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19 October 2020

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार: दो नेता, दोनों लाए बदलाव

बिहार विधानसभा चुनावों का ऐलान हो चुका है। राज्य में तीन चरणों में मत डाले जाएंगे और 10 नवंबर को नतीजों का ऐलान होगा। इस बार का चुनाव कई मायने में खास है। कोविड-19 के साये में यह देश का पहला चुनाव होगा, जब पूरा प्रचार एक तरह से डिजिटल या वर्चुअल होगा। जाहिर है इसके बाद से भारत में चुनाव प्रचार का तरीका बदलने वाला है। कुछ हद तक इस बदलाव के दौर की तुलना अमेरिकी चुनाव के ‘जॉन केनेडी मोमेंट’ से की जा सकती है। उस वक्त केनेडी ने अपने प्रतिद्वंद्वी निक्सन को टेलीविजन में हुई बहसों के आधार पर चुनावों में मात दी थी और उसके बाद से अमेरिकी चुनाव में टेलीविजन अहम हिस्सा बन गया। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि केनेडी को ‘टेलीविजन राष्ट्रपति’ कहा जाने लगा। इन परिस्थितियों में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की तुलना करना किसी चुनौती से कम नहीं है।

शुरुआत लालू प्रसाद से करते हैं। वे जेल में हैं, इसलिए इस माध्यम का बहुत फायदा नहीं उठा सकेंगे। वे जमीनी चुनाव अभियान ज्यादा करते रहे हैं, ऐसे में उनके लिए नए माध्यम से सामंजस्य बिठाना आसान नहीं होगा। लालू के विपरीत नीतीश कुमार वर्चुअल चुनाव प्रचार के लिए पहले से तैयार हैं, जिसमें मुद्दों को अपने अनुसार मतदाताओं के सामने रखने की उनकी खासियत बहुत कारगर होगी। अगर पिछले चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो उस वक्त लालू प्रसाद यादव ने 246 और नीतीश ने 243 रैलियां की थीं।

दुर्भाग्य से 2020 का चुनाव मुख्य रूप से सीटों के बंटवारे और चुनाव बाद कौन मुख्यमंत्री बनेगा, इन्हीं मुद्दों के चारों तरफ घूम रहा है। दोनों गठबंधन प्रचार के दौरान न्यूनतम कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर बहुत कम जोर दे रहे हैं। बिहार चुनाव में सबसे गंभीर बात यह है कि राजनीतिक दल दिखाने के लिए भी विचारधारा की बात नहीं कर रहे हैं, जबकि किसी राज्य के विकास और उसके लिए बनाई जाने वाली नीतियों में विचारधारा का होना सबसे जरूरी तत्व है। हम कहां जाएंगे उसकी दिशा तय करने में राज्य और बाजार दोनों का बेहद महत्व होता है। विचारधारा को किस तरह से ताक पर रख दिया गया है, इसे समाजवादी आंदोलन से निकले स्वर्गीय रघुवंश प्रसाद सिंह द्वारा लालू प्रसाद यादव को लिखे पत्र से समझा जा सकता है। बिना किसी का नाम लिए उन्होंने अपने पत्र में लिखा, “कैसे एक परिवार के पांच लोगों ने पोस्टर पर महात्मा गांधी, बी.आर.अांबेडकर, जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे महानायकों की जगह ले ली है।” दूसरी तरफ, नीतीश कुमार के गुरु जॉर्ज फर्नांडीस अगर आज जिंदा होते तो उन पर भी कीचड़ उछाला जा रहा होता। उनकी सहयोगी जया जेटली को 2001 के रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के मामले में दिल्ली की अदालत ने हाल ही दोषी ठहराया है। जेटली पर यह फैसला एक न्यूज चैनल का स्टिंग ऑपरेशन सामने आने के बाद आया है।

