प्रशांत किशोरः डग भरने की ख्वाहिश
“चुनाव रणनीतिकार ने राजनीति के सफर की शुरुआत अपने गृह प्रदेश बिहार से करने का ऐलान किया मगर कई सवाल हैं भविष्य के गर्भ में”
पदयात्राएं और देश-भ्रमण राजनीति का कोई नया नुस्खा नहीं, अपने देश में तो कतई नहीं। आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी की यात्राएं और आंदोलन तो इतिहास का अमिट हिस्सा हैं ही, उसके बाद भी खासकर पदयात्राएं कई मामलों में राजनीति में सफलता की कुंजी साबित होती रही हैं। हां, कोई चाहे तो साइकिल यात्राओं, रथयात्राओं वगैरह को भी जोड़ सकता है मगर पदयात्राएं ज्यादा असरदार साबित हुई हैं। कुछेक मिसालों में अस्सी के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की भारत यात्रा या बेहद हालिया आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की है। यात्राएं न सिर्फ सियासी कामयाबी दिलाती रही हैं, बल्कि कद भी कुछ पुश्त ऊंचा उठाती रही हैं। बेशक, प्रशांत किशोर को भी यह इल्म होगा। आखिर वे लगभग देश भर की राजनैतिक पार्टियों के लिए चुनावी रणनीतियां तैयार करने में मशगूल रह चुके हैं और उनके नाम सफलताएं भी जोड़ी जाती रही हैं, कुछेक विफलताएं भी बताई जाती हैं। इसलिए जब वे राजनीति में कदम बढ़ाने की सोच रहे हैं तो पटना में 5 मई को उनके इस ऐलान पर बहुतों की दिलचस्पी बढ़नी ही थी कि “मैं 2 अक्टूबर से बिहार (अपने गृह प्रदेश) की करीब 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा करूंगा, ताकि हर टोले, गांव, शहर, गली-मोहल्ले में पहुंच सकूं।” वजह: “लालू यादव और नीतीश कुमार जैसी शख्सियतों के तकरीबन 30 साल के राज में बिहार लगातार पिछड़ता ही गया है और आज शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार हर मानव सूचकांक पर सबसे पिछड़ा राज्य है। यहां ‘जन सुराज’ की दरकार है।” जन सुराज उनका गढ़ा शब्द है, जिसे वे अंग्रेजी के गुड गवर्नेंस का पर्याय बताते हैं।
जाहिर है, इस पर प्रतिक्रिया भी होनी ही थी। जनता दल-यूनाइटेड के नेता, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा, “कोई क्या कहता है, यह खास मतलब नहीं रखता। लोग देख रहे हैं कि हमने क्या काम किया है।” राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव ने कहा, “पूरा देश घूमकर यहां आए हैं। यहां कोई ठिकाना नहीं है।” उनके बेटे तथा राजद की बागडोर थाम चुके तेजस्वी यादव ने तो कुछ तीखे अंदाज में कहा, “प्रशांत किशोर का बयान प्रतिक्रिया के काबिल भी नहीं है। यह निराधार बयान है। मैं उनके बारे में नहीं जानता....वे कौन हैं? वे अभी तक कोई फैक्टर नहीं रहे हैं।” प्रतिक्रियाएं दूसरे दलों और नेताओं से भी आईं, खासकर भाजपा के राज्य नेताओं से क्योंकि राजनैतिक कयास यह भी है कि उनकी सक्रियता से अगड़ों के कुछ हिस्सों में मन बदलता है तो उसका सीधा नुकसान भगवा पार्टी को हो सकता है।
