बिहार विधानसभा चुनाव: अगड़ा-पिछड़ा अखाड़े में नए चुनावी समीकरण
"भाजपा ने भले ही नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का ऐलान किया हो लेकिन जीत की चुनौती अभी बाकी”
दुनिया भर में कोरोना महामारी के हल्ले और बिहार की बदनाम बाढ़ के पहले ही दौर में, आलोचनाओं की परवाह किए बिना अमित शाह ने जब 7 जून को बिहार में वर्चुअल रैली कर विधानसभा चुनाव की धमाकेदार शुरुआत की, तो धुर विरोधी भी उनके सांगठनिक कौशल का लोहा मान गए। इस रैली से साधनों और कार्यकर्ताओं की फौज के आकार-प्रकार और उत्साह का प्रदर्शन भी हुआ। बाढ़ और कोरोना के बीच प्रदेश के हर मतदान केंद्र तक एलईडी टीवी लगवाना और हर जगह दर्शक जुटा लेना सामान्य ‘साधन और कार्यकर्ता संपन्नता’ के बूते की बात नहीं थी। इस रैली में उन्होंने नीतीश कुमार की अगुआई में एनडीए के चुनाव लड़ने का ऐलान किया। इससे यह फुसफुसाहट भी खत्म हो गई कि सत्तारूढ़ गठबंधन में कोई मतभेद है। मतभेद की सुगबुगाहट भाजपा की अपनी बैठक में कुछ नेताओं की तरफ से आए इस सुझाव से हुई थी कि पार्टी को अकेले विधानसभा चुनाव में जाना चाहिए। किसी भी बड़ी और लोकतांत्रिक पार्टी में इस तरह की अलग-अलग राय आना स्वाभाविक है। लेकिन अमित शाह की घोषणा से साफ हो गया कि पार्टी की आधिकारिक राय क्या है।
चुनाव का असली बिगुल बजते ही एनडीए में फूट तथा घटक दलों के बीच खींचतान और भाजपा नेतृत्व (जिसके सूत्रधार अध्यक्ष पद से हटने के बावजूद अमित शाह ही माने जाते हैं) की कुछ भी न कर पाने की विवशता खुलकर सामने आ गई। कई लोग इसे भाजपा का ‘षड्यंत्र’ मानते हैं, जिसका उद्देश्य नीतीश कुमार से बदला लेना और उनसे छुटकारा पाना है। इस षड्यंत्र थ्योरी से सहमत होना मुश्किल लगता है क्योंकि बिहार चुनाव कई कारणों से सामान्य से कहीं ज्यादा महत्व का है। इसका असर तत्काल पश्चिम बंगाल, असम और फिर उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों पर पड़ेगा। यह सामान्य समझ से परे है कि जो बिहार चुनाव हाल तक एकतरफा लग रहा था और जहां कुल 40 में से 39 लोकसभा सीटों पर एनडीए की जीत हुई हो, वहां भाजपा इतना बड़ा जोखिम क्यों उठाएगी? चुनाव घोषणा के ठीक पहले तक विभिन्न परियोजनाओं के दनादन वर्चुअल उदघाटन के अवसर पर नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार एक-दूसरे के बारे में जो कुछ कहते रहे, उसमें भी डबल इंजन के साथ चलने का संदेश था। यह सही है कि बड़ी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को बड़े प्रदेशों के दमदार क्षत्रप अखरते हैं और सत्ता के कई दावेदार हों तो उसे सुविधा रहती है। लेकिन इस खेल में कांग्रेस की क्या दुर्गति हुई है, उसे मोदी-शाह की जोड़ी न जानती हो, यह मानना ठीक नहीं लगता।