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ऐतिहासिक रूप से सोशलिस्ट पार्टी और उसके आंदोलन की जड़ें बिहार में काफी गहरी थीं। इसकी शुरूआत किसान आंदोलन से हुई थी, जिसे बाद में जयप्रकाश नारायण ने 30 के दशक में, 1934 के आसपास संगठित किया। कांग्रेस के अलावा केवल सोशलिस्ट पार्टी ने बिहार में  बड़ा जनाधार तैयार किया। राज्य में निष्क्रिय पड़े सामाजिक आंदोलनों की जगह सोशलिस्ट पार्टी ने सामाजिक भेदभाव के मुद्दे उठाकर राज्य को अपने अभेद्य किले के रूप में तब्दील कर लिया। बाद में मंडल कमीशन ने राज्य की राजनीति में बदलाव किए। उसके बाद मुंगेरी लाल कमीशन ने इस नई राजनीति को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई। एक तरफ जहां मंडल कमीशन की वजह से पिछड़ों में शामिल प्रभावशाली जातियों का राजनीतिक प्रभुत्व कायम हुआ, वहीं मुंगेरी कमीशन ने पिछड़ों में कमजोर जातियों को राज्य की राजनीति में अहम स्थान हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विडंबना है कि राज्य में ये नीतियां उस वक्त लागू की गईं, जब देश में ‘नई आर्थिक नीति’ लागू की जा रही थी। इसकी वजह से सरकारी नौकरियों में कमी आने लगी थी। उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरूआत ही शायद मंडल कमीशन की सिफारिशों को देखते हुए की गई थी। राज्य में अब सामाजिक आंदोलन सुस्त पड़ गए हैं, लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने से राज्य में ‘सामाजिक न्याय’ आंदोलन को जरूर प्रोत्साहन मिला है। अहम बात यह है कि सामाजिक न्याय के इस आंदोलन को लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों ने मिलकर शुरू किया था। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद लालू प्रसाद को विपक्ष का नेता और फिर बिहार का मुख्यमंत्री बनाने में नीतीश कुमार की अहम भूमिका रही है। उस दौर में दोनों की जोड़ी को सामाजिक न्याय के लिए बिहार में ‘एक-दूसरे का पूरक’ कहा जाता था। लेकिन जल्द ही नीतिगत मुद्दों पर दोनों की राह अलग हो गई। नीतीश को लालू प्रसाद के काम करने के तरीके से परेशानी होने लगी। नीतीश जहां स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था के तहत काम करना चाहते थे, वहीं लालू के काम करने का तरीका ठीक उलट था।

वास्तव में जिस दिन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक दूसरे से अलग हुए, वह बिहार में सामाजिक आंदोलन का दुखद दिन था। दोनों ने मिलकर समाज के पिछड़े तबके का जिस तरह सशक्तीकरण किया, वह उल्लेखनीय था। उनकी इसी पहल का नतीजा था कि विधानसभा में ऊंची जातियों की संख्या में कमी आई और पिछड़े तबके के लोगों को ज्यादा मौके मिले। अपनी जड़े जमाएं ऊंची जातियों का वर्चस्व कम हुआ। इसका त्वरित असर यह हुआ कि जो लोग उच्च जातियों के मातहत हुआ करते थे, वे अब शोषण के खिलाफ आवाज उठा सकते थे और बिना किसी झिझक के पुलिस थाने में अपनी शिकायत दर्ज करा सकते थे।

लालू प्रसाद से अलग होने के बाद नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडीस के संरक्षण में समता पार्टी का गठन किया। इसके बाद सामाजिक न्याय का सारा ठेका जैसे लालू प्रसाद ने अकेले उठा लिया। एक समय संयुक्त बिहार (जब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था) का पूरा पिछड़ा वर्ग लालू प्रसाद के साथ था। वाम दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा भी लालू प्रसाद का समर्थन करते थे। सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में लालू प्रसाद सबसे बड़े ब्रांड बन चुके थे। इसी का परिणाम था कि कभी न हारने वाले मुस्लिम-यादव गठबंधन को बनाने में भी वह कामयाब रहे। दुर्भाग्य से लालू, चुनाव के लिए इस समीकरण को बचाने में लगे रहे और उन्होंने जीर्ण-शीर्ण हो चुके राज्य के विकास की अनदेखा कर दी।

