जनादेश 2022/राजनीति: चुनाव के नतीजे चाहे जो आएं...सूरत तो बदलती नहीं दिखती
“चुनाव के नतीजे चाहे जो आएं उत्तर प्रदेश के सामाजिक ढांचे में कोई बड़ा बदलाव आता नहीं दिखता”
सबसे अधिक आबादी वाला राज्य खुद को किस तरह देखता है? ये विविध और विरोधाभासी आत्म-छवियां उसकी राजनीति को और खुद भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित करती हैं? क्या वजह थी कि राज्य में निचली जातियों के आंदोलन हुए, दलित स्त्री मुख्यमंत्री बनीं, फिर भी मंदिर की राजनीति मजबूत होती गई? उत्तर प्रदेश के अधिकांश लोग अमूमन किसी विशिष्ट प्रांतीयता से परे जीते हैं। केरल, पश्चिम बंगाल और असम जैसे गैर-हिंदी भाषी राज्यों की सांस्कृतिक और भाषाई अस्मिता छोड़िए, हिंदी भाषी राज्यों की भी विशिष्ट पहचान है जैसे, हरियाणवी, बिहारी, छत्तीसगढ़िया, झारखंडी। उत्तर प्रदेश के निवासी खुद को पूर्वांचली, ब्रजवासी, अवधी और रूहेलखंडी जैसे क्षेत्रीय आईनों में देखते हैं। ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश’ भी एक भौगोलिक सहूलियत मात्र है। आगरा और शामली पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन आगरा का भावनात्मक संबंध अमूमन बृज क्षेत्र के मथुरा और हाथरस जैसे शहरों के साथ है।
चुनाव के वक्त मुजफ्फरनगर से लेकर मिर्जापुर तक के निवासी इस सुख में डूबे रहते हैं कि वे ही अगला प्रधानमंत्री तय करेंगे। प्रो. हरीश त्रिवेदी कहते हैं, “जब मैं बड़ा हो रहा था, उत्तर प्रदेश पर बहुत गर्व महसूस हुआ करता था। सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण वजह यह थी कि एक स्थानीय नेता स्वतंत्र भारत के पहले सत्रह वर्षों (जो मेरे जीवन के भी थे) तक प्रधानमंत्री था। उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। हमारे लिए प्रधानमंत्री पद ‘घर की खेती’ जैसा था।” उन्होंने कई प्रधानमंत्रियों के नाम लिए और रेखांकित किया कि नरेंद्र मोदी भी ‘तकनीकी रूप से’ उत्तर प्रदेश के हैं।
80 सांसदों को लोकसभा भेजता यह राज्य (इसके बाद महाराष्ट्र के पास 48 सांसद हैं) दिल्ली की गद्दी पर तीर साधता रहता है। वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे कहती हैं, “यूपी का कोई भी मुख्यमंत्री राज्य के नव-निर्माण लिए काम नहीं कर पाया। उनकी नजर हमेशा लाल किले पर रहती है। बड़े फैसले दिल्ली को लेकर लिए जाते हैं।” राज्य की चुनावी ताकत इतनी है कि मुख्यमंत्री की राष्ट्रीय छवि बनने से पहले ही उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लिया जाता है। शुरुआती वर्षों में ही मायावती और योगी आदित्यनाथ को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखा जाने लगा था। राष्ट्रीय पहचान की आकांक्षा में नेता उस विचारधारा को जल्द त्याग देते हैं, जिसके सहारे वे सत्ता में आए थे। वरिष्ठ लेखक वीरेंद्र यादव कहते हैं, “मायावती और मुलायम ने हाशिए के समुदायों के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव जीता था, लेकिन विचारधारा को त्याग एक भिन्न राजनीतिक मुहावरे को अपना लिया।”
विशिष्ट पहचान के अभाव से राज्य की राजनीति क्षेत्रीय ढांचे में विभाजित रहती है और अक्सर एकजुट नहीं हो पाती। यूपी काडर के सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी अनिल स्वरूप केंद्र में प्रतिनियुक्ति के अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं, “विभिन्न राज्यों के नेता साझा सरोकारों के साथ दिल्ली आते थे। केरल में वाम और दक्षिणपंथी दल अक्सर लड़ते हैं लेकिन दिल्ली आते वक्त वे एकजुट हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के नेता राज्य हित के बजाय स्थानीय मुद्दे लेकर आते थे।”