हालांकि प्रशांत के तीर तो फिलहाल लालू और नीतीश की ओर ही हैं। उसकी वजह भी साफ दिखती है क्योंकि पिछड़ों और दलितों में पैठ बनाए बगैर बिहार में कोई राजनैतिक हलचल पैदा नहीं हो सकती। भाजपा भी अगड़ों के साथ अति पिछड़ों में कुछ पैठ बनाकर ही पिछले चुनावों में अपना प्रदर्शन सुधार सकी। लेकिन हाल के बोचहां उपचुनाव से वह कुछ घबराई हुई दिखती है, जहां उसे अगड़ों खासकर भूमिहारों में टूटन दिखाई दी। हालांकि प्रशांत किशोर का बिहार के जातिगत सियासी गणित पर कुछ और ही मानना है। उन्होंने कहा, “यह कहना बेमानी है कि बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में ही जाति मायने रखती है। जाति तो चुनावों में समूचे देश में लगभग एक समान काम करती है और बार-बार बड़े परिदृश्य को देखकर टूटती भी है।”
सिद्धांत रूप में इस बात में बेशक दम है लेकिन व्यवहार में वे कितना कर पाते हैं, यह तो आगे दिखेगा। हालांकि वे उन ‘साढ़े सत्रह हजार’ लोगों का मन टटोलेंगे, जिन्हें उनकी टीम ने ‘चिन्हित’ किया है और राजनैतिक या अराजनैतिक तौर पर सोच-विचार के स्तर पर बिहार में सक्रिय है। वे कहते तो यही हैं कि “लोगों से संवाद के बाद ही पता चलेगा कि पार्टी बनेगी या मंच बनेगा।” सवाल यह भी है कि कई विचारधाराओं की आक्रामक टकराहट के दौर में उनके ‘जन सुराज’ या ‘अच्छा राजकाज’ का सिद्धांत कितने लोगों के मन भाता है? यह मोटे तौर पर सामाजिक न्याय और उस नव-राष्ट्रवाद की वैचारिकी से बाहर है, जिसका इन दिनों बोलबाला है। जन सुराज किसी विचारधारा या रुझान की ओर इंगित नहीं करता। इसलिए यह पेेंच है।
यूं तो प्रशांत अपने को ‘लेफ्ट टु सेंटर’ कहते हैं और महात्मा गांधी के विचारों से जुड़ा बताते हैं क्योंकि “महात्मा गांधी से बड़ी राजनैतिक शख्सियत पिछली कई सदी से देश में नहीं हुई है, न निकट भविष्य में होने की उम्मीद है।” फिर भी वे गांधी के ग्राम स्वराज की नहीं, बल्कि सिर्फ अच्छे राजकाज की बात करते हैं। जाहिर है, अच्छा राजकाज भी बिना खास वैचारिक रुझान के संभव नहीं है क्योंकि कइयों के लिए कोई राजकाज अच्छा हो सकता है तो दूसरों के लिए बेहद बुरा, जिसकी मिसाल आज देश में बड़े आक्रामक ढंग से दिख रही है। प्रशांत को भी यह एहसास है, जब वे कहते हैं, “कहीं के लोग पक्की नालियां, पीने के पानी, पढ़ाई, अस्पताल चाहते हैं तो वहां फ्लाई ओवर बनाना कैसे विकास या जन सुराज हो सकता है।” लेकिन जन सुराज में जातिगत या सामुदायिक टकराहटों पर क्या हल होगा, यह शायद स्पष्ट नहीं है और है भी तो जाहिर नहीं है।
प्रेस कॉन्फ्रेंस करते प्रशांत किशोर
बेशक, वे महात्मा गांधी को बार-बार उद्धृत करते हैं। जन सुराज के लोगो में भी गांधी की तस्वीर है और पटना के प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भी उनके पीछे गांधी की तस्वीर के साथ उद्धरण लिखा था, ‘सच्ची राजनीति सही काम करना है।’ बहुत कुछ ऐसा ही प्रशांत खुद की मंशा पर सवाल उठाने वालों से भी कहते हैं, “कुछ दिन मेरे क्रिया-कलाप देखिए, फिर मन बनाइए।” लेकिन सवाल तो उठ ही सकते हैं कि वे गांधी के मुरीद कब से बने, और अगर शुरू से थे तो सबसे पहले भाजपा के चुनाव प्रबंधन से शुरुआत क्यों की? वे कह सकते हैं कि वह उनका पेशेवाराना काम था। आज वे कांग्रेस की भी वाहवाही करते हैं क्योंकि “उसका विचार और आइडिया ऑफ इंडिया इस देश के लोगों से जुड़ा है।”
हालांकि नई राजनैतिक पहल से ऐन पहले उनकी कांग्रेस से आखिरी दौर की बैठकें भी हुईं, जिसमें उन्होंने कई तरह के डेटा और स्लाइड के जरिए पार्टी में नई जान डालने का सुझाव पेश किया। लेकिन कांग्रेस में शामिल होने की पेशकश उन्होंने ठुकरा दी, क्योंकि “जिस एम्पॉवर्ड एक्शन ग्रुप में मुझे जोड़कर सुझावों पर अमल की बात की गई, उसकी कांग्रेस के संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है, लिहाजा टकराव होते।”
