नीतीश के खिलाफ भाजपा के ही दो मोर्चे, डगर मुश्किल
“मुख्यमंत्री के लगातार चौथे कार्यकाल में मजबूत विपक्ष और अब बड़े भाई की भूमिका में आई भाजपा से दो मोर्चों पर जूझना आसान नहीं”
नीतीश कुमार ने अपने नेतृत्व में भले ही लगातार चौथी बार बिहार में विधानसभा चुनाव जीतने में सफलता पाई हो, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में उनका यह कार्यकाल सबसे चुनौतीपूर्ण होने वाला है। इस चुनाव में न सिर्फ एक मजबूत विपक्ष उभर कर सामने आया है बल्कि स्वयं उनके अपने गठबंधन में उनकी अपनी पार्टी, जनता दल-यूनाइटेड की हैसियत अपनी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी की तुलना में काफी कम हुई है। ये ऐसी सियासी परिस्थितियां हैं जिनसे नीतीश का पिछले तीन में से किसी कार्यकाल में सामना नहीं हुआ था। नवंबर 2005 में जब उन्होंने एनडीए के नेता के रूप में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल को राज्य में पंद्रह साल बाद सताच्युत करने में सफलता पाई, तब से लेकर आज के पहले तक नीतीश अपने गठबंधन के भीतर और बाहर निर्विवाद और सर्वशक्तिमान नेता थे, लेकिन अब उन्हें दोनों मोर्चों पर कड़ी टक्कर मिलने वाली है।
नीतीश का अतीत में ऐसा अनुभव नहीं रहा है। अभी तक उन्हें सहयोगी दलों को अपनी शर्तों पर काम करवाने में किसी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा और विधानसभा में अपनी संख्याबल के कारण विपक्ष को भी उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। 243 सदस्यीय सदन में केवल 43 सीटें जीतकर उनकी पार्टी काफी कमजोर दिखाई दे रही है, और इसका असर बिहार की राजनीति में दिखना शुरू हो गया है।
जद-यू की पुरानी सहयोगी भाजपा के 74 विधायक इस बार चुनाव जीत कर आए हैं, और उनके हौसले बुलंद हैं। पिछले 15 वर्षों में यह पहली बार है जब भगवा पार्टी एनडीए में ‘बड़े भाई’ की भूमिका में उभर कर आई है। पार्टी ने नीतीश के नेतृत्व में बनी सरकार में दो नए उप-मुख्यमंत्रियों, तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को मैदान में उतारकर गठबंधन के भीतर बदले हुए समीकरण को रेखांकित भी किया है। अभी तक उप-मुख्यमंत्री का पद लंबे समय से नीतीश के काबिल और भरोसेमंद भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के लिए सुरक्षित समझा जाता था, लेकिन अब उन्हें दरकिनार करते हुए दो नए नेताओं को यह जिम्मेदारी साझा करने को कहा गया है। राजनैतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि सुशील को मुख्यमंत्री के साथ कथित तौर पर निकट संबंध होने की कीमत चुकानी पड़ी है। सुशील बिहार भाजपा के दिग्गज नेता रहे हैं और पार्टी को पिछले 30 वर्षों में मजबूत करने में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन संभवतः भाजपा अब नीतीश के इर्द-गिर्द अपने ऐसे नेताओं को नियुक्त करना चाहती है, जो बिना किसी अतीत की पोटली उठाये उनकी आंखों में आंखें डाल कर बात कर सकें। इस मंत्रिमंडल से पार्टी के दो अन्य बड़े नेताओं, नंदकिशोर यादव और प्रेम कुमार को भी अभी तक बाहर रखा गया है। इनके स्थान पर नए नेताओं को तरजीह दी जा रही है।
इसके अलावा, इस बार भाजपा के पास विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी भी है, जिस पर पूर्व में हमेशा जद-यू के नेता काबिज रहते थे। और तो और, पहले दौर में शपथ लेने वाले 15 मंत्रियों में कोई अल्पसंख्यक समुदाय से भी नहीं है। दरअसल, एनडीए का कोई भी मुस्लिम उम्मीदवार इस चुनाव में विजयी न हो सका, लेकिन जद-यू के किसी भी मुस्लिम नेता के मंत्री न बनने को राजनैतिक हलकों में नीतीश के घटते कद के रूप में देखा जा रहा है। आखिरकार उन्हें देश में हमेशा समावेशी राजनीति के पुरजोर पैरोकार के रूप में देखा गया है।
जद-यू हालांकि नए घटनाचक्र को इस रूप में नहीं देखती है। पार्टी नेताओं का कहना है कि नीतीश गठबंधन के सर्वमान्य नेता हैं और वे किसी तरह के दवाब में काम नहीं कर सकते, लेकिन उनके विरोधियों को लगता है कि बदले हालात में मुख्यमंत्री अपने अतीत की छवि के छायामात्र रह गए हैं।
