमा से लगते हैं, उनमें मुर्शिदाबाद में मुस्लिम आबादी 66.27 फीसदी है। इसके अलावा मालदा, उत्तर दिनाजपुर और बीरभूम की आबादी में मुसलमान क्रमशः 51.27 फीसदी, 49.92 फीसदी और 37.06 फीसदी हैं। राज्य की 294 विधानसभा सीटों में से 54 सीटें इन चार जिलों में हैं, और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की कोशिश यहां सभी सीटें जीतने की है। इनके अलावा कोलकाता के पड़ोसी जिलों उत्तर और दक्षिण 24 परगना में भी मुस्लिम आबादी काफी है। एआइएमआइएम से मिलने वाली चुनौती को भांपते हुए ममता बनर्जी 2019 से ही उसे ‘बाहरी’ और ‘भाजपा की बी-टीम’ कहती रही हैं।
एआइएमआइएम के एक नेता ने बताया कि पार्टी तीन से चार दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। सोलंकी जैसे कार्यकर्ता भले काफी उत्साहित हों, पार्टी के लिए जमीनी परिस्थितियां इतनी मेहरबान नहीं हैं। वह यहां बरसों से पैर जमाने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसके कार्यकर्ता या तो पार्टी छोड़ जाते हैं या निष्क्रिय पड़े रहते हैं। एक पूर्व संयोजक ने केंद्रीय नेतृत्व की अनिश्चय की स्थिति को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सीएए विरोधी आंदोलन के समय गतिविधियां बढ़ाई लेकिन दिसंबर और जनवरी में हिंसा फैलाने के आरोप में कई को गिरफ्तार कर लिया गया।
नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला अभी थमा नहीं है। प्रदेश में पार्टी के बड़े नेताओं में एक, अनवर पाशा 23 नवंबर को अपने कई समर्थकों के साथ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। पाशा ने कहा कि एआइएमआइएम की विभाजनकारी राजनीति के चलते बिहार में भाजपा को जीत मिली और वे नहीं चाहते कि पश्चिम बंगाल में उसे दोहराया जाए। सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान पूर्वी मिदनापुर के सात थानों में अनवर पाशा 50 दिनों तक हिरासत में थे। एआइएमआइएम में शामिल होने से पहले आउटलुक से उन्होंने कहा था, “भाजपा को बंगाल में जीत से रोकना हर धर्मनिरपेक्ष की प्राथमिकता होनी चाहिए।”
लॉकडाउन में ढील के बाद अगस्त-सितंबर से एआइएमआइएम के आयोजक एक बार फिर सक्रिय हुए हैं। उनमें असदुल भी हैं जो मुर्शिदाबाद जिले के प्रमुख संयोजकों में हैं। मुर्शिदाबाद देश का सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला जिला है, यहां 47 लाख मुसलमान रहते हैं। जिले में 22 विधानसभा सीटें हैं, जो पश्चिम बंगाल के अन्य किसी भी जिले से ज्यादा है। असदुल बताते हैं कि बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद पार्टी की गतिविधियां बढ़ी हैं। उनका दावा है कि 14-15 नवंबर को यूथ कांग्रेस के 100 कार्यकर्ता एआइएमआइएम में शामिल हो गए। वे कहते हैं, “अगर दीदी को 2021 में जीतना है तो उन्हें हमारे साथ गठबंधन करना पड़ेगा।”
एआइएमआइएम के पश्चिम बंगाल के पर्यवेक्षक स्वीकार करते हैं कि जब उन्हें लगा कि तृणमूल कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी में शामिल करना मुश्किल है तो वे कांग्रेस कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने लगे। मुर्शिदाबाद और मालदा में कांग्रेस के अनेक समर्थक हैं, हालांकि अब इन दोनों जिलों में तृणमूल का बोलबाला है। लोकसभा में कांग्रेस के नेता और पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी मुर्शिदाबाद जिले की बरहमपुर सीट से पांच बार के सांसद हैं, लेकिन यहां की दो अन्य लोकसभा सीटों पर तृणमूल का कब्जा है। राजनैतिक विश्लेषक मैदुल इस्लाम मानते हैं कि ओवैसी की पार्टी को दो चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। एक तो यह कि राज्य के ज्यादातर मुस्लिम वोटर तृणमूल के साथ हैं। दूसरी समस्या भाषा को लेकर है। एआइएमआइएम के बड़े नेता उर्दू-हिंदी मिश्रित भाषा बोलते हैं। यह बिहार के मुसलमानों के लिए तो ठीक है, लेकिन बंगाल के ज्यादातर मुसलमान बांग्लाभाषी हैं। इसलिए बांग्ला भाषी नेतृत्व तैयार होने तक एआइएमआइएम को यहां लोगों के साथ जुड़ने में मुश्किल आएगी।