वीरेंद्र यादव उत्तर प्रदेश की ‘अखिल भारतीय पहचान’ को ही भ्रामक मानते हैं। ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ का ध्वजवाहक होने से बड़ा भ्रम दूसरा कोई नहीं। हिंदू-मुस्लिम एकता का यह काव्यात्मक रूपक आज केवल अपवाद के तौर पर दिखाई देता है। हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने की राजनीतिक परियोजना नजरअंदाज करती आई है कि लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से बहुत पहले राज्य का स्वरूप बदल रहा था। ज्ञानेश कुदसिया अपनी किताब रीजन, नेशन, हार्टलैंड: उत्तर प्रदेश इन इंडियाज बॉडी पॉलिटिक में उल्लेख करते हैं कि स्वतंत्रता के बाद यूनाइटेड प्रॉविन्स की विधानसभा में प्रांत के नए नाम पर चर्चा हो रही थी। यूपी कैबिनेट के पास करीब बीस नामों के प्रस्ताव आए, जिनमें आर्यावर्त, ब्रह्मवर्त, ब्रह्मदेश, कृष्ण कौशल प्रांत और राम कृष्ण प्रांत शामिल थे। कुदसिया लिखते हैं कि “राज्य के पहले मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के कार्यकाल में राज्य ‘हिंदी हार्टलैंड’ में बदल गया और उर्दू को ‘राष्ट्र-विरोधी’ कह दिया गया। इस पर ध्यान कम गया है कि किस तरह गोविंद वल्लभ पंत के कार्यकाल के दौरान अल्पसंख्यक-विरोधी राजनीति शुरू हुई और प्रशासन से मुसलमानों को बाहर किया गया।” राजनीति शास्त्री प्रताप भानु मेहता कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ चुनावी हुआ करती थी, जो अब मिट रही है।” वे चरण सिंह का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि “वे गहरे सांप्रदायिक थे, लेकिन चुनावों के दौरान धर्मनिरपेक्ष हो जाते थे।”
उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख स्थल था। हिंदी और उर्दू साहित्य का गढ़, मुस्लिम राजनीति का केंद्र, साथ ही इलाहाबाद, अलीगढ़ और बनारस के महान विश्वविद्यालयों की भूमि भी। असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में सबसे ज्यादा गिरफ्तारियां भी इसी प्रांत से हुईं। यह भूमि पहले यूनाइटेड प्रॉविन्स ऑफ आगरा और अवध के रूप में जाना जाती थी। 1937 में इसका नाम यूनाइटेड प्रॉविन्स हो गया। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जवाहरलाल नेहरू ने यूनाइटेड प्रॉविन्स को ‘भारत का हृदय’, हिंदी और फारसी संस्कृति का केंद्र कहा, जो कालांतर में “पश्चिमी संस्कृति के साथ घुल गईं।”
आज मुस्लिम समुदाय के प्रति विरोध बढ़ रहा है। अयोध्या में मूर्तियां मस्जिद में रखी थीं, लेकिन मथुरा में चमकती दुकानों और होटलों के बीच भव्य कृष्ण मंदिर स्थित है। इसके पीछे एक ढहती हुई उपेक्षित मस्जिद है, जिसका रास्ता एक गंदगी भरी गली से होकर जाता है। इसके चारों ओर गरीब मुस्लिम परिवार रहते हैं। यह मस्जिद, मंदिर की पारिस्थितिकी और मथुरा की सांस्कृतिक स्मृति में लगभग अनुपस्थित थी, आज स्थानीय निवासी इसे हटाने की मांग कर रहे हैं।
मुसलमानों के प्रति यह दुर्भाव इस धारणा से भी मजबूत हुआ है कि सपा शासन मुस्लिम अपराधियों को संरक्षण देता था। मेरठ-शामली सीमा पर ईंट के कारखाने में काम करने वाले जाटव कर्मचारी प्रवीण कुमार कहते हैं कि उनका वोट मायावती को जाएगा, लेकिन तुरंत जोड़ते हैं कि “कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि मोदी सरकार ने मुसलमानों की गुंडागर्दी को समाप्त कर दिया।”
यह ठीक है कि योगी आदित्यनाथ के शासन के दौरान कानून-व्यवस्था में सुधार हुआ है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 2017 में 8,900 दंगे हुए, 2018 में 8,908, 2019 में 5,714 और 2020 में 6,126 यानी, 2016 में समाजवादी पार्टी के समय 8,018 मामलों से कम। लेकिन यह संख्या भी बड़ी है। 2021 में राष्ट्रीय महिला आयोग को महिलाओं के खिलाफ अपराधों की 31,000 शिकायतें मिलीं, जिनमें से 15,828 उत्तर प्रदेश से थीं। 2013 से 2016 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराध के दर्ज मामलों की संख्या 1,56,634 थी, जो 2017-2020 यानी योगी सरकार के पहले तीन वर्षों में बढ़कर 2,24,694 हो गई। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, योगी सरकार के पहले तीन वर्षों में, पुलिस ‘मुठभेड़’ में मारे गए लोगों में से लगभग 37 प्रतिशत मुसलमान थे।