राज्य की पिछड़ी अर्थव्यवस्था ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई। आजादी के बाद से बिहार में भ्रष्टाचार के वही तरीके अपनाए जा रहे थे, जिसमें विकास के लिए आई धनराशि को पूरी तरह से सरकार में बैठे लोग निगल जाते थे। उदाहरण के तौर पर अगर कोई सड़क बनाई जानी है, तो उसके लिए आवंटित सारा पैसा मंत्री या उसके भरोसे वाले अधिकारी के निजी बैंक खाते में चला जाता था। इसके ठीक उलट गुजरात या दूसरे विकसित राज्यों में सड़क वास्तव में बनाई जाती थी। इससे बिजनेस गतिविधियों को मदद मिलती थी और कमाई होती थी। बिजनेसमैन को होने वाली ऊंची कमाई का एक हिस्सा सत्ता में बैठे लोग बांटते थे। भ्रष्टाचार का यह तरीका बिहार से एकदम अलग था। बिहार में भ्रष्टाचार की इसी संस्कृति की वजह से राज्य की आर्थिक संस्कृति पूरी तरह से बदल गई। चारा घोटाला इसी संस्कृति का उदाहरण था, जो कांग्रेस के शासनकाल में शुरू हुआ और लालू प्रसाद के दौर में चरम पर पहुंच गया। इसके लिए बाद में वे दोषी पाए गए। लालू प्रसाद के शासनकाल में भ्रष्टाचार के अलावा गवर्नेंस के दूसरे मानकों में भी स्थितियां सुधरने की जगह बिगड़ गईं। जब लालू प्रसाद जेल गए तो उनके साले सत्ता का केंद्र बन गए। इस प्रक्रिया में बिहार में जहां अपहरण उद्योग को बढ़ावा मिला, वहीं राज्य में कानून व्यवस्था भी पूरी तरह से चौपट हो गई।

जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद को हराकर सत्ता संभाली, तो सामाजिक न्याय की बात पूरी तरह से ठहर गई थी। बुद्धिजीवी इसके पहले कई बार लालू के पूरी तरह खत्म होने की बात कह चुके थे। इन परिस्थितियों में नीतीश कुमार ने दो अलग धुरियों को साथ लाने की रणनीति पर काम करना शुरू किया। इस रणनीति के तहत उन्होंने उच्च वर्ग और पिछड़े वर्ग को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की कोशिश की। इस प्रक्रिया में नीतीश कुमार संबल देने वाले नेता बन गए। वे आम जनता को सड़कें, पुल, संस्थान और बेहतर कानून-व्यवस्था देकर खुश कर रहे थे। उनके दौर में न केवल अपराधियों पर नकेल कसी गई, बल्कि कई बाहुबलियों को जेल की सलाखों के पीछे भी पहुंचाया गया। राज्य का इकबाल फिर बुलंद हुआ। राज्य की अर्थव्यवस्था देश में सबसे तेज रफ्तार से बढ़ने वाली हो गई। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र में कई सकारात्मक पहल हुईं। बिजली के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम हुआ। लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया। यही नहीं, बिहार मॉडल की चर्चा हर जगह होने लगी। उदाहरण के तौर पर बिल गेट्स कई बार बिहार की यात्रा पर आए। राज्य में हुए सकारात्मक बदलाव से उसकी छवि में भी बदलाव आया। जो लोग एक समय बिहारी होने की पहचान छुपाने लगे थे, वे इसे सम्मान के साथ बताने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि बिहारी शब्द के जरिए उपराष्ट्रवाद भी पनपने लगा।

शुरुआत में लालू प्रसाद ने पिछड़े वर्ग के लोगों को विधानसभा और लोकसभा का टिकट देकर सांसद और विधायक बनाया। नीतीश कुमार ने उनसे एक कदम आगे निकलकर पंचायती राज संस्थाओं में उनके लिए 30 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर दिया। साथ ही सबसे पिछड़े वर्ग ‘महादलित’ को भी आरक्षण दे दिया। इन कदमों ने दो धुरियों को सफलतापूर्वक एक साथ लाकर नया इतिहास बना दिया। नीतीश के शासन में जहां गवर्नेंस मजबूत हुआ, वहीं बिहार की छवि में भी सकारात्मक बदलाव आया। शराबबंदी की व्यवस्था पर नीतीश को वैसी सफलता नहीं मिली, मगर इस कदम की सराहना जरूर हुई। हालांकि इसकी अवैध बिक्री जारी है। स्वास्थ्य और शिक्षा का खर्च अभी पर्याप्त नहीं है। बिहार के संक्षिप्त इतिहास से पता चलता है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ रहकर और अलग होकर भी राज्य में कहीं न कहीं अहम बदलाव लेकर आए। राज्य सामंतवादी और पिछड़ी सोच की छवि से निकलकर जीवंत बन चुका है।

(लेखक पटना स्थित थिंक-टैंक एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के मेंबर सेक्रेटरी हैं)

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TAGS: बिहार विधानसभा चुनाव, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, Bihar elections, Lalu Prasad, Nitish Kumar
OUTLOOK 19 October, 2020
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