हालांकि जो खेल चुनाव के ऐलान के साथ शुरू हुआ है, उसे मात्र एक चिराग पासवान की राजनैतिक महत्वाकांक्षा भर मानने को भी दिल नहीं मानता है। न तो उनका और न ही अब स्वर्गवासी हो गए उनके पिता रामविलास पासवान का कोई इतना बड़ा राजनैतिक आधार है। न चिराग ने अभी तक बिहार की राजनीति में नेता बनने या सत्ता का प्रमुख दावेदार बनने लायक कुछ किया है और न नीतीश कुमार से ऐसी कोई बड़ी अदावत दिखती है। पंद्रह साल पहले तक केंद्र की राजनीति करते हुए रामविलास पासवान जरूर अपनी लोक जनशक्ति पार्टी के जरिए दलितों और मुसलमानों के साथ सबसे भारी अपराधियों को लेकर बिहार की राजनीति की चाबी अपने हाथ में लेने का प्रयास करते रहे लेकिन 2005 में एक के बाद एक, दो चुनावों ने साफ कर दिया कि जनता किसको चाबी देना चाहती है। फिर रामविलास पासवान पिछले कई साल से नीतीश कुमार और भाजपा के ‘दोस्त’ ही रहे हैं, गुजरात दंगों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इस्तीफे वाले दौर को छोड़कर। वे अपने दसेक फीसदी वोट, जिसमें मुख्य रूप से पासवान वोट सबसे ज्यादा हैं, के बल पर दलित नेता भर बने रहकर संतुष्ट थे। चिराग तो पिता की छाया से कभी निकले ही नहीं और पिछली बार कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा से मनचाही संख्या में सीट पाकर भी वे मात्र दो विधायक ही जितवा पाए थे।
इस बार उनका नीतीश कुमार पर तोप तानना, अलग चुनाव लड़ना, नरेंद्र मोदी के नाम और फोटो का इस्तेमाल करना, उनके पास भाजपा के बागियों की लाइन लगना और जेडीयू वाली सारी सीटों पर चुनाव लड़ना, घोषणा के दिन से ही खबरों में छाए हुए हैं, तो इसके कई ठोस कारण हैं। पहला तो निश्चित रूप से चिराग पासवान का अपना निश्चय ही है। एनडीए की निश्चित लगती जीत में अपना हिस्सा पाने और केंद्र की सत्ता की हिस्सेदारी को दांव पर लगाकर ही वे आज इस स्थिति में आए हैं। रामविलास पासवान की गंभीर बीमारी और अब स्वर्गवास जरूर उनके लिए एक राजनैतिक आड़ बन गया है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व इसके चलते सांप-छछूंदर वाली हालत में आ गया है। अगर वह कोई एक्शन लेता है तो भी मुश्किल और एक्शन न ले तो भी मुश्किल। लेकिन चिराग और उनकी टोली पहले दिन से 143 सीटों पर लड़ने का दावा कर रही है तो निश्चित रूप से उसने उसकी तैयारी भी की है, क्योंकि उसकी तरफ से अभी तक घोषित उम्मीदवारों की सूची जाने कब से ताल ठोंक रहे पप्पू यादव, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टियों के उम्मीदवारों से अच्छी और मजबूत लगती है। इसमें पिछले चुनाव में भाजपा का मुख्यमंत्री चेहरा माने जाने वाले राजेंद्र सिंह, राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे रामेश्वर चौरसिया और दमदार विधायक रहीं उषा विद्यार्थी जैसों के आ जाने से बल मिला है।
दरअसल भाजपा तथा एनडीए की मुश्किल इसी वजह से है। एक तो इससे भाजपा और संघ परिवार के अनुशासन का मिथक टूटता है। दूसरे, इतने बड़े और तपे-तपाए लोग संघ और भाजपा के कुछ बड़े लोगों के इशारे पर ही बागी बन रहे हैं, यह भ्रम बढ़ता ही गया है। फिर रामविलास पासवान के स्वर्गवास से भाजपा के हाथ बंध गए हैं। चिराग का रुख तथा इन बागियों के प्रचार का स्वर इस असमंजस को बढ़ाता ही जाएगा। तय मानिए कि जब लोजपा यह करेगी और भाजपा ज्यादा सख्ती नहीं दिखाएगी तो जदयू के लोग भी भाजपा