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी प्रसाद यादव, जिन्होंने महागठबंधन के नेता के रूप में एनडीए के खिलाफ एक अतिउत्साही अभियान का नेतृत्व किया, नीतीश पर लोगों के जनादेश को ‘हाइजैक’ करने का आरोप लगाते हुए उनके शपथ ग्रहण समारोह से दूर रहे। लेकिन अपने बधाई संदेश में उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि मुख्यमंत्री एनडीए का 19 लाख नौकरियों का वादा पूरा करने के अलावा शिक्षा, रोजगार, सिंचाई और स्वास्थ्य सेवा जैसे सकारात्मक मुद्दों को अपनी सरकार की प्राथमिकता बनाएंगे। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर 19 लाख को एक महीने के अंदर नौकरियां नहीं मिलती हैं, तो वे जनता के साथ सड़क पर विरोध प्रदर्शन में उतरेंगे। तेजस्वी कहते हैं, “हमने तो कहा था कि पहली कैबिनेट में 10 लाख युवकों को रोजगार देंगे, पर भाजपा और एनडीए ने 19 लाख रोजगार देने का वादा किया। उन्होंने यह नहीं बताया कि कब तक ऐसा करेंगे। राजद इसके लिए उन्हें एक महीने का वक्त दे रहा है।”
राजद के नेतृत्व में सदन में महागठबंधन के विधायकों की संख्या 110 है, जो बहुमत से 12 ही कम है। विधानसभा में असदुद्दीन ओवैसी के एआइएमआइएम के पांच और बहुजन समाज पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी के एक-एक विधायक हैं, जो नीतीश के खिलाफ हैं। ऐसी स्थिति में दोनों गठबंधनों में संख्याबल के हिसाब से बेहद कम का फासला है। इसलिए विपक्ष शुरू से ही हमलावर नजर आ रहा है।
नीतीश ने नए मंत्रिमंडल के गठन के साथ ही विपक्ष को उन पर आक्रमण करने एक मौका दिया जब उन्होंने तारापुर के विधायक मेवालाल चौधरी को शिक्षा मंत्री के रूप में नियुक्त किया। चौधरी 2010 से 2015 के बीच भागलपुर जिला स्थित बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर में कुलपति रह चुके हैं। उस दौरान उन पर वहां हुई नियुक्तियों में कथित रूप से हुए घोटालों में संलग्न होने के आरोप लगे थे। राजभवन के निर्देश पर उन पर एक एफआइआर भी दर्ज हुई थी। हालांकि चौधरी का कहना है कि इस मामले में उनके खिलाफ अभी तक कोई चार्जशीट दायर नहीं की गई है।
विपक्ष ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया, जिसके कारण नए शिक्षा मंत्री को अपना पदभार संभालने के तीन दिनों के अंदर ही इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा। चौधरी के इस्तीफा देने के निर्णय को जद-यू नेता नीतीश की राजनीतिक शुचिता के प्रति प्रतिबद्धता बताते हैं, लेकिन तेजस्वी पूछते हैं कि आखिर मुख्यमंत्री ने ऐसे व्यक्ति को मंत्रिपद क्यों सौंपा जिस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं? राजद नेताओं का कहना है कि यह 60 घोटालों के संरक्षक रहे नीतीश के दोहरे चरित्र को दर्शाता है। लालू प्रसाद की पार्टी ने एक ट्वीट में कहा, “यह व्यक्ति कुर्सी के लिए कुछ भी कर सकता है।”
संयोग से, 2005 में भी नीतीश को शपथ ग्रहण के तुरंत बाद जीतन राम मांझी को अपने मंत्रिमंडल से हटाना पड़ा था, जब उन्हें पता चला कि उनके खिलाफ राजद शासन के दौरान हुए बी.एड. घोटाले में चार्जशीट दायर हुई थी। मांझी, जो अब गठबंधन में उनके सहयोगी हैं, को बाद में मंत्रिमंडल में शामिल होने की अनुमति तब दी गई जब दो साल बाद उन्हें अदालत ने बरी कर दिया। बाद के कार्यकाल में भी रामानंद सिंह और अवधेश कुशवाहा जैसे कुछ अन्य मंत्री हुए जिन्हें नीतीश ने उन पर लगाये गए कतिपय आरोपों के कारण मंत्रालय से बाहर का रास्ता दिखया दिया था। लेकिन नीतीश के विरोधियों का कहना है अब वह दौर गुजर गया है और वे अब भाजपा के दवाब में काम कर रहे हैं।
इस बीच, विपक्ष के हमलों से इतर, भाजपा के साथ नीतीश के संबंधों एक और परीक्षा जल्द होने वाली है। चौदह दिसंबर को पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की मृत्यु के कारण होने वाले राज्यसभा उपचुनाव में लोजपा नेताओं ने उनकी पत्नी रीना पासवान को राज्यसभा भेजने की भाजपा से मांग की है, लेकिन पार्टी अध्यक्ष चिराग पासवान के चुनाव के दौरान नीतीश पर लगातार किए गए हमलों के कारण जद-यू किसी लोजपा उम्मीदवार को समर्थन देने के मूड में नहीं है। उनके समर्थन के बगैर किसी एनडीए उम्मीदवार की विजय तय नहीं लगती है। ऐसी स्थिति में भाजपा सुशील कुमार मोदी या पार्टी के किसी अन्य नेता को उम्मीदवार बना सकती है। हालांकि ऐसी चर्चाएं भी हैं कि वैसी परिस्थिति में राजद इस उपचुनाव में लोजपा को अपना समर्थन देकर मुकाबला दिलचस्प बना सकती है। कुछ भी हो, बदले समीकरण में बिहार की सियासत में आने वाले समय में बहुत कुछ होने वाला है। इसके आसार अभी से स्पष्ट दिखने लगे हैं।