बॉम्बे हाईकोर्ट के मंदिरों में औरतों को बराबरी हक के फैसले की देश भर में गूंज
महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने जिस तरह से कहा कि मंदिरों में पूजा करना महिलाओं का मौलिक अधिकार है, उससे लगता है कि यह मामला सिर्फ महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर तक नहीं रुकने वाला है। देश के उन तमाम मंदिरों में अब औरतों के प्रवेश की मांग और तेज होने की उम्मीद है। खास तौर से केरल में सबरीमला मंदिर में औरतों के प्रवेश को लेकर मांग को भी महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के इस फैसले से बल मिलेगा।
बॉम्बे उच्च न्यायलय ने जिस स्वर में कहा कि सरकार का यह मौलिक कर्तव्य है कि वह महिलाओं के मंदिरों में प्रवेश के अधिकार की गारंटी करे। अदालत में महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि वह मंदिरों में प्रवेश से रोकने पर छह महीने की जेल से जुड़े कानून को लागू करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगी। सरकार ने यह भी कहा कि स्त्री पुरुष भेदभाव स्वीकार नहीं है। इससे यह भी साफ होता है कि औरतों के मौलिक अधिकार के रूप में इसे प्रतिपादित किया गया है। इसकी नजीर देश भर में पेश की जाएगी। महिला संगठनों को इस फैसले से बहुत राहत मिली है।
इन तमाम दावों के बीच यह भी जबर्दस्त विडंबना है कि अभी भी देश के अनगिनत मंदिरों में महिलाओं और दलितों के प्रवेश पर रोक लगी हुई है। कई बड़े मंदिरों के बाहर ही इस तरह के भेदभावक सूचनाएं लगी रहती हैं।
अब महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद तमाम दूसरे मंदिरों के बंद दरवाजे खोलने की मांग बढ़ रही हैं। केरल के शबरीमला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले समूह—हैपी टू ब्लीड- को बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले में आशा की किरन दिखाई दे रही है। सबरीमला मंदिर में 10 साल से लेकर 60-65 साल तक की महिलाओं का प्रवेश इसलिए वर्जित है क्योंकि मंदिर का मानना है कि इस दौरान न सिर्फ औरतें अपवित्र होती हैं, बल्कि उनके भगवान पर भी जवान महिलाओं से खतरा हो सकता है। यहां भगवान ब्रह्मचारी माने जाते हैं। इसी के विरोध में महिलाओं ने एक अभियान चलाया जिसे नाम दिया हैप्पी टू ब्लीड यानी हमें महावारी से शर्म नहीं, गर्व है। इस अभियान का देशव्यापी असर हुआ है।
महाराष्ट्र में शनि शिंगणापुर मंदिर में औरतों के हर जगह प्रवेश को लेकर आंदोलन चलाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता तृप्ति देसाई ने इसे महिलाओं और संविधान की जीत बताया है। उन्हें पहले पुलिस और कुछ स्थानीय लोगों ने वहां पूजा करने से रोक दिया था, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं। शनि शिंगणापुर मंदिर में प्रथा का विरोध करते हुए इन आंदोलनकारी महिलाओं ने यह सवाल उठाया था कि मंदिर चबूतरे पर अगर पुरुष जा सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं। अदालत ने औरतों के पक्ष में फैसला दिया।
महाराष्ट्र सरकार ने भी इस मामले पर साफ किया था कि भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म महिलाओं को पूजा का अधिकार देता है। अदालत ने महिलाओं को बराबरी के हक की जरूरत को स्पष्ट करते हुए कहा कि अगर कोई मंदिर या व्यक्ति इस तरह का प्रतिबंध लगाता है तो उसे महाराष्ट्र के एक कानून के अंतर्गत छह महीने की जेल की सजा हो सकती है। अदालत ने कहा कि अगर कोई भगवान की शुद्धता के बारे में चिंतित हैं तो सरकार को बयान देने दें।
जिस तरह से मुख्य न्यायाधीश वाघेला ने कहा कि देश का कोई कानून औरतों को मंदिरों में प्रवेश से रोक नहीं सकता, उससे स्पष्ट है कि इसकी गूंज देश भर में होगी। न्यायाधीश वाघेला ने कहा, ऐसा कोई कानून नहीं है जो महिलाओं को किसी स्थान पर जाने से रोके। अगर आप पुरुषों को अनुमति देते हैं तो आपको महिलाओं को भी अनुमति देनी चाहिए। अगर एक पुरुष जा सकता है और मूर्ति के सामने पूजा कर सकता है तो महिलाएं क्यों नहीं? महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण करना राज्य सरकार का कर्तव्य है।