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18 April 2020

क्या लॉकडाउन के सख्त नियम गरीबों के लिए ही, साधन संपन्न को मिल गया है छूट का अधिकार

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गुरूग्राम में एक मजदूर सोचिए कितना मजबूर और साधनहीन होगा, कि उसे परिवार का पेट भरने के लिए केवल मोबाइल का ही सहारा दिखा। वह भी बेचकर जब परिवार का पेट नहीं भर पाया तो उसने आत्महत्या कर ली। मृतक अपने पीछे चार बच्चे और पत्नी को पीछे छोड़कर गया। लॉकडाउन में यह मजदूर अकेले नहीं है, मुंबई के बांद्रा टर्मिनल पर उमड़े हजारों श्रमिक, सूरत में सड़क पर घर जाने की मांग पर उतरे हजारों श्रमिक उस तस्वीर को बयां कर रहे हैं कि कैसे इस ऐतिहासिक संकट में देश का गरीब लाचार और बेबस है।

अब एक दूसरी तसवीर पर गौर करिए जिसमें मुंबई के बिजनेसमैन और करोड़ों के फ्रॉड में आरोपी वाधवान परिवार अपने रसूख से लॉकडाउन में महाबलेश्वर छुट्टियां मनाने चला जाता है। कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के बेटे की शादी में सारे सोशल डिस्टेंसिंग नियमों की धज्जियां उड़ जाती है। उसी राज्य में भाजपा के विधायक एम.जयराम अपना जन्मदिन नियमों की अनदेखी कर मनाते हैं, और अब उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार सोशल मीडिया में राजस्थान के कोटा  में छात्रों के हैशटैग कैंपेन #SendUsbackHome से घबराकर या दबाव में आकर 250 बसों को भेजकर 7500 छात्रों को वापस घर पहुंचाने के लिए तैयार हो जाती है। जिस फैसले की प्रशंसा राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत करने से नहीं चूकते हैं। ऐसा ही मामला गुजरात के हरिद्वार में फंसे लोगों का भी मीडिया में आया था। जिसके अनुसार उन यात्रियों को आनन-फानन में लॉकडाउन के बीच में बसों के जरिए गुजरात पहुंचाया गया था।

वह तसवीर भी सभी को याद होगी जिसमें 3-4 लाख श्रमिक लॉकडाउन के बीच दिल्ली के आनंद विहार पर इकट्ठा हो गए थे। इसमें भी ज्यादातर वही गरीब तबका था जो साधनसंपन्न लोगों के लिए रोजमर्रा की सारी जरूरतें पूरी करता है। बढ़ते दबाव के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हें बसों के जरिए उत्तर प्रदेश लेकर आई थे। लेकिन इसमें से भी ज्यादार लोगों को सीधे घर न पहुंचाकर क्वारंटीन किया गया था।

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गरीब की गरिमा खत्म हो गई

मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े और समाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है “जिस कोटा शहर से आप छात्रों को ले जा रहे हैं, वहां पर मजदूर भी बेबस और लाचार हैं। वह उन छात्रों से कहीं ज्यादा दिक्कतें झेल रहे हैं, लेकिन उन्हें कहा जा रहा है, लॉकडाउन में रहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि वह उन छात्रों जैसे साधन संपन्न नहीं है। जिनके घर वाले प्रशासन और सरकार पर अपने बच्चों को वापस लाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। यह विभाजन हमारी राजनीति, समाज में है। ऐसा नहीं है कि गरीबों को नहीं दिख रहा है, वह इस बेबसी में देख रहे हैं कि उनके साथ क्या हो रहा है, किसको सरकार घर पहुंचाने की व्यवस्था कर रही है। इन बेबस लोगों का बहुत बुरा हाल है। जब लोग संकट में हो तो सरकार को इनकी मदद करनी चाहिए थी, उल्टा सरकार ने इनकी जान खतरे में डाल दी और उन्हें लॉकडाउन के जरिए बंद कर दिया। समझने वाली बात यह है कि आप क्या प्राप्त कर रहे हैं, क्या यह लोग सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन कर पा रहे है। वह तो छोटे कमरे में कई लोगों के साथ रहते हैं। खाने-पीने से लेकर हर जरूरी चीजों के लिए लाचार है। गरीब तबके की गरिमा ही खत्म कर दी गई है। बहुत बुरी स्थिति है। ”