कानून और व्यवस्था पर शायद सबसे बड़ा जवाब हाथरस की बलात्कार पीड़िता से आएगा। बूलगढ़ी गांव के इस परिवार पर पहले प्रशासन ने मामला वापस लेने का दबाव बनाया। आज भी मृतक लड़की के घरवाले डरे-डरे हैं। सितंबर 2020 में जब उन्होंने गैंगरेप के आरोपी ठाकुर भाइयों के खिलाफ आवाज उठाई तो, उन्हें धमकियां मिलने लगीं। उनकी सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ की एक टुकड़ी तैनात कर दी गई। परिवार के एक सदस्य कहते हैं, “सवा साल से हम अपने घर में कैद हैं। सिर्फ अदालत में सुनवाई या दवा लेने ही बाहर निकलते हैं, वह भी सीआरपीएफ की सुरक्षा में।” गांव के लोग अपने घर का कूड़ा, मरे हुए चूहे और पिल्ले उनके घर के बाहर फेंक देते हैं। बीस फरवरी को जब वे वोट डालने गए तो सीआरपीएफ के पंद्रह जवान उनके साथ थे।
अपनी आत्म-छवि में कैद प्रदेश को आज एक नई सांस्कृतिक-राजनीतिक कल्पना की जरूरत है। वीरेंद्र यादव कहते हैं कि राजनीति का ‘सवर्ण मुहावरा’ भी बदलना चाहिए। जब मायावती ने अपने चुनाव चिन्ह की नई व्याख्या की कि “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” तो उन्होंने अपनी पार्टी की पहचान को त्याग दिया और खुद को उन मूल्यों से जोड़ लिया, जिनके खिलाफ कभी खड़ी थीं। मतदाता का विस्तार करने की राजनीतिक मजबूरी ने निचली जातियों के आंदोलन को चोट पहुंचाई और उस खाली हुई जगह पर भाजपा आ गई। सर्वेश आंबेडकर 1986 में बसपा में शामिल हुए और तीन दशक बाद 2016 में पार्टी छोड़ दी। वे फर्रुखाबाद की कायमगंज विधानसभा से सपा के टिकट पर लड़ रहे हैं। वे कहते हैं, “मायावती का जहाज डूब गया क्योंकि उन्होंने शेर और बकरी दोनों को शामिल करने की कोशिश की। कांशीराम ने कहा था, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनसे रहो अभी होशियार’ लेकिन अपने लोगों को तैयार करने से पहले बहनजी ने ऊंची जातियों को गले लगा लिया।”
इसलिए अगर भाजपा सरकार दोबारा नहीं भी बनी तो सामाजिक ढांचे में बड़ा बदलाव नहीं आएगा। यादव कहते हैं, “अगर सपा जीतकर अपने सवर्ण मुहावरे को नहीं बदलती है, तो कोई गहरा बदलाव नहीं ला पाएगी और हिंदुत्व की राजनीति को कोई नहीं रोक पाएगा।”
रायबरेली का बेरोजगार युवा हो या मुजफ्फरनगर का गन्ना किसान या फिर महामारी से तबाह हुआ आगरा का परिवार, सब सामाजिक स्थिति में बदलाव चाहते हैं लेकिन राजनीतिक नेतृत्व इसमें असमर्थ है। तब इस राज्य को नेतृत्व कौन दे सकता है? अपने शासन के दौरान मायावती ने राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव दिया था। मेहता कहते हैं, “कोई भी गठबंधन यूपी के भूगोल और अंतर्विरोधों के साथ न्याय नहीं कर सकता। पूर्वी उत्तर प्रदेश की जरूरतें पश्चिम और बुंदेलखंड से एकदम अलग हैं।”
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प्रेमचंद की एक कहानी में हल्कू किसान की फसल मवेशी खा जाते हैं, क्योंकि सर्दी की रात फसल की देखभाल करते वक्त उसे नींद आ जाती है। सौ बरस बाद, जनवरी 2022 में, प्रेमचंद के उत्तर प्रदेश में जिला रायबरेली, थाना जगतपुर, गांव इटवा के दो भाई शिवराम और तुलसी, सर्दी की एक रात मवेशियों से अपनी फसल बचाते वक्त ठंड से मर गए। इस घटना को सुनाते वक्त रायबरेली के किसान विजय प्रकाश चौधरी क्रोधित हो जाते हैं। मवेशी चौधरी साहब का भी बीस हजार का धान खा गए। महान साहित्य अक्सर भविष्य लिखता है, लेकिन दो किसानों की मृत्यु का पूर्वानुमान प्रेमचंद भी नहीं कर पाए थे।