के उम्मीदवारों के खिलाफ सक्रिय होंगे ही। उससे भी पहले यह होगा कि कई जगहों पर भाजपा और लोजपा के उम्मीदवार आमने-सामने होंगे। गोविंदगंज जैसी सीट पर ऐसा दिखने भी लगा है। सो, मोदी और असली भाजपा या चुनाव बाद भाजपा-लोजपा सरकार का सपना भी ज्यादा दूर जाता नजर नहीं आता है। इसमें जरूर यह खतरा वास्तविक बन गया है कि नीतीश और भाजपा का गठबंधन चरमरा जाए। यह सच भी है कि केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे जैसे लोग पहले नीतीश के खिलाफ और भाजपा के अकेले चुनाव लड़ने की बात बोलते भी रहे हैं।
इसमें अभी कितना बिखराव आता है और इसके नेता कितनी कुशलता से इसे संभालते हैं, यह देखना होगा। लेकिन जो विपक्षी महागठबंधन एकदम बिखरा लग रहा था और जहां मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के सवाल पर सबसे ज्यादा खींचतान थी, वह ज्यादा सुगम ढंग से सीटों का बंटवारा और नेता का चुनाव करने में सफल रहा। ऐसे में जब बिहार की राजनीति जाति और संप्रदाय के गणित से कुछ बाहर निकलती लग रही है (इसमें लगातार 30 साल के पिछड़ा शासन का अनुभव सबसे बड़ा कारण है) तब मुकेश सहनी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे जातियों के नेताओं के निकलने और तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों के कांग्रेस और राजद के साथ आने से गठबंधन की ताकत बढ़ी लगती है, खासकर भाकपा-माले के आने से। लेकिन नीतीश के मुकाबले कोई नेता न होने, लालू-राबड़ी राज का इतिहास और मल्लाह जैसी एक नई गोलबंद जाति का समर्थन घटने से मुश्किल भी है। हालांकि सिर्फ मुसलमानों और यादवों के लगभग 30 फीसदी वोट का ठोस समर्थन चुनाव के बहुकोणीय होते ही इस गठबंधन को लाभ की स्थिति में ला देगा।
चुनाव में नीतीश का चेहरा बड़ा है। उनकी बढ़त भी लगती है। लेकिन उनके 15 साल के शासन से पैदा नाराजगी भी कम नहीं है, जिसका एक रूप चिराग के मौजूदा कदम और भाजपा के कई सारे लोगों के उनके साथ जुड़ने में भी दिखता है। पिछले चुनाव के बाद नीतीश के पाला बदलने से भी उनसे नाराज होने वाले कम नहीं हैं। इसमें भी शक है कि नरेंद्र मोदी तथा उनका बिहार पैकेज अब चुनाव में फायदा दे पाएगा। जैसे भाजपा नेतृत्व के लिए लोजपा के खिलाफ सख्ती करना मुश्किल बन गया है, उसी तरह चुनाव को सांप्रदायिक रंग देना (जिसकी कोशिश पिछले विधानसभा चुनाव के आखिरी दो चरणों में की गई थी) भी मुश्किल है। एक तो इस बार विभिन्न चरणों वाले क्षेत्रों का बंटवारा मुसलमान और हिंदू चुनाव क्षेत्र के आधार पर नहीं हुआ है। दूसरे, इससे नीतीश तथा जदयू के और बिदकने का खतरा पैदा हो जाएगा। ऐसी सूरत में यह मंडली चुनाव को अगड़ा-पिछड़ा और प्रकट/अप्रकट रूप से पिछड़ा उम्मीदवारों के समर्थन तक ले जाएगी। चुनाव अभी शुरू ही हुए हैं और इतना कुछ हो चुका है। अभी और बहुत कुछ होने जा रहा है। आखिर बिहार का चुनाव है। उसका महत्व यूं ही नहीं है। शाह अब कम नजर आ रहे हैं। तो, देखिए आगे होता है क्या!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और बिहार के जानकार हैं)