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17 August 2018

अटल बिहारी वाजपेयी: स्वभाव से कवि, राजनेता होना दुर्घटना

-भावना विज अरोड़ा

अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि वह स्वभाव से एक कवि हैं और दुर्घटनावश राजनेता बने। यह उनकी काव्य वृत्ति ही थी जिसने उन्हें राजनेता और महान वक्ता बनाया था। एक युग में जब संवेदी स्वर को कमजोरी के संकेत के रूप में देखा जाता हो, तब वाजपेयी ऊपर उठकर सबसे बड़ी आम सहमति निर्माता के तौर पर उभरे।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) उनका वैचारिक विविधता में एकता का पहला कार्यात्मक प्रयोग था। जब वाजपेयी ने 1999 में गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया, तो किसी ने भी इसकी उम्मीद नहीं की थी खासकर 13 दिन और 13 महीने के लंबे असफल स्टंट के बाद कि ये सरकार चल पाएगी। हालांकि, इस गठबंधन ने पूरा कार्यकाल खत्म किया। दरअसल, वाजपेयी की सफलता इस तथ्य में थी कि उन्होंने कभी छोटी पार्टियों को छोटा नहीं माना।

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उन्होंने ममता बनर्जी, स्वर्गीय जे जयललिता और एम करुणानिधि जैसे दिग्गज और अप्रत्याशित सहयोगियों को गरिमा, अनुग्रह और हास्य के साथ प्रबंधित किया। वह 2003 में द्रमुक नेता मुरासोली मारन के अंतिम संस्कार में चले गए, इससे सभी आश्चर्यचकित थे, क्योंकि उनकी पार्टी के साथ बीजेपी का रिश्ता बेहद तनावपूर्ण था। वाजपेयी इसी तरह के थे। उन्होंने अपने अहंकार को अपनी पार्टी या सरकार से बड़ा नहीं होने दिया।

उन्होंने अपनी बुद्धि और हास्य के साथ कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी संभाला। संसद में उनके कई भाषण अभी भी सबसे यादगार हैं, जिसकी राजनेताओं द्वारा पार्टी लाइन से हटकर सराहना की जाती रही है। एक युवा सांसद के रूप में, उन्होंने एक बार शरारत करते हुए जवाहरलाल नेहरू से कहा कि उनके व्यक्तित्व में चर्चिल और चेम्बरलेन दोनों हैं। नेहरू ने मुस्कुराहट के साथ उनकी बातों को लिया। बाद में नेहरू ने एक विदेशी गणमान्य व्यक्ति के सामने वाजपेयी को देश के "भावी प्रधान मंत्री" के रूप में परिचय कराया। ये पारस्परिक सम्मान और प्रशंसा थी जिसे उन्होंने साझा किया था।

चाहे सरकार में हों या विपक्ष में, वाजपेयी की दृढ़ आस्था थी कि विवादित मुद्दों का निराकरण लोगों की सामूहिक बुद्धिमता के साथ किया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के मामले में, उन्होंने अलगाववादियों के बीच कट्टरपंथियों को को काबू करने में कामयाब रहे क्योंकि उन्होंने कहा था कि वह "कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत" की छतरी के नीचे समस्या का हल ढूंढना चाहते थे। सत्ता में आने के चार साल बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भी अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि वाजपेयी द्वारा दिए गए तीन शक्तिशाली शब्दों में ही शायद सबसे अच्छा समाधान है।

आज तक, जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और अलगाववादियों का दावा है कि वाजपेयी की अगुवाई में सरकार के तहत इस बड़ी समस्या का समाधान करने का सबसे अच्छा मौका था। रणनीतिक और राजनयिक मंडलियों में से कई लोग यह भी मानते हैं कि वाजपेयी के कार्यकाल के तहत पाकिस्तान के साथ शांति समझौते तक पहुंचने का भारत का सबसे अच्छा मौका था। दोनों देश इसके करीब आए जब जुलाई 2001 में वाजपेयी ने राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को आगरा में एक शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया था।

वह अपने वर्षों की सत्ता को एक बड़े मुद्दे के साथ परिभाषित करना पसंद करते- वह पाकिस्तान के साथ समस्याओं का समाधान था। टकराव के बजाय शांति और समझौता के मार्ग को चुनना पसंद करते हुए वाजपेयी की पाकिस्तान के साथ विश्वसनीयता भी अधिक थी। हालांकि, इतिहास बनाने और संयुक्त वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने के कगार पर खड़े वाजपेयी ने पाकिस्तान की घुमावदार राजनयिक चालों को तोड़ना पसंद किया, जिससे संवेदना के संकेतों के नीचे दृढ़ता की लकीर दिखाई दी।

वाजपेयी की विदेश नीति वैचारिक श्रृंखलाओं से परे चली गई जो पहले इसे बांध चुके थे। यदि अमेरिका भारत के परमाणु परीक्षणों से नाखुश था, तो तत्कालीन प्रधान मंत्री 2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की यात्रा के लिए देश के साथ संबंधों को सुधारने के लिए तेजी से चले गए।

उन्होंने अपने कैबिनेट सहयोगियों को भी स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए स्पेस और आजादी दी। प्रिंट मीडिया में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की मंजूरी एक ऐसा मुद्दा था जिसका वाजपेयी ने समर्थन किया था। हालांकि, उन्होंने निर्णय को लेकर वातावरण तैयार करने के लिए बहस और चर्चा के लिए समय दिया। उन्होंने इस मामले में संबंधित मंत्री सुषमा स्वराज पर कागजी कार्य और अन्य विवरण छोड़ दिया- और सही समय पर अंतिम निर्णय लिया। ऐसा विनिवेश के साथ भी हुआ - निर्णय अपने मंत्री अरुण शौरी पर उन्होंने छोड़ दिया। उन्होंने कभी भी अपने किसी भी सहयोगी पर हावी होने की कोशिश नहीं की।

हालांकि वाजपेयी ने हमेशा स्वीकार किया कि अयोध्या में राम मंदिर एक सार्वभौमिक मांग थी, लेकिन उन्होंने इसे लिए असली हवा नहीं दी। सभी संबंधित पक्षों की सद्भावना के साथ एक समाधान की मांग की। हालांकि  वह हिंदू राष्ट्रवाद का मानव चेहरा बन गए, वह कभी भी आरएसएस के पसंदीदा नहीं रहे। वह संघ के लिए "पर्याप्त हिंदू" नहीं थे, जिन्होंने उनकी जीवनशैली को भी स्वीकृति नहीं दी थी। इस मामले में, वाजपेयी ने अधिक निष्क्रिय दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी और पीएमओ और संघ के बीच संबंध बनाने के लिए तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष वेंकैया नायडू और आरएसएस के संयुक्त सचिव मदन दास देवी का इस्तेमाल किया।

अब वह इस दुनिया में नहीं रहे, वाजपेयी शायद पसंद करते कि सभी उनकी कविता ‘दूर कहीं कोई रोता है’ से निम्नलिखित पंक्तियों को याद रखें-

दूर कहीं कोई रोता है,

जन्मदिन पर हम इठलाते,

क्यों न मरण त्यौहार मनाते,

अंतिम यात्रा के अवसर पर,

आंसू का अशकुन होता है...

 

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TAGS: Atal Bihari Vajpayee, Poet By Instinct, Politician By Accident
OUTLOOK 17 August, 2018
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