मुर्शिदाबाद में ममताः एआइएमआइएम के कई नेताओं को तृणमूल ने अपने पाले में लिया
इस्लाम एक और बात बताते हैं। एआइएमआइएम पांच वर्षों से बिहार में तैयारी कर रही थी जबकि बंगाल में अभी वह बेतरतीब स्थिति में है। इसके अलावा, तृणमूल शासन के दौरान रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों के अनुसार मुसलमानों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने से उनकी स्थिति सुधरी है। इस्लाम कहते हैं, “एआइएमआइएम मुस्लिम मध्यवर्ग, खासकर स्कूल, कॉलेज, मदरसा शिक्षकों में पैठ बनाने में कामयाब रही है। लेकिन किसानों में उसकी पकड़ नहीं है। कुछ सीटों पर वह धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को नुकसान पहुंचा सकती है।”
जमीयत उलेमा-ए-हिंद की पश्चिम बंगाल इकाई के अध्यक्ष और ममता सरकार में मंत्री सिद्दीकुल्लाह चौधरी कहते हैं कि राज्य में एआइएमआइएम का कोई भविष्य नहीं है। वह भाजपा को फायदा दिलाने की कोशिश कर सकती है, लेकिन मुसलमान ममता बनर्जी को छोड़कर जाएंगे, इसकी कोई वजह नहीं दिखती। हालांकि तृणमूल के एक सांसद की चिंता है कि एआइएमआइएम मुस्लिम मतदाताओं के वोट बांटने में नाकाम रहे, पर उसके भड़काऊ भाषणों से भाजपा को ध्रुवीकरण में मदद मिल सकती है।
2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 सीटों में से तृणमूल को 22 पर जीत मिली थी, भाजपा 18 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। कुल वोटों में 43 फीसदी तृणमूल को और 40 फीसदी भाजपा को मिले थे। लेफ्ट को सात और कांग्रेस को पांच फीसदी वोट मिले थे। तब इन दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, जो 2021 में मिलकर लड़ सकती हैं। एआइएमआइएम तृणमूल के अलावा वामदलों और कांग्रेस को भी नुकसान पहुंचा सकती है। इसलिए दोनों पार्टियां अभी से अपने समर्थकों को एआइएमआइएम के जाल में न फंसने की अपील कर रही हैं।
उत्तर दिनाजपुर जिले की चाकुलिया सीट से विधायक फॉरवर्ड ब्लॉक के अली इमरान रम्ज को तृणमूल कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलने की उम्मीद है। एआइएमआइएम के आने से उनकी स्थिति कमजोर हो सकती है। हालांकि रम्ज कहते हैं, “मुसलमान सांप्रदायिक आधार पर किसी भी पार्टी का समर्थन नहीं करेंगे।” एआइएमआइएम के जमीरुल हसन कहते हैं कि उनकी पार्टी भाजपा के खिलाफ वाम, तृणमूल और कांग्रेस का महागठबंधन चाहती है। वे कहते हैं, “भाजपा को रोकने के लिए हम भरोसेमंद गठबंधन में शामिल होने को तैयार हैं, लेकिन दूसरी पार्टियों ने हमारी बात न सुनी तो हम अकेले लड़ेंगे।” हिंदू मतदाता नाराज न हों इसलिए न तो तृणमूल और न ही वाम-कांग्रेस गठबंधन एआइएमआइएम को साथ लेने के लिए तैयार है।
2019 में मालदा में कांग्रेस और तृणमूल के बीच वोटों के बंटवारे के कारण भाजपा को उत्तर मालदा लोकसभा सीट पर जीत मिल गई थी। मालदा दक्षिण में उसे बहुत कम अंतर से कांग्रेस के हाथों पराजित होना पड़ा था। भाजपा को उत्तर दिनाजपुर की रायगंज सीट पर भी जीत मिली थी। एआइएमआइएम की नजर मालदा और उत्तर दिनाजपुर दोनों पर है। राजनीतिक विश्लेषक बिश्वनाथ चक्रवर्ती मानते हैं कि ओवैसी की पार्टी अपने दम पर कुछ नहीं कर सकती, सिवाय तृणमूल को नुकसान पहुंचाने के। वे कहते हैं, “ओवैसी अगर अब्बास सिद्दीकी (हुगली जिले में फुरफुरा शरीफ के पीरजादा) जैसे स्थानीय मुस्लिम नेता का समर्थन जुटाने में कामयाब रहते हैं, तो वे ममता के लिए सिरदर्द बन सकते हैं।” इन सबके लिए ओवैसी के पास छह महीने भी नहीं हैं।