निखिल डे जैसी ही बात को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर विवेक कुमार भी स्वीकारते हैं। वह कहते हैं “यह विभाजन तो लॉकडाउन के ऐलान से ही दिख रहा है। 23 मार्च के लॉकडाउन से पहले 15 लाख लोगों को विदेश से आने की अनुमति दी गई। कई लोगों को तो सरकार खुद चार्टर प्लेन के जरिए भारत लेकर आई। लॉकडाउन के ऐलान से साफ है कि सरकार ने यह सोचा ही नहीं की देश में रह रहे गरीब का क्या होगा। क्योंकि अकेले महानगरों के स्लम में 1.5-2 करोड़ लोग रहते हैं। इनमें ज्यादातर लोग अपने घरों को छोड़कर शहरों में आकर अपना भेट भर रहे हैं। लेकिन क्या यह संभव है कि देश के शीर्षस्थ लोगों को इसका अंदाजा नहीं होगा। वह क्या यह नहीं सोचे होंगे, कि करोड़ों लोग अपने घर कैसे जाएंगे। बंग्लादेश जैसे छोटे देश ने भी लॉकडाउन से पहले एक हफ्ते का समय दिया था। लेकिन हमनें महज चार घंटे में लॉकडाउन लागू कर दिया। लॉकडाउन में साधनसंपन्न लोगों की शादियां हो रही हैं, बसों में बैठाकर घर पहुंचाया जा रहा है, इन उदाहरणों से साफ है कि गरीब की केवल बातों में परवाह है। ”

राजनीति भी शुरू

कोटा के फैसले पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सवाल उठाए हैं, उन्होंने कहा है “कोटा में पढ़ने वाले छात्र संपन्न परिवार से आते हैं। अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को साथ रहते हैं, फिर उन्हें क्या दिक्कत है? जो गरीब, अपने परिवार से दूर बिहार के बाहर है फिर तो उन्हें भी बुलाना चाहिए। लॉकडाउन के बीच में किसी को बुलाना नाइंसाफी है. इसी तरह मार्च के अंत में भी मजदूरों को दिल्ली से रवाना कर लॉकडाउन को को तोड़ा गया था । ” हालांकि उनके इस बयान पर अभी तक भाजपा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, इस मसले पर आउटलुक ने भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता से लेकर उत्तर प्रदेश के प्रवक्ताओं से उनका पक्ष जानने की कोशिश की लेकिन सभी ने इसकी कोई जानकारी नहीं होने का हवाला देकर बात करने से इंकार कर दिया । वहीं इस फैसले पर जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता के.सी.त्यागी का कहना है “ प्रधानमंत्री ने अपने चार संबोधन राष्ट्र को किए हैं, जिसमें उन्हें सोशल डिस्टेंसिंग को ही मौजूदा एक मात्र इलाज बताया है। ऐसे में सभी को इसका पालन करना चाहिए। इसका पहला भीषण उल्लंघन दिल्ली के आनंद विहार टर्मिनल पर हुआ। वाहवाही लूटने के लिए यूपी सरकार ने बसों के जरिए लोगों को बुलवाया। जो सीधा प्रधानमंत्री के निर्देशों का उल्लंघन था। उसके बाद सूरत, अहमदाबाद, मुंबई में ऐसी घटनाएं हुई। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि जहां पर लोग रह रहे हैं, वहां खाने-पीने, रहने की बदइंतजामी है। राज्य सरकारें अपने दायित्व को निभाने में असफल रही है। ऐसा ही मामला कोटा शहर का आया है, क्या कुछ छात्रों की इच्छा को देखते हुए सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का उल्लंघन कर देना चाहिए। यूपी सरकार को छोड़कर किसी राज्य ने ऐसा कोई एक्शन नहीं लिया है। बल्कि दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने राजस्थान सरकार को कहा है कि वह लोगों का ध्यान रखे, उनके खाने-पीने की व्यवस्था कराएं और सोशल डिस्टेंसिंग का पालने भी कराए। उत्तर प्रदेश के सरकार के इस कदम से दूसरे राज्यों पर भी ऐसा करने का दबाव बन गया है। उत्तर प्रदेश सरकार को मेरा सुझाव है कि ऐसे लोकलुभावन कार्य करने से तब तक परहेज करें, जब तक कोरोना संकट खत्म नहीं हो जाता है। हमें तो प्रधानमंत्री की नसीहत को मानना चाहिए। बिहार सरकार ने अब तक दूसरे राज्यों में फंसे 9.50 लाख लोगों के खाते में हजार-हजार रुपये दिए हैं। बिहार में सख्ती के साथ हम सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करा रहे हैं।”

अब यह तो केंद्र और राज्य सरकारों का दायित्व है कि वह कैसे गरीब तबकों न केवल गरिमा से रहने का मौका दे बल्कि कोरोना संक्रमण स उनकी रक्षा भी करे।

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OUTLOOK 18 April, 2020
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