बहरहाल, इसमें दो राय नहीं कि प्रशांत राजनैतिक प्राणी हैं, इसलिए महत्वाकांक्षाएं भी होंगी ही। हालांकि एक टीवी इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि दो लड्डू हैं एक पर मुख्यमंत्री और दूसरे पर प्रधानमंत्री लिखा है तो किसे उठाएंगे? जवाब था, दोनों को छोड़ पानी पीने चला जाऊंगा। फिर भी उनके जीवन की यात्रा में राजनीति के कीड़े तो दिख सकते हैं। आखिर सासाराम जिले के कोनार गांव के मूल निवासी और अब बक्सर के बाशिंदे हो गए प्रशांत संयुक्त राष्ट्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ के नाते आठ साल तक काम करने के बाद 2011 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (2014 के बाद प्रधानमंत्री) के साथ जुड़ गए। 2012 के विधानसभा चुनावों में उनके मददगार बने। उन्होंने 2013 में सिटिजन्स फॉर एकाउंटेबल गवर्नेंस ग्रुप की स्थापना की और 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत में अहम भूमिका निभाई तो सुर्खियों में चढ़ गए।
लेकिन उसके बाद भाजपा से उनके संबंध खट्टे हो गए तो उन्होंने 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में लालू-नीतीश के महागठबंधन की मदद की। उसमें सात सूत्री कार्यक्रम बनाने का वे परोक्ष श्रेय लेने से नहीं चूकते। 2017 के पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों में कांग्रेस के साथ काम किया। पंजाब में उन चुनावों में आम आदमी पार्टी को न जीतने देने को भी वे अपनी उपलब्धियों की तरह जिक्र करते हैं। बाद में 2018 में वे जदयू में भी शामिल हुए लेकिन सीएए-एनआरसी के पक्ष में जदयू ने लोकसभा में वोट किया तो उन्होंने विरोध जताया और पार्टी से नाता टूट गया। तब नीतीश ने कहा था कि “अमित शाह के कहने पर रखा था।” अब प्रशांत की सफाई है, “उन्होंने ऐसा कहा, ताकि मुझे विरोधी खेमे से जुड़ने में दिक्कत आ जाए।” इस बीच, वे और उनका समूह देश की लगभग हर पार्टी-आप, वाइएसआर कांग्रेस, द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस को भी चुनावी प्रबंधन में मददगार बन चुका है। 2021 में खासकर बंगाल में ममता बनर्जी की जीत से उन्हें और ज्यादा ख्याति मिली। हालांकि तृणमूल की राष्ट्रीय पैठ बनाने, खासकर गोवा में पार्टी के प्रवेश की योजना सफल नहीं हो पाई। हाल में उनकी और उनके समूह की बात तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव से भी हुई, जहां अगले साल चुनाव होने हैं।
बहरहाल, पिछले साल 2 मई को उन्होंने ऐलान किया कि वे अब चुनाव प्रबंधन का काम नहीं करेंगे और साल भर का ब्रेक लेकर सोचेंगे कि आगे क्या करना चाहते हैं। हालांकि इस बीच वे शरद पवार जैसे कई बड़े नेताओं से मिलते रहे और खबरों के मुताबिक, 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्षी एकता की पहल में भी हिस्सेदारी निभाते रहे हैं। लेकिन 3 मई को ‘जन सुराज... शुरुआत बिहार से’ ट्वीट से नए सफर पर निकल पड़े हैं। इस सफर के मोड़ कहां मिलेंगे, अभी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि “भविष्य की बातें अभी नहीं” की उनकी संक्षिप्त टिप्पणी में बहुत कुछ छुपा हो सकता है।